नक्सलवाद: स्वस्फूर्त विद्रोह या रणनीतिक आतंकवाद

13 Oct 2025 19:30:45
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नक्सलवाद, यह शब्द सुनते ही हमारे मन में क्या छवि बनती है? आमतौर पर यह छवि बस्तर के जंगलों में रहने वाले जनजातीय समाज और पुलिस या प्रशासन के बीच संघर्ष की होती है। यह धारणा बनाई जाती है कि सरकार और कंपनियां जनजातीयों के अधिकार छीन रही हैं, महिलाओं का शोषण हो रहा है और प्रशासन, उद्योगपतियों के साथ मिलकर ग्रामीणों को विस्थापित करना चाहता है। इसी के विरोध में, जनजातीय समाज ने भारतीय राज्य के खिलाफ विद्रोह किया है और नक्सली इस विद्रोह का नेतृत्व कर रहे हैं। यही कथा अक्सर मीडिया, फिल्मों और वामपंथी लेखन में बार-बार दिखाई जाती है।
 
लेकिन क्या यह पूरी सच्चाई है? अगर यह केवल अधिकारों की लड़ाई है, तो फिर गांवों को विकास से दूर रखने, स्कूलों और स्वास्थ्य केंद्रों को जलाने, सड़कों और पुलों को उड़ाने, और "पुलिस मुखबिर" के शक में निर्दोष ग्रामीणों की हत्या करने जैसी घटनाएं क्यों होती हैं? माओवादी जिनके लिए जमीन और जंगल की रक्षा की बात करते हैं, वही उनके ही शिकार क्यों बनते हैं? हाल ही में 2025 में जनजातीय समाज के मड़कम भीमा और रावा सोना की हत्या केवल इस संदेह में की गई कि वे "पुलिस मुखबिर" हैं। अगर नक्सली वास्तव में जनजातीय समाज के हितैषी हैं, तो वे अपने ही लोगों की हत्या क्यों करते हैं?
 
क्या नक्सलवाद सच में एक स्वस्फूर्त जनविद्रोह है? अगर ऐसा होता, तो बस्तर और अन्य जनजातीय क्षेत्र नक्सलियों के साथ खड़े होते, न कि उनका विरोध करते। लेकिन सच्चाई यह है कि बस्तर के लोग नक्सलवाद का विरोध करते हैं। इसका उदाहरण है ‘सलवा जुड़ुम’ आंदोलन, जो स्थानीय जनता का स्वस्फूर्त प्रतिरोध था। अगर नक्सलवाद केवल ग्रामीणों का विद्रोह होता, तो वे हथियार कहां से लाते? और इतने वर्षों से यह हिंसा क्यों जारी रहती?
 
भारत के नक्सली खुद को माओवादी कहते हैं। माओवाद एक विदेशी विचारधारा है, जो मार्क्स, लेनिन और माओ के सिद्धांतों पर आधारित है। इसका अर्थ है "माओ के विचार"। यह विचारधारा हिंसक है, जो भय और आतंक के माध्यम से अपनी सत्ता कायम करना चाहती है। चीन के तानाशाह माओ त्से तुंग ने इसी विचारधारा के नाम पर करोड़ों लोगों की हत्या कर दी थी। "ग्रेट लीप फॉरवर्ड" के नाम पर माओ की नीतियों से 4.5 से 5.5 करोड़ लोग मारे गए। यह इतिहास का सबसे बड़ा मानव-निर्मित अकाल था। "संस्कृतिक क्रांति" के दौरान भी लाखों निर्दोष लोग मारे गए या आत्महत्या करने को मजबूर हुए।
 
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माओवाद दरअसल माओ द्वारा सत्ता हथियाने की रणनीति थी। चीन में माओ ने गुरिल्ला युद्ध के जरिए भय पैदा कर लोगों को अधीन किया और सत्ता हासिल की। यही रणनीति भारत में भी माओवादी अपनाते हैं। "भारतीय माओवादी" का अर्थ ही है – वे लोग जो भारत में माओ की युद्ध रणनीति अपनाकर सशस्त्र संघर्ष के जरिए भारतीय राज्य को गिराने की कोशिश कर रहे हैं। माओ ने चीन में जिन तरीकों का प्रयोग किया, भारत के नक्सली वही पैंतरे दोहरा रहे हैं।
उनके दस्तावेज़ "Strategy & Tactics of the Indian Revolution" में साफ लिखा है – "The path followed by the Chinese revolution is also applicable in semi-colonial, semi-feudal India due to basic similarities in the conditions between India and pre-revolutionary China."
 
