छत्तीसगढ़ का बस्तर क्षेत्र एक बार फिर रक्तपात से दहल उठा है। बीजापुर और सुकमा जिलों में एक ही रात में दो निर्दोष ग्रामीणों की हत्या ने यह साबित कर दिया कि माओवादी हिंसा अब भी इस क्षेत्र की सबसे बड़ी त्रासदी बनी हुई है।
बीजापुर जिले के पुजारीकांकेर गांव में मड़कम भीमा को पुलिस का मुखबिर बताकर धारदार हथियार से मौत के घाट उतार दिया गया, वहीं सुकमा के साल्टोंग गांव में 55 वर्षीय रावा सोना को घर से बुलाकर पहले लाठियों से पीटा गया और फिर गला दबाकर मार डाला गया। दोनों ही घटनाओं में जो समानता दिखती है, वह है ग्रामीण समाज के भीतर दहशत का वातावरण बनाए रखने का।
नक्सलियों की यह रणनीति नई नहीं है। दशकों से वे स्थानीय जनजातीय समुदायों को आतंकित कर उन्हें अपनी विचारधारा का बंधक बनाने की कोशिश करते आए हैं। लेकिन सवाल यह है कि आखिर किस विचारधारा के नाम पर वे लगातार निर्दोषों का खून बहा रहे हैं? क्या यह वास्तव में शोषितों और वंचितों की मुक्ति का आंदोलन है, जैसा वे खुद को प्रचारित करते हैं, या फिर यह महज़ एक खूनी खेल है जिसमें हिंसा और भय ही उनकी असली पूंजी है?
माओवादी मूल रूप से कम्युनिस्ट विचारधारा के वाहक हैं। मार्क्स, लेनिन और माओ की किताबों से निकली हुई यह सोच कथित रूप से आर्थिक असमानता और वर्ग-संघर्ष की पृष्ठभूमि से उपजी थी। लेकिन विश्व के अन्य हिस्सों की तरह ही भारतीय धरातल पर भी इसका वास्तविक विकृत रूप सामने आ चुका है। अंतर यही है कि यहाँ वर्ग-संघर्ष की जगह पर जनजातीय समाज को मोहरा बना दिया गया। शोषण और असमानता के नाम पर ग्रामीणों को बरगलाने की कोशिश की गई, लेकिन वास्तविकता यह है कि नक्सली खुद उन्हीं जनजातियों के सबसे बड़े शोषक बन बैठे।
ग्रामीणों को विकास से दूर रखने, स्कूलों और स्वास्थ्य केन्द्रों को जलाने, सड़कों और पुलों को उड़ाने और सबसे बढ़कर पुलिस मुखबिर होने के शक में निर्दोष ग्रामीणों की हत्या करना, यही उनका असली चेहरा है। जो लोग अपनी ज़मीन और जंगल की रक्षा के लिए आवाज़ उठाते हैं, वही लोग जब माओवादी हिंसा के शिकार बनते हैं, तो यह साफ हो जाता है कि यह विचारधारा अब जनता की नहीं, बल्कि महज़ बंदूकधारियों की सत्ता बनाए रखने का औज़ार रह गई है।
पिछले कुछ महीनों में सुरक्षा बलों और प्रशासन की लगातार कार्रवाईयों ने माओवादी संगठन को भारी क्षति पहुँचाई है। बड़े नेता मारे गए, कई आत्मसमर्पण कर चुके हैं, और नए युवाओं को संगठन में भर्ती करना पहले जितना आसान नहीं रह गया है। यही कारण है कि माओवादी अब बौखलाए हुए हैं। उनकी यह बौखलाहट ग्रामीणों पर होने वाले हमलों में झलकती है।
जब माओवादियों को लगता है कि उनकी पकड़ कमजोर हो रही है, तब वह डर पैदा करने के लिए ऐसे निर्मम हत्याकांड करते हैं। बीजापुर और सुकमा की ताज़ा वारदातें इसी मनोवृत्ति का हिस्सा हैं। माओवादी जानते हैं कि उनकी समाप्ति का समय करीब है, इसलिए वे अंतिम समय तक अपना भय बनाए रखना चाहते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि इस प्रक्रिया में वे उसी समाज को छलनी कर रहे हैं, जिसके नाम पर उन्होंने यह हिंसक आंदोलन खड़ा किया था।
नक्सलवाद का सबसे काला पक्ष यह है कि यह निर्दोष जनजातियों की लाशों पर टिका है। माओवादी यह दावा करते हैं कि वे जनजातीय जनता के लिए लड़ रहे हैं, लेकिन वास्तव में जनजातीय जनता ही उनकी सबसे बड़ी शिकार है। पुलिस मुखबिरी का आरोप लगाकर किसी ग्रामीण को मार देना कितना आसान है, इसका उदाहरण बार-बार सामने आता रहा है।
