स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि मुझे नचिकेत के समान 100 युवा दे दो, मैं देश की दशा और दिशा दोनों बदल दूंगा। उन्होंने नचिकेत को इसलिए चुना क्योंकि नचिकेत भारतीय ज्ञान परंपरा का ध्वजवाहक है।
भारत वह भूमि है जो तेजो का संरक्षण और संवर्धन करती है। जहाँ पर नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालय ज्ञान की ज्योति से समूचे विश्व में बुद्धि का प्रकाश फैला देते थे; जहाँ पर धर्म के शासन की परिकल्पना सदियों पहले ही रख दी गई थी; जहाँ के धर्मशास्त्रों ने भी ज्ञान को ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताया है—वह भूमि है भारत। भारत वह भूमि है जिसमें ग्रंथों का, कला का, साहित्य का और विविधता का तेज है।
आमतौर पर ‘युवा’ शब्द को एक आयु वर्ग के संदर्भ में ही प्रयोग में लिया जाता है, लेकिन भारतीय दृष्टि से युवा कोई आयु वर्ग नहीं है।
भारतीय ज्ञान के अनुसार, जिसमें सीखने की वृत्ति हो, वह युवा है। वह किसी भी आयु वर्ग का हो सकता है। जो संशययुक्त है, वह व्यक्ति वृद्ध है।
युवा वह है जिसमें चुनौतियों को स्वीकारने का साहस हो। युवा वह है जिसमें सकारात्मक ऊर्जा का भंडार हो। 60 वर्ष का व्यक्ति भी युवा हो सकता है अगर उसमें सीखने की वृत्ति, सकारात्मक ऊर्जा और चुनौतियों को स्वीकारने का साहस हो। और 25 वर्ष का व्यक्ति भी वृद्ध हो सकता है अगर उसमें यह लक्षण न हो।
भारतीय ज्ञान परंपरा विशेष रूप से कुछ संदेश आज के युवाओं को देती है, जिसमें से पाँच संदेश अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
भारतीय ज्ञान परंपरा का प्रथम संदेश है 'जिज्ञासु बनना'। यम और नचिकेत के मध्य संवाद में, यम ने नचिकेत की परीक्षा लेने हेतु उसके प्रश्न के उत्तर देने की अपेक्षा, उसको अन्य प्रश्न पूछने का आग्रह किया।
लेकिन नचिकेत ने एक ही प्रश्न के उत्तर की जिज्ञासा रखी। इसी जिज्ञासा से प्रसन्न होकर, यम ने नचिकेत को भ्रमज्ञान से साक्षात्कार करवाया।
भारतीय ज्ञान परंपरा का युवाओं के लिए अगला संदेश है 'सुनना और समझना'। श्रीमद्भगवद्गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को धर्मपथ पर चलने का संदेश दिया।
प्रथम अध्याय में उन्होंने पूर्णतः अर्जुन की बात सुनी, उसके पश्चात अर्जुन के समस्त संशयों को दूर किया। भारतीय ज्ञान परंपरा श्रवण शक्ति को अत्यंत महत्वपूर्ण शक्ति मानती है। श्रवण शक्ति को मनुष्य की संपत्ति भी कहा गया है।
भारतीय ज्ञान परंपरा का युवाओं के लिए अगला संदेश है 'खुद को समझना'। दासत्व से परिपूर्ण मानसिकता के लोगों द्वारा रचे गए पाठ्यक्रम से शिक्षा ग्रहण करने के कारण, आजकल कई युवाओं में अनुयायी बनने की प्रवृत्ति देखने को मिलती है।
जबकि भारतीय ज्ञान परंपरा युवाओं को अनुयायी की जगह नेतृत्वकर्ता बनने का संदेश देती है। भारतीय दृष्टि में आत्मचिंतन को अत्यंत महत्वपूर्ण बताया गया है।
