16 अक्टूबर 1964, चीन के शिनजियांग प्रांत के लोप नूर रेगिस्तान में वह दिन था जब मानव इतिहास में एक और डरावना अध्याय लिखा गया। माओ त्से तुंग के आदेश पर चीन ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया, जिसे नाम दिया गया
‘प्रोजेक्ट 596’। यह वही माओ था, जिसने कुछ साल पहले “महान छलांग” (Great Leap Forward) के नाम पर 4 से 5 करोड़ चीनी नागरिकों की जान ली थी। अब उसी ने दुनिया के सामने अपनी ताकत दिखाने के लिए एक ऐसा प्रयोग किया, जिससे आने वाले तीन दशकों में करीब 1.94 लाख लोग मारे गए और लाखों बीमारियों से मरते रहे।
यह परमाणु परीक्षण चीन के गर्व का नहीं, बल्कि माओ के अहंकार और पागलपन का प्रतीक था। उसका मकसद देश की रक्षा नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिस्ट शक्ति का प्रदर्शन करना था। उस समय चीन में करोड़ों लोग भूख और गरीबी से जूझ रहे थे, लेकिन माओ ने अपनी सत्ता और डर बनाए रखने के लिए जनता की जान की कीमत पर यह ‘विज्ञान का प्रदर्शन’ किया।
चीन ने 1950 के दशक में सोवियत संघ की मदद से परमाणु कार्यक्रम शुरू किया था। पर जब 1959 में माओ और सोवियत नेता ख्रुश्चेव के बीच मतभेद हुआ, तो माओ ने अकेले आगे बढ़ने का फैसला किया। उसने वैज्ञानिकों को आदेश दिया कि चाहे जो हो जाए, चीन को जल्द से जल्द परमाणु शक्ति बनना है।
तीन साल की मेहनत के बाद 16 अक्टूबर 1964 को स्थानीय समयानुसार सुबह 7 बजकर 10 मिनट पर चीन ने पहला परमाणु बम विस्फोट किया। बम की शक्ति 22 किलो टन थी, यानी हिरोशिमा पर गिराए गए अमेरिकी बम के बराबर।
माओ ने इसे “जनता की जीत” बताया। लेकिन असली सच्चाई यह थी कि इस परीक्षण की कीमत आम चीनी नागरिकों ने अपनी जान से चुकाई।
शिनजियांग का लोप नूर इलाका चीन के नाभिकीय परीक्षणों का केंद्र बना। यहां 1964 से 1996 के बीच 45 परमाणु परीक्षण किए गए। इन विस्फोटों से हवा, पानी और मिट्टी इतनी ज्यादा रेडिएशन से भर गई कि पूरे इलाके के लोग धीरे-धीरे मरने लगे।
अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों के अनुसार, 1964 से 1996 के बीच लगभग 1.94 लाख लोग रेडिएशन से मारे गए, जबकि 12 लाख से अधिक लोग कैंसर, जन्मजात विकारों और त्वचा रोगों से पीड़ित हुए। चीनी सरकार ने कभी इन मौतों को स्वीकार नहीं किया, न ही पीड़ितों के परिवारों को कोई मुआवजा दिया।
स्थानीय लोगों के अनुसार, कई गांव पूरी तरह खाली हो गए। पशु मर गए, कुएं जहरीले हो गए और महिलाएं गर्भपात का शिकार हुईं। लेकिन बीजिंग का कम्युनिस्ट शासन इसे “राष्ट्रीय गौरव” बताता रहा।
माओ त्से तुंग का मानना था कि यदि तीसरा विश्व युद्ध हुआ तो “आधा मानव खत्म हो जाए तो भी क्रांति बचेगी।” उसने अपने लोगों की जिंदगी को सिर्फ एक संख्या की तरह देखा। वह मानता था कि डर और हिंसा से ही शासन टिकता है। परमाणु परीक्षण भी उसी डर की राजनीति का हिस्सा था।
‘प्रोजेक्ट 596’ केवल एक विस्फोट नहीं था, यह माओ की सोच का विस्फोट था! जिसमें विज्ञान, मानवता और नैतिकता सब राख हो गई। चीन के लाखों लोगों को उसने प्रयोगशाला के चूहों की तरह इस्तेमाल किया।
आज भी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) इस पूरे इतिहास को छिपाती है। शिनजियांग के लोगों पर अत्याचार जारी हैं। परीक्षणों से प्रभावित क्षेत्र में अब भी कैंसर का अनुपात चीन के बाकी हिस्सों से तीन गुना ज्यादा है। सरकार ने सभी आंकड़े गुप्त रखे हैं और किसी भी स्वतंत्र जांच को अनुमति नहीं दी जाती।
यह वही चीन है जो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर खुद को “शांति का रक्षक” बताता है, लेकिन अपने ही नागरिकों को दशकों तक परमाणु मौत देता रहा।
‘प्रोजेक्ट 596’ ने यह साबित किया कि माओ त्से तुंग और उसकी पार्टी के लिए सत्ता ही सब कुछ थी। उनके लिए मानव जीवन का कोई मूल्य नहीं था। जिस प्रयोग ने चीन को परमाणु शक्ति बनाया, उसने साथ ही चीन की आत्मा को भी जला डाला।
माओ की विरासत सिर्फ तानाशाही, झूठ और खून से सनी है। चीन आज जिस तकनीकी ताकत का दावा करता है, उसकी नींव उन्हीं निर्दोषों की राख पर टिकी है, जो लोप नूर की रेडिएशन में धीरे-धीरे मर गए।
इतिहास माओ और उसकी कम्युनिस्ट पार्टी को “विकासकर्ता” नहीं, बल्कि मानवता के विनाशक के रूप में याद रखेगा।
लेख
शोमेन चंद्र