मार्क्स के चिन्तन में अन्तर्निहित दोष

मार्क्स का दर्शन वस्तुतः एक प्रतिक्रिया मात्र था। संभवतः उसके विचारों को इतना व्यापक प्रसार केवल इसीलिए हो सका क्योंकि तत्कालीन विश्व का अधिकांश हिस्सा साम्राज्यवाद की जेल से छुटने को आतुर था। ऐसे में Call For Action ने पूरे विश्व में मार्क्स को समादृत किया। लेकिन कम्युनिस्ट तानाशाही के बुरे स्वप्न को जब एक बहुत बड़ी आबादी ने हकीकत में जीया, और अधिकांश देशों ने साम्राज्यवादी देशों से स्वाधीनता की जंग जीत ली, तब जाकर मार्क्स के विचारों में निहित दोष उजागर होने लगे। समय के साथ कम्युनिस्टों में ही कई तरह के वि

The Narrative World    05-May-2024   
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कार्ल मार्क्स आधुनिक विश्व को प्रभावित करने वाला संभवतः सबसे अधिक प्रभावशाली विचारक रहा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि पूरे विश्व में यूरोप द्वारा मचायी गयी उथल-पुथल के दौर में युवा मार्क्स के विचारों से स्रवित हुई उसकी चिन्तनधारा गत डेढ़ सदी से भी ज्यादा समय से निरन्तर प्रवहमान है।


इतिहास के भू-पृष्ठ पर उसने कई मोड़ लिए हैं, एक चंचल पहाड़ी नदी की तरह इसने तरुणवय में काफी उपद्रव मचाए हैं, कई बिन्दुओं पर यह धारा कृशकाय भी हुई है; पर इन सबके साथ-साथ डेढ़ सौ वर्षों की इस यात्रा में इसने कई शाखाओं के रूप में स्वयं का विस्तार भी किया है। इसे मार्क्स के द्वन्द्वात्मक दर्शन का ही प्रभाव माना जा सकता है कि उसके चिन्तन ने स्वयं मार्क्स के प्रति ही समूचे विश्व की राय को द्वन्द्वात्मक बना दिया है।


पिछली डेढ़ शताब्दी में दुनिया में मार्क्स को जानने वाले दो प्रकार के ही लोग हुए; पहले वे लोग, जिनके लिए मार्क्स उनकी प्रेरणा का स्रोत है, मार्क्सवाद जिनका मज़हब है; और दूसरे वे लोग, जिन्हें मार्क्स के नाम से ही कष्ट होता है। लेकिन चाहे जो भी हो, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि पर विचार करने वाला कोई भी व्यक्ति मार्क्स की उपेक्षा नहीं कर सकता। और यही तथ्य मेरे उस कथन का प्रमाण है कि मार्क्स जितना प्रभावशाली विचारक आधुनिक काल में कोई नहीं हुआ।


कार्ल मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर संसार की मीमांसा की थी। इसी को आधार बनाकर उसने अपने सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विचार भी प्रस्तुत किये। ऐतिहासिक भौतिकवाद, अलगाववाद और वर्ग संघर्ष जहाँ उसके सामाजिक-राजनीतिक विचारों को निरूपित करते हैं, वहीं अधिशेष मूल्य, पूँजी और श्रम जैसी संकल्पनाएँ उसके आर्थिक विचारों को प्रदर्शित करती हैं। लेकिन मार्क्स के उपर्युक्त सभी विचारों को एक हार में गूँथने वाला सूत है - भौतिकवाद। सरल शब्दों में कहें, तो उत्पादन के साधन और उत्पादन-सम्बन्ध ही मानव समाज को चलायमान रखते हैं। लेकिन इससे पहले कि हम मार्क्स के चिंतन और उसके अन्तर्निहित दोषों पर चर्चा प्रारंभ करें, हमें पाश्चात्य चिंतनधारा के आधारभूत लक्षणों को समझना चाहिए।