अर्थात, "जिस मार्ग से चीन में क्रांति हुई, वही मार्ग भारत में भी लागू होता है क्योंकि दोनों देशों की परिस्थितियां समान हैं।"
दूसरे स्थान पर माओवादी लिखते हैं – "In a country like ours, the revolution will go on from the beginning mainly through the form of armed struggle. Throughout the course of the new democratic revolution armed struggle or war will be the principal form of struggle and army will be the principal form of organisation."
 
अर्थात, "हमारे देश में क्रांति की शुरुआत से ही सशस्त्र संघर्ष मुख्य रूप में चलेगा। पूरे आंदोलन में युद्ध ही संघर्ष का प्रमुख रूप होगा और सेना संगठन का प्रमुख रूप होगी।"
 
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भारत में नक्सलवाद की शुरुआत 1967 की नक्सलबाड़ी घटना से मानी जाती है। वहां माओवादियों ने किसानों के अधिकारों के नाम पर कई जमींदारों की हत्या की थी और ग्रामीणों को राज्य के खिलाफ भड़काया था। समय के साथ यह आंदोलन बंगाल से निकलकर झारखंड, बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश तक फैल गया। 1980 के दशक में माओवादी "पीपुल्स वॉर ग्रुप" (PWG) ने दंडकारण्य क्षेत्र में अपनी पकड़ बनानी शुरू की। इसका उद्देश्य था – एक ऐसा "बेस एरिया" तैयार करना, जहां से लंबे सशस्त्र संघर्ष को संचालित किया जा सके।
 
माओवादियों ने ग्रामीणों को उकसाया, भय फैलाया और उन्हें अपने युद्ध में उपयोग करने के लिए मजबूर किया। वे पुलिस पर हमले करते, सरकारी संपत्तियों को उड़ाते और विरोध करने वालों को "वर्ग शत्रु" घोषित कर मार डालते। इन कृत्यों से उन्होंने ग्रामीणों के मन में आतंक बिठा दिया।
 
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लेकिन जब उन्होंने जनजातीय समाज की परंपराओं और आस्थाओं में हस्तक्षेप शुरू किया, तो लोगों का सब्र टूट गया। बस्तर ने इसका कड़ा प्रतिकार किया और "सलवा जुड़ुम" आंदोलन की शुरुआत हुई। यह आंदोलन शांति के लिए एक अहिंसक जनआंदोलन था, जिसने एक समय माओवाद को लगभग समाप्त कर दिया था। लेकिन कानूनी लड़ाई और माओवादी समर्थकों के दबाव में इसे रोक दिया गया। इसके बाद माओवादियों ने बस्तर में फिर से हिंसा फैलाना शुरू किया। सलवा जुड़ुम से जुड़े लोगों की हत्याएं बढ़ीं, सुरक्षा बलों पर हमले तेज हुए और ग्रामीणों पर अत्याचार बढ़ गए।
भारत सरकार ने माओवादी संगठन CPI (Maoist) को आतंकवादी घोषित किया। सुरक्षा बलों ने उनके खिलाफ व्यापक अभियान शुरू किया। सरकार ने शांति वार्ता की पेशकश भी की, लेकिन माओ की विचारधारा ही हिंसा पर आधारित थी। माओ ने अपनी पुस्तक "Quotations from Chairman Mao Tse-Tung" में लिखा था – "Every Communist must grasp the truth: Political power grows out of the barrel of a gun."
 
अर्थात, "हर कम्युनिस्ट को यह सत्य समझना चाहिए कि राजनीतिक शक्ति बंदूक की नली से निकलती है।"
 
शांति वार्ता की असफलता के बाद भारत सरकार ने माओवाद के खिलाफ सख्त रुख अपनाया। सुरक्षा बलों के दबाव और सरकार की दृढ़ नीति के कारण आज नक्सली तेजी से आत्मसमर्पण कर रहे हैं। सैकड़ों नक्सली अब मुख्यधारा में लौट रहे हैं और अपने पत्रों में स्वीकार कर रहे हैं कि उनका नेतृत्व विफल रहा है और उनकी विचारधारा बेमानी साबित हो चुकी है।
 
यह परिवर्तन सरकार की कठोर नीति और सुरक्षा बलों के समर्पण का परिणाम है। कभी देश के लगभग 200 जिलों में फैला यह आतंक अब सिमट गया है। सवाल अब यह है कि नक्सलवाद इतना फैला कैसे और माओ की रणनीति ने भारत में उसे इतनी ताकत कैसे दी?
 
इन प्रश्नों के उत्तर माओ की युद्धनीति में छिपे हैं, जिनकी विस्तृत चर्चा इस लेख के अगले भाग में की जाएगी।
 
लेख
 
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आदर्श गुप्ता
युवा शोधार्थी
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