माओवाद की वैचारिक विफलता: प्रेस विज्ञप्तियों में छिपा सच

09 Oct 2025 18:54:12
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सितंबर-अक्टूबर 2025 में प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन सीपीआई (माओवादी) के तीन अलग अलग क्षेत्रीय डिवीज़न: उत्तर बस्तर, गढ़चिरौली और माड़ ने प्रेस विज्ञप्तियाँ जारी की हैं। ये विज्ञप्तियाँ न केवल संगठन की आंतरिक फूट को सिद्ध करती हैं, बल्कि माओवाद की वैचारिक विफलता की खुली स्वीकारोक्ति भी हैं।
 
आत्मसमर्पण की घोषणा और आंतरिक फूट
 
2025 के मध्य में सीपीआई (माओवादी) के पॉलिटब्यूरो सदस्य "कॉमरेड सोनू" उर्फ वेणुगोपाल ने सार्वजनिक रूप से सशस्त्र संघर्ष छोड़ने का आह्वान किया। उन्होंने खुलकर स्वीकार किया कि सुरक्षा बलों के लगातार दबाव और संगठनात्मक कमज़ोरी के चलते माओवादी उद्देश्य विफल हो चुके हैं। सोनू ने जनता से माफ़ी माँगी और संवाद एवं अहिंसक विकल्पों की वकालत करते हुए कहा कि बदली परिस्थितियों में मुख्यधारा में शामिल होना ही "सही रास्ता" है। उनके बयान में केवल सुरक्षा दबाव ही नहीं था, बल्कि यह स्वीकारोक्ति भी थी कि जनाधार ढह चुका है और ग्रामीण तथा स्वयं माओवादी दोनों ही हिंसा और तथाकथित "जनयुद्ध" से तंग आ चुके हैं।
 
हालांकि, सीपीआई (माओवादी) की केंद्रीय समिति और प्रमुख क्षेत्रीय समितियों जैसे दंडकारण्य ज़ोनल कमेटी और तेलंगाना राज्य समिति ने सोनू के बयान को "व्यक्तिगत" बताते हुए सख्त खंडन जारी किया। उन्होंने उस पर "गद्दारी" का आरोप लगाया और स्पष्ट किया कि किसी को भी एकतरफ़ा हथियार डालने का अधिकार नहीं है। इस प्रतिक्रिया ने निचले और उच्च नेतृत्व के बीच गहरी दरार उजागर कर दी। जहाँ कुछ डिवीज़न और व्यक्ति सशस्त्र संघर्ष जारी रखने की निरर्थकता को समझ चुके थे, वहीं नेतृत्व हिंसक विद्रोह के पुराने नारों पर अड़ा रहा।
 
वैचारिक विफलता की खुली स्वीकारोक्ति
 
इस घटनाक्रम के बाद, हाल ही में उत्तर बस्तर, गढ़चिरौली और माड़ डिवीज़न ने अपनी प्रेस विज्ञप्तियों में आत्मनिरीक्षण करते हुए ऊपरी नेतृत्व (केंद्रीय समिति) को रणनीतिक असफलताओं और गलत निर्णयों के लिए दोषी ठहराया। उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि उन्होंने अपनी दिशा खो दी है, जिस "जनता" का प्रतिनिधित्व करने का दावा किया गया, उसी पर वे बोझ बन गए हैं, और संगठनात्मक एकता बिखर चुकी है।
 
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पिछले कुछ दिनों में सुरक्षा अभियानों ने कार्यकर्ताओं की संख्या घटा दी, वरिष्ठ नेताओं को ढेर कर दिया और आत्मसमर्पण की लहर तेज़ कर दी। तथाकथित "क्रांति" ने न तो सामाजिक न्याय हासिल किया, न जन समर्थन, सिर्फ़ हिंसा और अलगाव फैलाया। सभी तीनों डिवीज़नों ने हथियार छोड़ने और आत्मसमर्पण में सहयोग करने की वकालत की। साथ ही यह भी माना कि सशस्त्र संघर्ष पर टिके रहने से केवल असंतोष बढ़ा है। जो लोग कभी हिंसक अभियानों का नेतृत्व करते थे, अब खुलकर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व और वैचारिक कठोरता को अपने पतन के लिए ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। यह विद्रोही एकता का पूर्ण विघटन और रणनीतिक तथा वैचारिक दोनों स्तर पर हार की अभूतपूर्व स्वीकारोक्ति है।
 
ये प्रेस विज्ञप्तियाँ माओवाद की असली सच्चाई उजागर करती हैं। यह कभी एक तथाकथित "वैचारिक आंदोलन" नहीं था, बल्कि खोखले सिद्धांतों पर टिका खून और हिंसा का कारोबार था, जो अब ढह रहा है। ये घटनाएँ माओवाद की वैचारिक विफलता को स्पष्ट दर्शाती हैं। पर अब प्रश्न उठता है कि यह विफल विचार, माओवाद, आखिर है क्या?
 