पाश्चात्य चिन्तनधारा


पाश्चात्य जगन्मीमांसा की शुरुआत प्राचीन यूनानी चिन्तन से होती है। तब से ही समूचे पाश्चात्य चिन्तन की तीन प्रमुख पद्धतियाँ रही हैं। पहली - दैवीय, दूसरीआदर्शवादी, और तीसरी भौतिकवादी। दैवीय पद्धति के अनुसार यह जगत् ईश्वर की कृति है और उसी की इच्छा से यह सतत विकासोन्मुखी है। सुकरात इस पद्धति का प्रमुख दार्शनिक रहा है। आदर्शवादी मीमांसा के अनुसार जगत् विचारों की कृति है। एक सत्य उद्देश्य इस सृष्टि को चलायमान रखता है। प्लेटो को आदर्शवाद का प्रवर्त्तक माना जाता है। वहीं इन दोनों पद्धतियों से भिन्न भौतिकवादी मीमांसा अत्यन्त सूक्ष्म भूत पदार्थों से विश्व का सृजन और उसकी गति मानती है। इसके अनुसार भौतिक परिस्थितियाँ चेतना और विचारों के कारण है, कार्य नहीं।


सुकरात के पूर्व के दार्शनिक इसी पद्धति से संबंधित थे। पर यदि भारतीय दृष्टि से देखें तो समूचा पाश्चात्य चिंतन ही भौतिकवादी प्रतीत होता है, क्योंकि पाश्चात्य मनीषा कभी भी मन और चेतना के ऊपर नहीं गई और भारत में पंचेन्द्रियग्राह्य विषयों के साथ-साथ मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को भी शब्द एवं अनुमान प्रमाणों का प्रमेय होने से भौतिक ही माना गया है। हालांकि यह सब आज की इस चर्चा का विषय नहीं है। इसलिए इसे यहीं समाप्त कर हम आगे बढ़ते हैं।


यूरोप में नवजागरण के बाद दैवीयवाद लगभग उपेक्षित हो गया, स्पिनोजा जैसे इक्के-दुक्के दार्शनिकों ने ही इसका अवलंबन लिया। लेकिन, आदर्शवादी और भौतिकवादी चिन्तन आज भी अस्तित्वमान है। यूरोपीय इतिहास के आधुनिक काल में हीगेल जहाँ आदर्शवाद का अग्रणी विचारक हुआ, वहीं मार्क्स ने भौतिकवाद की सर्वथा अभिनव व्याख्या की। सबसे पहले हम हीगेल के विचारों पर एक दृष्टि डालते हैं।


हीगेल का द्वन्द्वात्मक आदर्शवाद

हीगेल के अनुसार, विचार ही नित्य है। इन विचारों से ही भौतिक जगत निर्मित होता है। उदाहरण के लिए, किसी इमारत को ले लीजिए। हीगेल की दृष्टि से देखें तो उसका भौतिक अस्तित्व और स्वरूप इस पर निवेश करने वाले बिल्डर और इसकी डिजाइनिंग करने वाले वास्तुकार के विचारों की उपज है। इससे हीगेल ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि चेतना ही प्रधान कारण है और भौतिक संसार उसका एक गौण कार्य है। यह आदर्शवाद है। इसी आदर्शवाद पर द्वन्द्वात्मक पद्धति का आरोपण कर हीगेल ने द्वन्द्वात्मक आदर्शवाद का प्रणयन किया।


द्वन्द्व का शाब्दिक अर्थ है – ‘दोकी प्रधानता। उदाहरण के लिए संस्कृत और हिन्दी में हमने द्वन्द्व समास के बारे में जरूर सुना होगा। वहाँ द्वन्द्व का तात्पर्य होता हैदोनों पदों की प्रधानता, जैसे – ‘दिन और रातइस पद का समस्त पददिनरातहोगा, जिसमेंदिनऔररातदोनों ही पद प्रधान होते हैं। तो हीगेल ने अपने आदर्शवाद में द्वन्द्वात्मक पद्धति का इस्तेमाल इस रूप में किया कि प्रत्येक विचार (या Thesis) अपने साथ एक प्रतिविचार (या Anti-Thesis) को जन्म देता है। ये दोनों मिलकर एक नया विचार देते हैं, जिसे हीगेल ने संश्लिष्ट विचार (या Synthesis) कहा।


