"Naxalism is throwing a challenge to law and order in several regions of India. Like International Terrorism in Jammu & Kashmir and extremism in North-East, Naxalism is also posing a danger to National Integration. A multi-faceted strategy is highly essential to successfully face this challenge" राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम (संसद के संयुक्त अधिवेशन में संबोधन)
अर्थात्, "नक्सलवाद भारत के कई हिस्सों में कानून-व्यवस्था को चुनौती दे रहा है। जैसा कि जम्मू कश्मीर में अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद और उत्तर पूर्व में उग्रवाद करता है, नक्सलवाद राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा है। इस चुनौती से निपटने के लिए बहु आयामी रणनीति आवश्यक है।"
भारत के एक राष्ट्रपति को यह बात संसद के मंच से क्यों कहनी पड़ी? क्या सचमुच नक्सल वही हैं, जो कहते हैं कि जमींदार और अभिजात वर्ग शोषण करता है? जो वंचितों और शोषितों के "अधिकारों की लड़ाई" लड़ने का दावा करते हैं? अगर हाँ, तो फिर नक्सल हिंसा में निर्दोष लोग बार बार क्यों मरते हैं? जवाब इनकी खूनी घटनाओं के इतिहास में छिपा है। जब एक एक घटना को केवल तथ्य और पीड़ा के साथ देखें, तो तस्वीर साफ़ हो जाती है। नक्सली हिंसा का सबसे बड़ा शिकार आम नागरिक, किसान, बच्चे, वही जनजातीय समुदाय और वंचित शोषित जनता है, यानि वही लोग जिनके नाम पर तथाकथित "क्रांति" का नाटक खेला जाता है।
आइए, यह जानने के लिए कि नक्सलवादी हिंसा का शिकार कौन है, हम पिछले दशकों में हुए कुछ घटनाक्रम राज्यवार समझते हैं।
छत्तीसगढ़: दंडकारण्य का खूनी दशक
छत्तीसगढ़ भारत में नक्सली हिंसा का सबसे बड़ा केंद्र रहा है। 2001 से 2024 तक बस्तर क्षेत्र में हजारों नागरिक मारे गए, जिनमें कई सीधे माओवादियों द्वारा की गई हत्याएं और कई आईईडी विस्फोटों के शिकार हुए। इसी अवधि में हजारों सुरक्षाकर्मी भी शहीद हुए, पर नागरिकों की हत्याएं ज्यादा हैं, जो स्पष्ट करता है कि आम नागरिक सबसे बड़े शिकार हैं।
प्रमुख नरसंहार
रानीबोदली, 2007: नक्सलियों द्वारा एक अस्थायी चौकी पर हमला, 55 जवान शहीद। इनमें कोई “शोषक कारखानेदार” या “अमीर ज़मींदार” नहीं था, बस वह सिपाही था जो अपनी ड्यूटी कर रहा था।
ताडमेटला नरसंहार, 6 अप्रैल 2010: चितलनार के पास हुए इस सबसे दर्दनाक घात में 76 सीआरपीएफ जवान और एक राज्य पुलिसकर्मी शहीद हुए। तीन दिन के ऑपरेशन से लौट रहे थके जवान आराम कर रहे थे जब लगभग 1,000 माओवादियों ने हमला किया। यह “जनता का युद्ध” नहीं, राष्ट्र के ख़िलाफ़ खुला युद्ध है।
दंतेवाड़ा बस बम विस्फोट, 17 मई 2010: दंतेवाड़ा सुकमा मार्ग पर एक सामान्य बस भूमिगत आईईडी धमाके की चपेट में आ गई। किसान, छात्र, महिलाएं, लगभग 35 आम लोग मारे गए, और 15 गंभीर रूप से घायल हुए। क्या अधिकारों की लड़ाई में मासूमों का खून मंज़ूर है?
झीरम घाटी नरसंहार, 25 मई 2013: लोकतंत्र पर सीधा हमला। कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा के काफिले पर हमला हुआ। 27 लोग मारे गए जिनमें वरिष्ठ नेता महेंद्र कर्मा, नंद कुमार पटेल और पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल शामिल थे। अगर लोकतंत्र “जनता की आवाज़” है तो फिर निर्वाचित नेतृत्व को गोलियों से क्यों जवाब दिया गया?
