भारतीय कम्युनिस्टों को वियतनाम के वामपंथियों से राष्ट्रवाद की सीख लेनी चाहिए

भारत के कम्युनिस्टों ने चीन की सेना द्वारा किए गए आक्रमण का समर्थन यह सोचते हुए किया था कि चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी एक "मुक्तिवाहिनी" है जो भारत में वामपंथी शासन की स्थापना करेगी और भारत के कम्युनिस्टों को सत्ता सौंप देगी।

The Narrative World    09-May-2024   
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मार्च को जब भगवान श्रीरामलला के नवनिर्मित मंदिर में भगवान के नए विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा के लिए विभिन्न पार्टी के प्रमुखों को निमंत्रण भेजा गया, तब कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचुरी ने इसमें शामिल होने से सीधा इंकार कर दिया।


लेकिन ठीक इसके एक दिन पूर्व इसी कम्युनिस्ट नेता सीताराम येचुरी ने लेनिन की प्रतिमा के सामने उसके मृत्यु के 100 वर्ष पूरे होने पर 'लाल सलाम' का अभिवादन किया था। सिर्फ इतना ही नहीं सीताराम येचुरी और बृंदा करात जैसे कम्युनिस्ट नेता तो 4 दिनों के बाद दिल्ली में लेनिन की मौत के 100 वर्ष होने पर हुए एक समारोह में एक पब्लिक मीटिंग में भी पहुंचे।

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कुल मिलाकर देखें तो भारतीय कम्युनिस्टों की यह नस्ल कुछ ऐसी है कि इनके विचार भी विदेशी हैं, इनके नेता भी विदेशी हैं, इनके आदर्श भी विदेशी हैं, और तो और इन्हें समर्थन भी विदेशों से ही लेना होता है।


ये वही कम्युनिस्ट समूह है जो वियतनाम से लेकर चीन तक के गुणगान करता है, लेकिन इन्हीं देशों के कम्युनिस्टों से सीखता नहीं है। यदि भारतीय कम्युनिस्टों को अन्य विचारकों से नहीं सीख लेनी, तो भी ठीक है, लेकिन उन्हें कम से कम वियतनाम के कम्युनिस्टों से सीख लेनी चाहिए, क्योंकि वियतनाम के कम्युनिस्ट ऐसे हैं, जिन्होंने वामपंथ की विदेशी विचारधारा तो अपनाई, लेकिन उन्होंने अपने देश को सर्वोपरि रखा।


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इसका उदाहरण हम देखें तो, अमेरिका-वियतनाम युद्ध में भी दिखाई देता है। करीब दो दशक (1955-1975) तक चले वियतनाम और अमेरिका के युद्ध का अंतिम जयघोष वियतनाम के हिस्से में आया था। 30 अप्रैल 1975 को जब अमेरिका ने युद्ध से पीछे हटने का फैसला लिया तो इसे वियतनाम की महान जीत के रूप में वैश्विक कम्युनिस्ट समुदाय द्वारा पूरे विश्व में चर्चित किया गया।


वियतनाम, लाओस और कंबोडिया की धरती पर यह युद्ध चला था। हालांकि अमेरिका के युद्ध से पीछे हटने को लेकर वियतनाम से अधिक अमेरिका के अंदरूनी राजनीतिक कारण थे, लेकिन इस युद्ध ने वियतनाम को अपनी पहचान दी।


वियतनाम एक वामपंथी (Communist) शासन वाला देश रहा है। इसी वजह से वामपंथियों के वैश्विक समूहों की तरफ से भी वियतनाम को मदद मिली। भारत में भी वामपंथी समूहों ने जमकर वियतनाम का समर्थन किया।


1960 के दशक में पश्चिम बंगाल की गलियों में कम्युनिस्टों द्वारा "आमार नाम, तोमार नाम, वियतनाम वियतनाम" जैसे नारे लगाए जाते थे। यह नारे वामपंथी दलों द्वारा चुनावों में भी भरपूर इस्तेमाल किए गए।


कम्युनिस्ट वियतनाम के 1975 की जीत की खुशी में वर्तमान समय में भी भारतीय कम्युनिस्ट समूहों द्वारा जमकर खुशियां मनाई जाती है। कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो मेम्बर (कार्यकारिणी सदस्य) से लेकर छात्र नेताओं द्वारा वियतनाम युद्ध का गुणगान किया जाता है। "आमार नाम, तोमार नाम, वियतनाम वियतनाम" जैसे स्लोगन सोशल मीडिया में इस्तेमाल किए जाते हैं।


