छत्तीसगढ़ के दक्षिण भाग में बस्तर संभाग क्षेत्र आता है, जिसके अंतर्गत 7 जिले हैं, जो माओवाद से प्रभावित क्षेत्रों में शामिल हैं। बस्तर को लेकर कहा जाता है कि वहां विकास नहीं हुआ इसीलिए माओवादी-नक्सली यहाँ आये, या ये कहा जाता है कि माओवादी जल-जंगल-जमीन बचाने आये हैं, और तो और यह भी दावा किया जाता है कि माओवादी स्थानीय जनजातीय-वनवासी समाज के अधिकारों की रक्षा और उनकी सुरक्षा के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं।
उपरोक्त कहे गए सभी कथन पूरी तरह से गलत और तथ्यहीन हैं। माओवादियों ने कभी भी बस्तर का विकास नहीं होने दिया, उनके कारण ही बस्तर में सड़कें नहीं बन पाई हैं, माओवादियों ने विद्यालयों को तोड़ा है, जिसके चलते स्थानीय ग्रामीणों के बच्चे स्कूल नहीं जा पाए, नक्सलियों ने अस्पतालों को निशाना बनाया है, जहां ग्रामीण इलाज कराते थे, कभी मुखबिर बताकर तो कभी निजी दुश्मनी में माओवादी आतंकियों ने स्थानीय ग्रामीणों की हत्याएँ की और उनका शोषण किया, कुल मिलाकर देखें तो माओवादियों ने बस्तर के ग्रामीणों को कभी भी विकास की ओर बढ़ने ही नहीं दिया, उन्हें हमेशा अविकसित और पिछड़ा ही बनाए रखा, और उन्हीं ग्रामीणों का शोषण किया जिनके अधिकारों की रक्षा की बात करते हैं, यह सबकुछ केवल इसलिए ताकि उनपर अपनी हुकूमत जमा सके। इन्हीं नक्सल पीड़ितों की कहनी लेकर हम आए हैं, ताकि इनकी पीड़ा, इनका दर्द देश भी देख सके।
यह बात है आज से 11 वर्ष पहले की, अर्थात वर्ष 2018 की। दिसम्बर माह में बस्तर की कड़कड़ाती ठंड में नक्सल प्रभावित क्षेत्र नारायणपुर के कोंगेरा गाँव में एक स्थानीय जनजातीय किसान सैनू सलाम की बेटी राधा सलाम घर के समीप ही खेल रही थी। इस दौरान राधा के साथ उसका चचेरा भाई रामू सलाम भी मौजूद था।
खेलते हुए दोनों भाई-बहन ने एक चमकीली चीज़ देखी, जिसे करीब से देखते हुए रामू ने खिलौना समझ उठा लिया। केटलीनुमा चमकदार चीज को देखकर दोनों बच्चे इसे कौतूहलवश देखने लगे।
इन मासूम जनजातीय बच्चों को यह नहीं पता था कि जिस चीज को वो खिलौना समझ रहे हैं, दरअसल वह कम्युनिस्ट आतंकियों का बिछाया हुआ वो बारूदी जाल है, जो वर्षों से बस्तरवासियों को निगल रहा है। वह चमकदार चीज कूच और नहीं, बल्कि माओवादियों द्वारा प्लांट किया गया विस्फोटक था, आईईडी बम था।
रामू के हाथों से छूटते ही वह विस्फोटक फट पड़ा, जिससे दोनों बच्चे घायल हो गए। माओवादियों के इस आतंक ने राधा की एक आँख को हमेशा के लिए खराब कर दिया, साथ ही उसके चेहरे में छर्रे के निशान छोड़ दिए। रामू के हाथ एवं पैर में गम्भीर चोट आई, जिससे वो आज तक नहीं उबर पाया है। जब यह घटना घटित हुई थी, तब राधा की आयु केवल तीन वर्ष और रामू की आयु मात्र पाँच वर्ष थी।
आज एक दशक से भी अधिक का समय बीतने के बाद भी इस घटना का ज़िक्र राधा और रामू को झकझोर देता है। द नैरेटिव की टीम ने जब राधा से बात की थी, तब वो अपनी कहानी बताते-बताते भावुक हो गई थी। वह बार-बार यह प्रश्न कर रही थी कि "मेरी क्या गलती थी ?"
दिल्ली में जब हमने राधा से बात की, और पूछा कि वह बड़ी होकर क्या बनना चाहती है ? तो उसका उत्तर था - "मैं पुलिस अधिकारी बनना चाहती हूँ।" और पुलिस अधिकारी बनने के पीछे का कारण ऐसा है जो बस्तर के लोगों की वास्तविक पीड़ा से अवगत कराता है।
राधा का कहना था कि वह पुलिस अधिकारी इसलिए बनना चाहती है, ताकि बस्तर में नक्सलवाद को खत्म किया जा सके। वह कहती है कि जो घटना उसके साथ हुई, वो फिर किसी बच्चे के साथ नहीं होनी चाहिए।
राधा की स्थिति को शहरों में बैठकर सोचना और समझना आसान नहीं है। कल्पना कीजिए कि आपके घर का तीन वर्ष का बच्चा घर के समीप गार्डन में खेलने निकले तो आप क्या सोचेंगे ? क्या वो गार्डन से कोई 'बम' को खिलौना समझ उसे घर लेकर आ जाएगा ? ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि हम जानते हैं कि हमारे घर के पास गार्डन में किसी ने बम प्लांट कर के नहीं रखा है। लेकिन अब सोचिए कि आपके घर की एक छोटी बच्ची घर से बाहर खेलने निकली है, और उसके पैर किसी बम में पड़ गए तो ? हम यह भी नहीं सोच सकते हैं, क्योंकि इसका उत्तर फिर से वही है कि हमारे घर के पास किसी ने बम प्लांट कर नहीं रखा है। लेकिन बस्तर की कहानी ऐसी नहीं है।
बस्तर के गांवों में माओवादियों ने स्थानीय ग्रामीणों के घर के पास ही बारूद बिछाकर रखा है, वो भी ऐसे स्थानों पर जहां गांव के बच्चे खेलने जाते हैं, घूमने जाते हैं, महुआ बिनने जाते हैं, महिलाएं रोजी-रोटी के लिए जाती हैं, बुजुर्ग टहलने जाते हैं, पुरूष खेती करने जाते हैं, उन सभी स्थानों पर माओवादियों ने बम बिछाकर रखा है।
शहरों में बैठकर यह सोचते ही मन में सिहरन सी हो जाती है कि कैसे घर से निकलते ही कब किसी आईईडी में पैर पड़ जाए, और पूरा का पूरा शरीर ही ब्लास्ट में उड़ जाए, तो कल्पना कीजिए कि राधा जैसे बस्तर के हज़ारों गांव वाले किस जिंदगी को जी रहे हैं।
इसीलिए बस्तरवासी न्याय की गुहार लगाने दिल्ली पहुंचे थे, इसीलिए नक्सल आतंक से पीड़ित बस्तरवासी अपनी आवाज़ उठा रहे हैं, बस्तरवासी चाहते हैं कि देश उनके दुःख, दर्द और पीड़ा को भी समझे, उसका भी समाधान निकाले और बस्तरवासियों को भी बारूद के ढेर की नहीं बल्कि आजादी की सांस लेने दें।
राधा सलाम उन्हीं नक्सल पीड़ित बस्तरवासियों में से है, जिसने दिल्ली जाकर अपनी व्यथा सुनाई। उसने दिल्ली की मीडिया से बात की, और अपनी पीड़ा बताई।