भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर और तालिबान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी के बीच 10 अक्टूबर को हुई मुलाकात ने एक बार फिर देश के भीतर और बाहर राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी है। इस मुलाकात में काबुल में भारतीय दूतावास को फिर से खोलने और अफगानिस्तान के साथ आर्थिक-सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करने की बात कही गई।
हालांकि, इस कदम का भारतीय कम्युनिस्ट और लिबरल समूहों द्वारा विरोध किया जा रहा है, जो इसे "तालिबान के साथ समझौता" और "मानवाधिकारों की अनदेखी" के रूप में पेश कर रहे हैं। लेकिन क्या यह विरोध तथ्यों और रणनीतिक हितों की समझ से परे है? क्या यह विरोध पाकिस्तान-चीन के क्षेत्रीय नेटवर्क को काउंटर करने के भारत के प्रयासों को कमजोर करने का प्रयास नहीं है? इस मुद्दे पर गौर करने से पहले, आइए समझें कि यह मुलाकात क्यों हुई और इसका क्षेत्रीय संदर्भ क्या है।
10 अक्टूबर को नई दिल्ली में हुई इस बैठक में दोनों पक्षों ने अफगानिस्तान में भारतीय परियोजनाओं की सुरक्षा और वहां के 3 अरब डॉलर के व्यापारिक हितों को सुरक्षित करने पर चर्चा की। यह कदम भारत के लिए केवल आर्थिक हितों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पाकिस्तान और चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने की एक रणनीतिक पहल है।
अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता आने के बाद, पाकिस्तान और चीन ने वहां अपनी पैठ मजबूत करने की कोशिश की है। पाकिस्तान ने तालिबान के साथ अपने ऐतिहासिक संबंधों का फायदा उठाकर अफगानिस्तान को अपने प्रभाव क्षेत्र में लाने की कोशिश की, जबकि चीन ने आर्थिक निवेश और बेल्ट एंड रोड पहल (BRI) के तहत अफगानिस्तान को अपने नेटवर्क में जोड़ने का प्रयास किया। ऐसे में भारत का तालिबान के साथ संबंध स्थापित करना एक आवश्यक कदम है, जो क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखने में मदद करेगा।
कम्युनिस्ट और लिबरल समूहों ने तालिबान की मानवाधिकारों की अवहेलना और महिलाओं के अधिकारों पर लगाए गए प्रतिबंधों को लेकर भारत की नीति पर सवाल उठाए हैं। लेकिन क्या यह विरोध भारतीय हितों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है, या यह पश्चिमी मीडिया और कथित "लिबरल इकोसिस्टम" की विचारधारा का प्रभाव है? यह इकोसिस्टम, जो अक्सर भारत की विदेश नीति को पश्चिमी मानकों के आधार पर आंकता है, इस बार भी अपनी पुरानी रणनीति में टिका हुआ है।
इन समूहों ने तालिबान के साथ बातचीत को "शर्मनाक" और "अंतरराष्ट्रीय मानकों के खिलाफ" बताया, लेकिन वे यह भूल गए कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हितों का टकराव और समझौते, दोनों ही हिस्सा हैं।
इस संदर्भ में, अमेरिका का उदाहरण देखते हैं। सितंबर 2025 में, अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) के दौरान सीरियाई राष्ट्रपति अहमद अल-शारा से मुलाकात की, जो पहले अल-कायदा से जुड़े थे और आतंकवादी संगठन अल-नुसरा फ्रंट के नेता रहे। अल-शारा की यात्रा न्यूयॉर्क में हुई, जहां उन्हें आर्थिक पुनर्निर्माण और स्थिरता के मुद्दों पर चर्चा के लिए आमंत्रित किया गया।
यह मुलाकात ऐसे समय हुई, जब अमेरिका ने सीरिया के लिए 5 अरब डॉलर से अधिक की आर्थिक सहायता की बात कही। क्या यह विरोधाभास नहीं है कि जब अमेरिका एक पूर्व आतंकवादी नेता को आमंत्रित कर सकता है, तो भारत द्वारा अफगानिस्तान के साथ संबंध स्थापित करने पर क्यों सवाल उठाए जा रहे हैं?
इस विरोध का एक और पहलू यह है कि यह भारतीय हितों को कमजोर करता है। पाकिस्तान और चीन के बीच बढ़ते संबंधों को देखते हुए, अफगानिस्तान भारत के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ोसी है। पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में तालिबान को समर्थन देकर भारत विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा दिया है, जबकि चीन ने अफगानिस्तान में अपने आर्थिक और सैन्य प्रभाव को मजबूत करने की कोशिश की है।
ऐसे में भारत का तालिबान के साथ संबंध स्थापित करना न केवल अफगानिस्तान में अपनी उपस्थिति बनाए रखने का तरीका है, बल्कि यह पाकिस्तान-चीन नेटवर्क को काउंटर करने की एक रणनीति भी है। यदि भारत अफगानिस्तान से अलग-थलग हो जाता है, तो यह केवल पाकिस्तान और चीन के हित में होगा, जो क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को बिगाड़ सकता है।
इसके अलावा, तालिबान के साथ बातचीत से भारत को अफगानिस्तान में अपने नागरिकों और परियोजनाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी। अफगानिस्तान में भारतीय दूतावास को फिर से खोलने का निर्णय इसी दिशा में एक कदम है। यह कदम न केवल आर्थिक हितों को सुरक्षित करेगा, बल्कि यह अफगानिस्तान में मानवीय सहायता और विकास परियोजनाओं को जारी रखने का भी रास्ता खोलेगा।
लिबरल और कम्युनिस्ट समूहों का विरोध, जो अक्सर पश्चिमी मीडिया की रिपोर्टों पर आधारित होता है, इस रणनीतिक आयाम को ना सिर्फ़ नजरअंदाज कर रहा है बल्कि भारत की विदेश नीति को भी कमजोर कर रहा है।
लेकिन क्या यह समय नहीं है कि हम अपनी रणनीतिक प्राथमिकताओं को समझें और पाकिस्तान-चीन नेटवर्क को काउंटर करने के लिए मजबूत कदम उठाएं? भारत-तालिबान संबंधों का विरोध केवल अफगानिस्तान में भारतीय हितों को कमजोर करेगा, और यह पाकिस्तान और चीन के हित में होगा।
इसलिए, यह सवाल उठता है कि क्या भारतीय कम्युनिस्ट और लिबरल समूह वास्तव में भारतीय हितों की रक्षा कर रहे हैं, या वे केवल पश्चिमी मीडिया की विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं? समय आ गया है कि हम तथ्यों और रणनीतिक हितों के आधार पर निर्णय लें, न कि भावनाओं और पूर्वाग्रहों के आधार पर। भारत-तालिबान संबंधों का विरोध केवल एक गलतफहमी है, जो भारतीय हितों को नुकसान पहुंचा सकता है।