झारखंड में नक्सली ब्लास्ट, 9 साल की बच्ची की मौत

30 Oct 2025 18:22:32
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झारखंड के पश्चिम सिंहभूम जिले में नक्सलियों की खूनी साजिश ने एक और मासूम की जान ले ली। सारंडा के घने जंगल में नक्सलियों द्वारा लगाए गए आईईडी ब्लास्ट में 9 साल की बच्ची शिरिया हेरेन्ज की मौत हो गई। यह दर्दनाक घटना मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025 को जारेकेला थाना क्षेत्र के दिघा गांव में हुई।
 
शिरिया दिघा स्कूल में तीसरी कक्षा में पढ़ती थी। वह रोज की तरह अपने गांव के कुछ लोगों के साथ जंगल में पत्ते और लकड़ियां इकट्ठा करने गई थी। लेकिन उस दिन जंगल ने उसकी मासूम हंसी को हमेशा के लिए खामोश कर दिया।
 
चलते-चलते अचानक जोरदार धमाका हुआ। जंगल की शांति कुछ ही सेकंड में चीखों, धूल और धुएं में बदल गई। यह धमाका नक्सलियों द्वारा लगाया गया आईईडी था, जिसने मासूम शिरिया की जिंदगी एक पल में खत्म कर दी।
 
गांववाले डर से झाड़ियों में छिप गए। जब धमाके की गूंज थमी, तो सभी लोग शिरिया की तलाश में दौड़े। थोड़ी देर बाद उन्होंने जंगल की मिट्टी में लहूलुहान बच्ची का शव देखा।
 
घटना की जानकारी मिलते ही पुलिस और सुरक्षा बल मौके पर पहुंचे। जवानों ने इलाके को घेर लिया और पूरे सारंडा जंगल में सर्च ऑपरेशन शुरू कर दिया। यह वही इलाका है जहां नक्सली अक्सर सुरक्षाबलों पर हमला करते हैं। पुलिस ने बताया कि सुरक्षाबलों का लक्ष्य उस नक्सली गिरोह को पकड़ना है जिसने इस विस्फोट को अंजाम दिया और एक निर्दोष बच्ची की जान ली।
 
सुरक्षा बलों ने जंगल के हर हिस्से में तलाशी अभियान शुरू किया है ताकि अपराधियों को जल्द गिरफ्तार किया जा सके और गांव में शांति लौट सके।
 
 
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नक्सलियों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि उनका तथाकथित आंदोलन अब सिर्फ निर्दोषों की जान ले रहा है। जो खुद को गरीबों का हमदर्द कहते हैं, वही अब उन्हीं गरीबों के बच्चों को मौत के हवाले कर रहे हैं।
 
विचारधारा के नाम पर जंगलों में बिछाए जा रहे बम किसी व्यवस्था को नहीं हिला रहे, न ही किसी सत्ता को डरा रहे हैं। ये सिर्फ मासूम बच्चों के सपनों को रौंद रहे हैं और मां-बाप की गोदें उजाड़ रहे हैं।
 
यह सिर्फ एक सुरक्षा चुनौती नहीं, बल्कि इंसानियत पर हमला है। यह बताता है कि अब यह लड़ाई किसी विचार या न्याय की नहीं रही, बल्कि यह हिंसा की भूख और सत्ता की लालसा में बदल चुकी है।
घटना के बाद दिघा गांव में सन्नाटा छा गया है। घरों में मातम पसरा है। शिरिया की मां की आंखें सवाल कर रही हैं – “मेरी बच्ची ने क्या बिगाड़ा था?” पिता और परिजन सदमे में हैं, जबकि ग्रामीणों की आवाज में अब डर साफ झलकता है।
 
एक बुजुर्ग ग्रामीण ने कहा, “वो तो बस लकड़ी लेने गई थी, उसे क्या पता था कि जंगल में मौत उसका इंतजार कर रही है।” ग्रामीणों ने कहा कि रोजी-रोटी की मजबूरी उन्हें रोज जंगल ले जाती है, लेकिन अब हर कदम डर से भरा है।
 
यह हादसा फिर याद दिलाता है कि नक्सली हिंसा का सबसे बड़ा बोझ उन पर गिरता है, जो इसके जिम्मेदार नहीं होते। जो गरीब, मेहनतकश और निर्दोष होते हैं, वही इसकी कीमत अपने खून से चुकाते हैं।
 
अब वक्त आ गया है कि सरकार ऐसे इलाकों में सुरक्षा, जागरूकता और मानवीय संवेदनशीलता को प्राथमिकता दे। ताकि फिर कभी किसी शिरिया को नक्सली हिंसा की कीमत अपनी जिंदगी से न चुकानी पड़े।
 
रिपोर्ट
 
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मोक्षी जैन
उपसंपादक, द नैरेटिव
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