इस तरह वाद और प्रतिवाद के इस द्वन्द्व के माध्यम से विचार स्वयं को आगे बढ़ाता है। हीगेल का यह मानना था कि इसी द्वन्द्व या विरोध से हम सभी घटनाओं या तथ्यों को समझ सकते हैं। उदाहरण के लिए, हम बर्फ के बाद यदि गुनगुने पानी में हाथ डाले तों हम उसे गर्म कहते हैं, लेकिन यद उबलते पानी से गुनगुने पानी में हाथ डाले तो उसे ठण्डा कहेंगे। अतः गर्म के विरोध में हम ठण्डे को या ठण्डे के विरोध में गर्म को समझ सकते हैं।


हीगेल का राजनीतिक चिंतन इसी द्वन्द्वात्मक आदर्शवाद पर आधारित है। उसके अनुसार अराजकता के प्रतिविचार के रूप में राज्य का जन्म हुआ, कालान्तर में यह राज्य तानाशाही में परिणत हुआ, जिसके विरोध में लोकतंत्र का जन्म हुआ और उनके संश्लेषण से संवैधानिक लोकतंत्र का जन्म हुआ।


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हीगेल के मतानुसार राज्य तर्कपरक या विचारपरक है, और यह तर्क की सर्वोच्च अवस्था भी है इसीलिए उसने राज्य को नागरिक से ऊपर रखा और नागरिकों की स्वतंत्रता का विरोध किया। इसी तरह हीगेल ने इतिहास की भी द्वन्द्वात्मक व्याख्या की। यहाँ हीगेल को इतना समय देने का कारण केवल इतना ही था कि मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक पद्धति हीगेल से ही ली थी। और अब विषय के अनावश्यक विस्तार न करते हुए हीगेल के विचारों पर अपनी यह चर्चा हम यही समाप्त करते हैं।


मार्क्सवादी चिन्तन के प्रधान तत्व


अब हम मार्क्सवाद के रूप में प्रसिद्ध विचारों की ओर चलते हैं। यहाँ सबसे पहले हम मार्क्स के भौतिकवाद को जानने की कोशिश करेंगे। तदुपरान्त उसपर द्वन्द्वात्मक पद्धति के आरोपण से निःसृत द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद पर दृष्टि डालेंगे। अन्त में हम वर्गसंघर्ष, अलगाव व अधिशेष मूल्य संबंधी मार्क्सवादी विचारों पर चर्चा करेंगे।


मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद


मार्क्स के अनुसार पदार्थ या भौतिक परिस्थितियाँ ही विचार और चिंतन रूपी कार्यों के पीछे प्रमुख कारण है। उसका कहना था कि हमारे विचार मस्तिष्क की उपज है, जो पदार्थ का एक अति सुसंगठित रूप है। अतः पदार्थ प्रधान है और विचार गौण। यह हीगेल के आदर्शवाद के ठीक विपरीत है। मार्क्स के शब्दों में इन विचारों से उसने सिर के बल खड़े हीगेल को सीधा खड़ा किया।


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यद्यपि मार्क्स हीगेल के विचारों का कटु आलोचक रहा, लेकिन उसने हीगेल से ही द्वन्द्वात्मक पद्धति लेकर उसका भौतिकवाद पर आरोपण किया। इसे ही द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद कहा जाता है। सूक्ष्म पदार्थों के परस्पर संघर्ष से नवीन पदार्थों का संश्लेषण होता है, यह इसका बीज विचार है।


मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद और वर्गसंघर्ष


अपनी इस द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी मीमांसा द्वारा मार्क्स ने पूंजीवाद का विश्लेषण करने के दौरान इतिहास और राजनीति की एक अनोखी व्याख्या पेश की। उसके अनुसार, यह मानव समाज के इतिहास की एकमात्र वैज्ञानिक व्याख्या थी। उसने कहा कि मानव समाज में आरंभिक साझावाद के युग बाद से ही लगातार दो वर्गों का अस्तित्व रहा है,और इन्हीं का द्वन्द्व मानव इतिहास का प्रमुख प्रवर्तक बल रहा है।


