अंतरराष्ट्रीय पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस : कम्युनिस्ट देशों में प्रेस की स्वतंत्रता

कम्युनिस्ट शासन में वास्तविकता इसके उलट है। वास्तव में वामपंथी शासनकाल में स्थितियां कैसी होती है इसे जानने के लिए हमें कम्युनिस्टों की सत्ता वाले दो देशों में चल रही वर्तमान गतिविधियों को देखना होगा। ये दोनों देश हैं क्यूबा और चीन। दोनों देशों में लोकतंत्र नहीं है और वामपंथियों की सत्ता है।

The Narrative World    03-May-2024   
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वामपंथी हमेशा लोगों को एक ऐसे राज्य या शासन व्यवस्था का सपना दिखाते हैं जहां सबकुछ अच्छा ही अच्छा होता है। जहां अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होती है
, जहां समाज में अमीरी-गरीबी नहीं होती, जहां स्वास्थ्य और शिक्षा निःशुल्क होती है और तो और महिलाओं की भागीदारी सभी स्थानों में बराबरी की होती है।


इसके अतिरिक्त जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा ये उठाते हैं, वो है प्रेस या पत्रकारिता की स्वतंत्रता का। ये कहते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए और प्रेस को पूरी आजादी मिलनी चाहिए।


लेकिन कम्युनिस्ट शासन में वास्तविकता इसके उलट है। वास्तव में वामपंथी शासनकाल में स्थितियां कैसी होती है इसे जानने के लिए हमें कम्युनिस्टों की सत्ता वाले दो देशों में चल रही वर्तमान गतिविधियों को देखना होगा। ये दोनों देश हैं क्यूबा और चीन। दोनों देशों में लोकतंत्र नहीं है और वामपंथियों की सत्ता है।


क्यूबा, जो कि भारत से लगभग 14 हजार किलोमीटर से अधिक दूरी पर स्थित है, वहां की अधिनायकवादी सत्ता ने विरोध की हर आवाज़ को कुचल दिया है। भूख और गरीबी के साथ-साथ महामारी से मरते और बिखलते लोगों ने वामपंथी सरकार के विरुद्ध बीते वर्षों में जमकर प्रदर्शन किया था।


हालांकि जनता के गुस्से को शांत करने के लिए पहले तो क्यूबा की वामपंथी सरकार ने माफी मांगी और फिर जैसे ही आंदोलन ठंडा पड़ा तो उसका नेतृत्व करने वाले लोगों को पकड़ कर गिरफ्तार किया गया।


लेकिन इन सब के बीच मीडिया पूरी तरह से गायब रही। क्यूबा की इस घटना पर अंतरराष्ट्रीय मीडिया को भी सीमित जानकारियां मिली, लेकिन क्यूबन मीडिया इस मामले से पूरी तरह गायब रही।


स्थिति ऐसी है कि हवाना में आज सैकड़ों ऐसे परिवार हैं जो अपने पति, बेटे, पत्नी, भाई, बहन, माता-पिता का इंतजार कर रहे हैं जिन्हें क्यूबा की वामपंथी सरकार ने जेल में डाल दिया है, लेकिन मीडिया पर ऐसी सेंसरशिप है कि इस पर कोई बात नहीं करता। वामपंथी शासन की तानाशाही को इससे भी समझा जा सकता है कि गिरफ्तार किए गए प्रदर्शनकारियों में 2 दर्जन से अधिक नाबालिग भी शामिल हैं।


प्रेस-मीडिया-पत्रकारिता की सभी स्वतंत्रताओं को कुचलने और मूलभूत सुविधाओं से जनता को दूर रखने की वामपंथी नीति का विरोध जब क्यूबा की जनता ने किया तो वामपंथी सत्ता की जड़ें हिल गई थी।


कम्युनिस्ट समूह ने आंदोलन तो रुकवा दिया था लेकिन समस्याएं अभी भी वैसी बनी हुई हैं। आम जनता के साथ-साथ मीडिया जगत भी त्रस्त है और वह एक पार्टी के शासन और कम्युनिस्ट विचार से आजादी चाहते हैं।


वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसी ही स्थिति चीन की भी है। हालांकि चीन की अर्थव्यवस्था थोड़ी मजबूत है और उसने सूचना-तंत्र का ऐसा मायाजाल बिछाया हुआ है कि सिर्फ वहीं सूचनाएं अंदर-बाहर होती हैं जिसे चीन की कम्युनिस्ट सरकार चाहती है।


हालांकि इस सोशल मीडिया के जमाने में चीन से भी विभिन्न घटनाएं सामने आती हैं, जो इस बात की ओर इंगित करते हैं कि वहां भी 'सिटीजन जर्नलिस्ट' वामपंथी शासन की नीतियों से परेशान हो चुके हैं।


दरअसल चीन पूरी तरह से बैंकिंग संकट से जूझ रहा है। रियल स्टेट डूब चुका है। अर्थव्यवस्था गिरने की कगार पर है, लेकिन फिर भी मीडिया पर कंट्रोल के कारण चीन से इसकी कोई जानकारी बाहर नहीं आती है।


चीन ने तो एक ऐसा फायरवॉल भी बना लिया है कि जिसके चलते चीनी कम्युनिस्ट सरकार की आलोचना से जुड़ा कोई भी कंटेंट ना चीन के अंदर जाता है, ना ही बाहर आता है।


इन सभी हरकतों से यह भी पता चलता है कि चीन जो अपनी अर्थव्यवस्था का ढिंढोरा पीटता है, असल में उसकी अर्थव्यवस्था का गुब्बारा फूटने वाला है।


कुल मिलाकर देखें तो यह स्पष्ट दिखाई देता है कि चीन की जनता, पत्रकार, और स्वतंत्र मीडिया की चाह रखने वाले लोग अब कम्युनिस्ट तानाशाही और बंदिशों से आजाद होना चाहते हैं, यही कारण है कि बीच-बीच में कई बार विरोध प्रदर्शन देखे जा चुके हैं। हालांकि चीनी जनता के लिए कहा जाता है कि उन्हें सोने के पिंजरे में रखा गया है, अब देखना यह है कि वो कब स्वतंत्र होते हैं।