कोई न्यायिक प्रक्रिया नहीं, कोई सबूत नहीं, केवल बंदूक के दम पर फैसला। यह कैसा न्याय है? यह कैसा आंदोलन है? बीजापुर के मड़कम भीमा और सुकमा के रावा सोना जैसे सैकड़ों नाम इस सूची में जुड़ते चले गए हैं। इनकी कोई राजनीतिक हैसियत नहीं थी, ये किसी बड़ी साज़िश का हिस्सा नहीं थे, ये केवल सामान्य जनजातीय ग्रामीण थे, जो अपने परिवार और जीवनयापन में लगे हुए थे। लेकिन नक्सलियों की "विचारधारा" ने इन्हें जीने का अधिकार नहीं दिया।
माओवादियों ने जनजातीय समाज को जिस तरह बंधक बनाया है, वह वास्तव में दोहरी मार जैसा है। एक ओर सरकारी तंत्र की उपेक्षा और विकास की कमी है, दूसरी ओर नक्सलियों की हिंसा और दमन। जनजातीय समाज सड़कों, स्कूलों, स्वास्थ्य सेवाओं और रोजगार की कमी से जूझ रहा है।
जब सरकार इन क्षेत्रों में विकास कार्य करने की कोशिश करती है, तब नक्सली इन्हें रोकने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं। इस तरह ग्रामीण समाज विकास से भी वंचित हो जाता है और भय के साए में जीने को मजबूर होता है। यह सच्चाई है कि आज बस्तर का जनजीवन सबसे अधिक पीड़ित माओवादी हिंसा से है, न कि उस शोषण से जिसका हवाला नक्सली देते हैं।
कम्युनिस्ट कहते हैं कि उनकी विचारधारा का मूल उद्देश्य शोषण-मुक्त समाज की स्थापना है। लेकिन जब यह विचारधारा निर्दोषों की हत्या, बच्चों के भविष्य की तबाही और जनजातीय समाज के विकास में बाधा डालने का औजार बन जाए, तो यह अपने आप में खोखली साबित हो जाती है। नक्सलियों का "रेड टेरर" अब किसी क्रांति का प्रतीक नहीं रहा, बल्कि यह केवल उनके हताशा और पतन का सबूत है।
आज सबसे बड़ा सवाल यही है कि कब तक बस्तर के ग्रामीण जनजातीय निर्दोष होकर भी मौत का शिकार बनते रहेंगे? कब तक नक्सली विचारधारा के नाम पर उनकी बलि ली जाती रहेगी? यह सवाल केवल सरकार और सुरक्षा बलों के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए है।
क्योंकि जब किसी विचारधारा के नाम पर इंसान की हत्या जायज़ ठहराई जाती है, तब वह विचारधारा केवल विनाश का औजार रह जाती है। माओवादियों की यह हिंसा अब उनके अंत की घोषणा है। क्योंकि जनता का समर्थन खोकर कोई भी आंदोलन जीवित नहीं रह सकता। और बस्तर की जनता अब इस झूठी क्रांति की असलियत पहचान चुकी है।
बीजापुर और सुकमा की घटनाएँ केवल दो ग्रामीणों की हत्या भर नहीं हैं, बल्कि यह इस बात का सबूत हैं कि माओवादी आंदोलन अपनी जड़ों से हिल चुका है। बौखलाहट में किए गए ये अपराध उनकी कमजोरी को उजागर करते हैं। अब समय आ गया है कि इस विचारधारा की परतें पूरी तरह से खोली जाएँ और इसे बेनकाब किया जाए।
माओवादी न तो जनजातियों के मित्र हैं, न ही समाज के उद्धारक। वे केवल हिंसा और खूनखराबे के व्यापारी हैं, जिनका असली चेहरा निर्दोषों की लाशों के ढेर पर दिखता है। बस्तर की जनता को इस बंधन से मुक्त करने की जिम्मेदारी केवल सुरक्षा बलों या सरकार की नहीं है, बल्कि पूरे देश की है।
जब तक हम इस खोखली विचारधारा की आलोचना नहीं करेंगे और निर्दोषों की पीड़ा को आवाज़ नहीं देंगे, तब तक बस्तर का खून बहना बंद नहीं होगा। यह समय है स्पष्ट कहने का कि माओवाद कोई आंदोलन नहीं, बल्कि एक रक्तरंजित धोखा है।