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यह बात अनोखी इसलिए है, क्योंकि मार्क्स ने इन वर्गों के निर्माण का आधार उत्पादन के साधनों को मानकर, केवल अर्थ या धन को ही मानव इतिहास की प्रवर्तनकारी शक्ति बता दिया। राज्य, संस्कृति, भाषा आदि सबकुछ उसके लिए गौण थे। प्रत्युत उसके अनुसार ये सब भी उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व और श्रम के अनुसार ही विकसित होते हैं।


उसके अनुसार प्रत्येक समाज के निर्माण में उस काल की भौतिक परिस्थितियों में विद्यमान उत्पादन के साधनों के अनुसार उत्पादकीय सम्बन्धों का निर्धारण होता है। समाज में दो वर्ग होते हैं - एक वह, जिसके हाथ में उत्पादन के साधन होते हैं; और दूसरा वह, जो उत्पादन की प्रक्रिया में श्रम के माध्यम से भागीदार होता है। एंजेल्स के साथ 1848 में लिखितदि कम्युनिस्ट मैनिफेस्टोमें वे दोनों लिखते हैं,


“The history of all hitherto existing society is the The history of class struggles. Freeman and slave, patrician and plebeian, lord and serf, guild-master and journeyman- in a word, oppressor and oppressed-stood in constant opposition to one another, carried on an uninterrupted, now hidden, now open fight, a fight that each time ended either in a revolutionary reconstitution of society at large or in the common ruin of the contending classes.”


अर्थात्, अबतक विद्यमान समस्त मानव समाजों का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है। दास और स्वामी, सम्भ्रान्त और साधारण, जमींदार और भूमिहीन किसान, श्रेणीकार और दस्तकार - और यदि एक पद में कहना चाहें, तो शोषक और शोषित; परस्पर विरोध में खड़े रहे इन दोनों वर्गों में कभी खुले में तो कभी लुकाछिपी में, निरन्तर एक संघर्ष चलता ही रहा है। और जब यह संघर्ष तीव्रता की पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है, तब या तो समाज के क्रान्तिकारी पुनर्गठन या फिर संघर्षरत वर्गों के सर्वनाश, इन दो तरीकों से ही यह संघर्ष समाप्त होता है।


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कुल मिलाकर मार्क्स की यह मान्यता थी कि यदि वर्गों के बीच प्रतिद्वन्द्विता नहीं होगी तो समाज में प्रगति भी नहीं होगी।


लेकिन एक वर्ग दूसरे का शोषण किस तरह करता है? इसके उत्तर के रूप में मार्क्स के दो अन्य सिद्धान्तों, अलगाववाद और अधिशेषमूल्य को हमें समझना होगा।


अलगाववाद और अधिशेष मूल्य (या Surplus Money)


अलगाववाद मार्क्स द्वारा की गई पूंजीवाद की आलोचना का आधार था। मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी समाज में अलगाव के तत्त्व विद्यमान है। पूंजीपति श्रमिकों से यन्त्रवत् श्रम लेते है। इसके कारण श्रमिकों के पास और किसी गतिविधि के लिए समय नहीं रह जाता था। इससे उसे श्रम में आनन्द नहीं मिलता। श्रम उसके लिए महज एक वस्तु बन जाती है, जिसे बेचकर वह जीविकोपार्जन करता है।


इससे मनुष्य समाज, प्रकृति, अपने साथियों, और यहाँ तक कि स्वयं से ही अलग हो जाता है। और यही उसका शोषण है। एक दूसरे तरह के अलगाव की भी मार्क्स ने व्याख्या की। वह मानता था कि पूंजीवादी व्यवस्था में मजदूर अपने ही श्रम से उत्पादित वस्तु से अलग हो जाता है, क्योंकि उत्पादन के बाद तो पूंजीपति ही उस वस्तु का स्वामी हो जाता है।