समाज के विषयों के चिंतन से पूर्व, युवा को स्वयं का चिंतन करना आवश्यक है। स्वयं का आकलन करते हुए, अपनी ताकत और कमजोरियों को जानना चाहिए। अपनी प्रवृत्ति को जानकर ही युवा खुद को सकारात्मक कार्यों में लगा सकता है।
भारतीय ज्ञान परंपरा का एक और महत्वपूर्ण संदेश है 'समाज कल्याण का संकल्प'। पाश्चात्य दर्शन में व्यक्ति को स्वयं की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों के साथ जीने और उनके लिए संघर्ष करने का संदेश दिया गया है।
लेकिन भारतीय दर्शन इसके विपरीत, व्यक्ति को समाज के अंग के रूप में चित्रित करता है और उसे समाज के प्रति कर्तव्यबद्ध करता है।
भारतीय ज्ञान परंपरा युवाओं को समाज कल्याण के संकल्प के साथ जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है। युवा अपने दैनिक जीवन में जो भी काम करे, जीवन में जो भी लक्ष्य रखे, उसके केंद्र में सदा समाज ही होना चाहिए।
अगर वह धनवान बनने की इच्छा रखे, तो उसे अर्थ के आय या व्यय के प्रति चिंतन नहीं, बल्कि समाज हित के लिए कितना दान कर सके, उस पर चिंतन करना चाहिए।
मनुष्य समाज का ही अंग है और जो भी वह अर्जित करता है, वह समाज से ही अर्जित करता है और समाज के सहयोग से ही। इसलिए उसे समाज के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए और समाज कल्याण की भावना रखनी चाहिए।
एक और अत्यंत महत्वपूर्ण संदेश है 'संकल्प को भगवान मानना'। जिस प्रकार मनुष्य तन, मन, धन से ईश्वर की आराधना करता है, उसी प्रकार उसे जो भी संकल्प लेना हो, उसे ईश्वर का ही रूप समझकर तन्मयता से पूरा करना चाहिए।
यह संदेश प्रभु श्रीराम से मिलता है। जिस प्रकार शक्ति आराधना के समय प्रभु ने 108 पुष्प देवी माँ के चरणों में अर्पित करने का संकल्प लिया था और देवी ने परीक्षा लेने के उद्देश्य से जब एक पुष्प हटा लिया था, तब संकल्प पूर्ति के लिए अपने कमलनयन अर्पित करने के लिए सज्ज हो गए थे। यह सज्जता युवाओं को सीखनी चाहिए।
अंत में, भारतीय ज्ञान परंपरा का युवाओं के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश 'तपस्वी बनना' है। एक बार संकल्प लेने के पश्चात, उसकी पूर्णता के लिए तप करने को तत्पर रहना चाहिए।
तपस्या का अर्थ केवल पूजा-जप-तप से नहीं है, बल्कि अपने संकल्प सिद्धि हेतु हर प्रकार की चुनौतियों का सामना करने की तत्परता ही सही मायनों में तपस्या है।
युवा को समाज कल्याण के लिए लिए गए अपने संकल्पों की पूर्ति के लिए हर प्रकार की तपस्या करने को तत्पर रहना चाहिए।
कहा जाता है कि इक्कीसवीं सदी भारत की सदी होगी क्योंकि भारत के पास विश्व में सर्वाधिक युवा शक्ति है।
लेकिन भारत इस युग का विश्वगुरु तब ही बन पाएगा, जब भारत की युवा शक्ति अपनी पुरातन जड़ों से पुनः जुड़ कर भारतीय ज्ञान परंपरा का विश्व बंधुत्व और विकास का संदेश विश्व के कोने-कोने तक प्रसारित करे।
जब भारत का युवा भारत के इस शाश्वत ज्ञान को आत्मसात करके विश्व कल्याण की भावना से कार्य करेगा, तब भारत और विश्व दोनों का उद्धार होगा।
लेख
आदित्य प्रताप सिंह
विधि विद्यार्थी
लेखक, वक्ता