आज जब हम सीताराम येचुरी और डी राजा जैसे कम्युनिस्ट नेताओं को देखते हैं, तो यह प्रश्न एकाएक दिमाग में आता है कि भारत के वामपंथियों ने वियतनाम का भरपूर समर्थन तो किया, उसके लिए नारे भी लगाए और आज दशकों बाद भी खुशियां भी मनाते हैं, लेकिन क्या उन्होंने वियतनाम से कुछ सीखा ? क्या उन्होंने वियतनाम की राष्ट्रीय एकता की लड़ाई से कुछ सबक लिया ? क्या उन्होंने अपने वैचारिक मित्र से राष्ट्रवाद की कुछ सीख ली? लेकिन भारतीय कम्युनिस्टों की वर्तमान हालात देख कर तो ऐसा प्रतीत नहीं होता।


अमेरिका-वियतनाम युद्ध के बाद कम्युनिस्ट चीन द्वारा भी वियतनाम पर कब्जे और साम्राज्यवाद की कुदृष्टि से हमला किया गया था। चीन खुद एक कम्युनिस्ट राष्ट्र है, बावजूद उसने वियतनाम पर हमला किया। लेकिन इसके बाद वियतनाम के नागरिकों और कम्युनिस्ट नेताओं ने भी चीन के खिलाफ आवाज़ बुलंद की।


चीन को ना सिर्फ इस युद्ध में भारी क्षति पहुँची, बल्कि 20 दिन के भीतर ही चीन युद्ध छोड़ कर वापस लौट गया। वहीं वियतनाम के कम्युनिस्ट नेताओं ने भी वैचारिक समानता होने के बावजूद अपने देश की अखंडता और रक्षा को वरीयता दी। वियतनाम के वामपंथी विचारकों ने राष्ट्रवाद को अपनाया।


वहीं दूसरी तरफ 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान हुए घटनाक्रम पर नजर डालें, तो यह स्पष्ट दिखता है कि देश के सारे वामपंथी दलों, विचारकों और नेताओं ने भारत के साथ विश्वासघात कर चीन का साथ दिया था।


जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक रक्तदान शिविरों को लगाने समेत तमाम व्यवस्था और सुरक्षा के स्तर पर देश में योगदान दे रहे थे, तब वामपंथी नेताओं ने चीन के लिए सहयोग मुहिम शुरू की।


भारत के कम्युनिस्टों ने चीन की सेना द्वारा किए गए आक्रमण का समर्थन यह सोचते हुए किया था कि चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी एक 'मुक्तिवाहिनी' है जो भारत में वामपंथी शासन की स्थापना करेगी और भारत के कम्युनिस्टों को सत्ता सौंप देगी।


अब विचार कीजिए कि कैसे भारतीय वामपंथी विचारक, दल और नेता हैं, जिन्होंने चीन का सिर्फ इसीलिए साथ दिया क्योंकि वह इनका वैचारिक आका है। यहीं वियतनाम ने विचार से पहले अपने देश को चुना। वियतनाम का नारा लगाने वालों को कम से कम वियतनाम से ही सीख लेनी चाहिए।


पहले हुई घटना ही नहीं, बल्कि वर्तमान में भी भारत में वामपंथी राजनीतिक दल, बुद्धिजीवी, पत्रकार, साहित्यकार, फिल्म-कलाकार और कार्यकर्ता समूह चीन के सामने दंडवत हैं। लेकिन वियतनाम आज भी चीन को आंख दिखाने से डरता नहीं है।


दक्षिण चीन सागर के मुद्दे पर वियतनाम के कम्युनिस्ट नेताओं, विचारकों, बुद्धिजीवियों और समस्त समूहों की एक राय है कि राष्ट्रवाद की भावना के साथ वियतनाम के फायदे के लिए काम हो।


जबकि इसके उलट भारत में चाहे वह डोकलाम का मुद्दा हो या अक्साई चीन का मुद्दा, भारत के सभी वामपंथी चीन के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं।


कोरोना वायरस के मुद्दे पर भी भारत के वामपंथी दल के अलावा रवीश कुमार, द प्रिंट के शेखर गुप्ता, द वायर मीडिया समूह, क्चिंट सहित तमाम वामपंथी बुद्धिजीवी बकील, पत्रकार, पूर्व जज, स्टैंडअप कॉमेडियन और कार्यकर्ता भी चीन का बचाव करते नज़र आ रहे थे।


ऐसे में विचार कीजिए कि चीन यदि फिर से कुछ अड़ंगा लगाता है तो ये बुद्धिजीवी, जो वियतनाम का नारा लगाते हैं, वो राष्ट्रवाद को गाली कहकर चीन के पक्ष में खड़े हो जाएंगे।


ऐसे में इन कम्युनिस्टों से यही कहना होगा कि भारत के वामपंथियों! आमार नाम, तोमार नाम, वियतनाम वियतनाम कहना अच्छी बात है, आपकी स्वतंत्रता है, लेकिन उनसे राष्ट्रवाद का सीख भी लीजिए। क्योंकि अब आपके भारत-विरोधी विचार को देश की जनता ने दफन करना शुरू कर दिया है।


यही कारण है कि इस लोकसभा चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी केवल केरल में दिखाई दे रही है, वहीं देश कस लगभग सभी हिस्सों में उसकी उपस्थिति नगण्य हो चुकी है।