इसी तरह उसने अधिशेष मूल्य के जरिए भी पूंजीपतियों द्वारा सर्वहारों के शोषण को रेखांकित किया था। वस्तुतः अधिशेष मूल्य ही मार्क्स का वह सिद्धान्त है, जिसके माध्यम से उसने पूंजीपतियों द्वारा सर्वहारों के शोषण को व्यक्त किया था। अधिशेष मूल्य (या Surplus Money) को हम आसान शब्दों में लाभ (या Profit) कह सकते हैं।

 
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एक सामान्य सा तथ्य है कि श्रमिक किसी वस्तु का उत्पादन करता है, और पूंजीपति उस वस्तु को उत्पादन के मूल्य से अधिक मूल्य पर बेचता है। इस पर मार्क्स का तर्क यह है कि चूंकि पूंजीपति मजदूर को दी गई मजदूरी से अधिक मूल्य पर वस्तु बेचता है, तो इससे मजदूर को उसकी पूरी मेहनत के बदले धन नहीं मिलता। अर्थात् पूंजीपति श्रमिक के श्रम के किसी भाग को चुरा लेता है। और इस तरह पूंजीपति सर्वहारों का शोषण करते हैं।


Call for Action


कार्ल मार्क्स के चिन्तन को उसके पूर्ववर्ती और परवर्ती सभी दार्शनिकों से जो एक बात अलग बनाती है, वह है Call for Action या क्रान्ति का आह्वान। और यह आह्वान भी केवल किसी एक देश या महाद्वीप तक सीमित नहीं था, बल्कि पूरे विश्व के सर्वहारों को केरान्ति के लिए उद्यत करने वाला था। मार्क्स के अनुसार, सर्वहारों को अपनी-अपनी राष्ट्रीयताओं के परे जाकर कम्युनिस्ट क्रान्ति को साकार करना होगा। उसने समय की मांग का तकाजा भी दिया। उसके अनुसार एक वर्ग के अधिनायकत्व को दूसरे वर्ग के अधिनायकत्व से हटाना अवश्यम्भावी था।


मार्क्सवादी चिन्तन में कुछ सामान्य दोष


मार्क्स के इस पूरे चिन्तन में कई अन्तर्निहित दोष बिना किसी विशेष प्रयास के ही हमें दिखलायी पड़ते हैं। अब हम मार्क्सवाद के इन्हीं सामान्य दोषों पर चर्चा करेंगे। इसके लिए हम सबसे पहले मार्क्स की तत्त्वमीमांसा की आलोचना से प्रारम्भ करेंगे और फिर उसके राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विचारों की कमियों पर चर्चा करेंगे।


द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में दोष


मार्क्स के भौतिकवादी दर्शन की सबसे बड़ी कमी यह रही कि उसने संघर्ष को ही विश्व की प्रगति का आधार मान लिया। अन्य पाश्चात्य विचारकों की ही तरह मन-बुद्धि से परे स्वतंत्र सत्ता को नकारने के बाद वह मन-बुद्धि पर स्व के नियंत्रण के उपाय बताने में असफल रहा।


ऐतिहासिक भौतिकवाद और वर्ग संघर्ष


मार्क्स द्वारा इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या महज एक प्रतिक्रिया कही जा सकती है, न कि दर्शन। ऐसा इसलिए, क्योंकि यूरोप इतिहास के प्राचीनतम कालों से लेकर आजतक मानवता की रणभूमि बना हुआ है। रोमन साम्राज्य की क्रूरता, हूणों और फिर मंगोलों के साथ यूरोप का संघर्ष, नवजागरण के पूर्व धर्म के नाम पर पोप की निरंकुशता औ नवजागरण के बाद शासकों की निरंकुशता के कई काले अध्याय यूरोप के इतिहास में समाहित है।