सुकमा घात, 24 अप्रैल 2017: बुर्कपाल चिन्तागुफा मार्ग पर 300 से अधिक नक्सलियों ने सीआरपीएफ जवानों पर हमला किया, जिसमें 26 जवान शहीद और 7 घायल हुए। यह नरसंहार था, "जनता का विरोध" नहीं।
छत्तीसगढ़ की कहानी बताती है कि माओवादी हिंसा राज्य, लोकतंत्र और आम नागरिक तीनों पर एक साथ वार करती है।
आंध्र प्रदेश: रेल के डिब्बे से गाँव तक आतंक
काकतीय एक्सप्रेस कोच में आग, 10 अक्टूबर 1990: आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के स्टे के विरोध में माओवादी सड़क से पटरियों पर पहुँचे। पीपुल्स वॉर और रेडिकल स्टूडेंट्स यूनियन ने सामान्य बोगी में आग लगा दी। 47 निर्दोष यात्री ज़िंदा जल गए, जिनमें अधिकांश महिलाएं और बच्चे थे। नक्सलियों ने बाद में इसे "ऐतिहासिक भूल" कह दिया।
चिंटागुडेम बस विस्फोट, 18 नवंबर 2002: एक आरटीसी बस को पुलिस वैन समझकर भूमिगत क्लेमोर माइंस से उड़ाया गया। 20 यात्री मारे गए, 16 घायल। अधिकांश पीड़ित जनजातीय समुदाय से थे, जो साप्ताहिक बाज़ार से लौट रहे थे।
वेंपेंटा नरसंहार, मार्च 2005: बदले की हिंसक श्रृंखला में, नक्सलियों द्वारा पूर्व सरपंच की हत्या के बाद, बदले की आग में 8 लोगों को ज़िंदा जला दिया गया। बाद में नक्सलियों ने टीडीपी नेता बुद्दा वेंगला रेड्डी की हत्या कर दी। इन हिंसक घटनाओं के बीच कुचला कौन गया? वही आम इंसान।
पश्चिम बंगाल: पटरियों पर मौत
ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस, 28 मई 2010: रात के अँधेरे में पश्चिम मेदिनीपुर में रेल पटरियों से छेड़छाड़ के कारण ट्रेन पटरी से उतरी और मालगाड़ी से टकराई। 148 यात्री मारे गए, जिनमें बच्चे, महिलाएं और मजदूर शामिल थे।
सिलदा कैंप हमला, 15 फरवरी 2010: पश्चिम मेदिनीपुर के सिलदा में ईस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स कैंप पर 300 नक्सलियों ने हमला किया। 24 जवान मारे गए।
महाराष्ट्र और ओडिशा: बारूद, खून और सन्नाटा
गढ़चिरौली, 2009: जंगल की पगडंडियों पर घात लगाकर 17 पुलिसकर्मी शहीद। 8 अक्टूबर को पुलिस स्टेशन पर हमला कर 17 अधिकारी मारे गए।
गढ़चिरौली, 1 मई 2019: कुर्खेड़ा मार्ग पर गड्ढे में छिपाया गया 60 किलो आईईडी फटा, जिसमें 15 पुलिसकर्मी और एक चालक मारे गए।
नयागढ़, 2008: शस्त्रागार पर सशस्त्र हमला हुआ, जिसमें कई पुलिसकर्मी और नागरिक मारे गए। ओडिशा के शांत जिलों में दहशत का ऐसा साया पड़ा कि महीनों तक गाँव वालों ने रातें जागकर काटीं।
शिकार कौन? पैटर्न देखिए
हर घटना में रेल का यात्री, बस का यात्री, बाज़ार का दुकानदार, स्कूल जाती बच्ची, जनजातीय लोग, ड्यूटी पर जवान, और अपने ही साथी। यह किसी "शोषक वर्ग" की व्यवस्थित सूची नहीं है। ये भय पैदा करने वाली पैशाचिक हत्याएँ हैं ताकि दहशत राज करे। अगर इस तथाकथित "क्रांति" का पहला शिकार जनता ही है, तो यह "अधिकारों का युद्ध" नहीं, माफ़िया जैसी हिंसा है।
राष्ट्रपति की चेतावनी क्यों सही थी?
राष्ट्रपति कलाम ने इसे राष्ट्रीय एकता का खतरा इसलिए कहा क्योंकि यह सिर्फ कानून व्यवस्था का मुद्दा नहीं। यह रेल हो या सड़क, थाना हो या स्कूल, पंचायत हो या पार्टी हर संस्थान को कमजोर करने की कोशिश है। इससे निपटने के लिए बहु आयामी रणनीति जरूरी है:
सुरक्षा: घात लगाने वालों तक पहुँचना, आईईडी नेटवर्क तोड़ना, नेतृत्व पर निरंतर कार्रवाई।
विकास: सड़क, मोबाइल टावर, स्कूल आदि का निर्माण, विकास तुरंत और दिखने वाला।
शासन: ईमानदार, उपस्थित, जवाबदेह प्रशासन, पुलिस के साथ साथ सिविल विभागों की वास्तविक मौजूदगी।
अंत में: अंक नहीं, इंसान हैं
किसी रिपोर्ट में ये घटनाएँ आंकड़ों की तरह दिखती हैं, पर हर संख्या के पीछे एक परिवार है, एक कलाई है जिस पर राखी रह गई, एक माँ है जिसके दरवाज़े पर अब शाम नहीं लौटती। यही वजह है कि इसे आंतरिक सुरक्षा का बड़ा ख़तरा कहा गया। यह सिर्फ़ “राज्य बनाम उग्रवाद” नहीं, भारत बनाम भय है।
तो, “नक्सली हिंसा का शिकार कौन?” जवाब सरल और दर्दनाक है: हम आप, हमारा जवान, हमारा किसान, हमारी बच्चियाँ, हमारे जनजातीय भाई बहन। और अगर शिकार हम हैं, तो समाधान भी हमें ही बनना होगा, ताकि बंदूक की गूंज आखिरकार खामोशी में बदल जाए।
लेख
आदर्श गुप्ता
युवा शोधार्थी