पूरी दुनिया को सभ्य बनाने की कवायद और स्वर्ण के लालच में उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया के तत्कालीन निवासियों को उनकी सभ्यता सहित यूरोप ने समाप्त कर दिया। राजाओं ने अपनी प्रजा से भी क्रूरता की सारी सीमाएँ लांघ दी थी। वैज्ञानिकों को सच कहने के लिए मृत्युदण्ड दिया जा रहा था। धनिक वर्ग गरीबों के खून से अफनी बगिया सींच रहा था। ऐसे परिवेश और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में जन्में मार्क्स का पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध प्रतिक्रिया करना स्वाभाविक था। लेकिन उसने भारत जेसे प्राच्य देशों के इतिहास पर ध्यान नहीं दिया, जहाँ राजशक्ति को धर्म से और अर्थ को दान से लोककल्याण में लगाने की सुन्दर व्यवस्था रही थी।


इसका एक उदाहरण दूँ, तो जिस समय प्रांस में लुई सोलहवें के अत्याचारों से जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी, उस समय भारत में छोटे से राज्य मालवा की महारानी अहिल्याबाई होल्कर राजधर्म का प्रतिमान रख रही थी। प्रजा द्वारा जीते-जी देवी का ओहदा मिलना भी इसी बात का प्रमाण है। पर यूरोप में सिकन्दर से लेकर साम्राज्यवाद के युग तक केवल लालच और महत्वाकांक्षाएँ ही राजाओं या शासकों की रूचि में रही। इस प्रकार अन्य यूरोपीय विद्वानों की तरह ही केवल यूरोप के इतिहास को विश्व का इतिहास मान लेने की एक बड़ी गलती मार्क्स ने की, और इतिहास की ऐसी कठोर व्याख्या पेश की।


मार्क्स के राज्य सम्बन्धी विचार भी दोषपूर्ण है। राज्य को उसने पूंजीवाद का उपकरण माना, यह भी उसकी प्रतिक्रिया ही मानी जाएगी। फिर पूंजीपतियों की सत्ता समाप्त कर और एक वर्गविहीन और राज्यविहीन समाज के निर्माण के लिए उसने राज्यशक्ति का अवलम्बन करने का विचार रख विरोधाभास उत्पन्न किया है। उसके चिन्तन में एक और प्रमुख दोष यह है कि उसने यह मान लिया कि सभी शोषित अच्छे ही होंगे, और अधिनायकवादी सत्ता में आने पर वे दूषित नहीं होंगे। यह बात हास्यास्पद ही है।


उदाहरण के लिए, आधुनिक कम्युनिस्टों ने महिलाओं को शोषित बताकर एख ऐसी नारीवादी मुहिम छेड़ रखी है कि सभी महिलाएँ अच्छी हैं और सभी पुरुष खराब। और मजे की बात तो यह है कि फिर भी सुप्रीम कोर्ट कहता है कि दहेज और बलात्कार के 95 प्रतिशत आरोप झुठे और दुर्भावना से प्रेरित होते हैं। कम्युनिस्ट सरकारों की तानाशाही में मारे गए लोगों की चीखें भी मार्क्सवादी चिन्तन के इस दोष का बखान करतीहैं। और अन्त में, वह इस सत्य को नहीं मान सका कि पैसा बहुत कुछ होता है पर सबकुछ नहीं।


इस प्रकार इस पूरे विवेचन से हम देखते हैं कि मार्क्स का दर्शन वस्तुतः एक प्रतिक्रिया मात्र था। संभवतः उसके विचारों को इतना व्यापक प्रसार केवल इसीलिए हो सका क्योंकि तत्कालीन विश्व का अधिकांश साम्राज्यवाद की जेल से छुटने को आतुर था। ऐसे में Call For Action ने पूरे विश्व में मार्क्स को समादृत किया। लेकिन कम्युनिस्ट तानाशाही के बुरे स्वप्न को जब एक बहुत बड़ी आबादी ने हकीकत में जीया, और अधिकांश देशों ने साम्राज्यवादी देशों से स्वाधीनता की जंग जीत ली, तब जाकर मार्क्स के विचारों में निहित दोष उजागर होने लगे। समय के साथ कम्युनिस्टों में ही कई तरह के विवाद और वैचारिक मतभेद भी प्रकट हुए।


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ऐश्वर्य पुरोहित

शोध प्रमुख

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