माओवाद: एक विदेशी और दिवालिया विचार का हथियारबंद युद्ध
 
माओवाद असल में एक विदेशी विचार है। यह विचार लेनिन, मार्क्स और माओ के वैचारिक मार्ग से आता है। ये विचार जिन परिप्रेक्ष्यों में थे, वहाँ भी सफल नहीं हुए। मार्क्स ने भविष्यवाणी की थी कि क्रांति पूर्णतः औद्योगिक देशों में होगी, लेकिन वह रूस और चीन जैसे देशों में हुई जो पूर्णतः औद्योगिक नहीं थे। लेनिन ने रूस में तख्तापलट किया, जिसके परिणामस्वरूप गृहयुद्ध, लाल आतंक, गुलाग और भूखमरी में लाखों लोगों की मौत हुई। माओ के ग्रेट लीप फॉरवर्ड में 15 से 55 मिलियन लोग मारे गए, जो इतिहास का सबसे बड़ा मानव निर्मित अकाल था। "कल्चरल रिवोल्यूशन" में भी लाखों लोग मारे गए, यातनाएँ सहीं या आत्महत्या की। माओ की मृत्यु के बाद, चीन ने माओवाद त्याग दिया और पूँजीवाद अपना लिया। 1991 में सोवियत संघ का भी पतन हो गया।
 
भारत में माओवाद एक उग्रवादी विचार है, जो आम लोगों के मन में भय और आतंक से अपनी सत्ता कायम करता है। इसने हजारों प्राण लिए हैं। ग्रामीणों को विकास से दूर रखना, स्कूलों और स्वास्थ्य केंद्रों को जलाना, सड़कों और पुलों को उड़ाना और सबसे बढ़कर "पुलिस मुखबिर" होने के संदेह में निर्दोष ग्रामीणों की हत्या करना, यही उनका असली चेहरा है। जो लोग अपनी ज़मीन और जंगल की रक्षा के लिए आवाज़ उठाते हैं, वही जब माओवादी हिंसा के शिकार बनते हैं, तो यह साफ़ हो जाता है कि यह विचारधारा जनता की नहीं, बल्कि बंदूकधारियों की सत्ता बनाए रखने का औज़ार है।
 
माओवादियों ने अपने इरादे अपने ही दस्तावेज़ों में साफ़ कर दिए थे। उनका आधिकारिक रणनीति दस्तावेज़ "Strategy & Tactics of the Indian Revolution," जो 2004 में अपनाया गया, घोषित करता है:
"The central task of the Indian revolution is the seizure of political power. To accomplish this Central task, the Indian people will have to be organized in their army and will have to wipe out the armed forces of the counterrevolutionary Indian state through war"
 
अर्थात्, "भारतीय रिवोल्यूशन का केंद्रीय कार्य राजनीतिक सत्ता को हथियाना है। इस केंद्रीय कार्य को पूरा करने के लिए, भारतीय जनता को अपनी सेना में संगठित करना होगा और प्रतिक्रांतिकारी भारतीय राज्य की सशस्त्र सेनाओं को युद्ध के माध्यम से नष्ट करना होगा।"
 
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दस्तावेज़ आगे कहता है:
"The very act of establishment of the state machinery of the people by destroying, through war, the present autocratic state machinery - the army, the police, and the bureaucracy of the reactionary ruling classes - is the Central task of the Peoples Democratic Revolution of India"
 
अर्थात्, "युद्ध के माध्यम से वर्तमान निरंकुश राज्य मशीनरी - सेना, पुलिस और प्रतिक्रियावादी शासक वर्गों की नौकरशाही - को नष्ट करके जनता की राज्य मशीनरी की स्थापना का कार्य ही भारतीय पीपल्स डेमक्रैटिक रिवोल्यूशन का केंद्रीय कार्य है।"
 
यह बदलाव और सुधार लाने वालों की भाषा नहीं थी, जो ग़रीबों के लिए न्याय चाहते हों, बल्कि विद्रोहियों की भाषा थी, जो लंबे सशस्त्र संघर्ष और हिंसा के माध्यम से भारतीय राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए प्रतिबद्ध थे। मुख्य सवाल यही है: जब कम्युनिस्म यूरोप, रूस, चीन, पूर्वी यूरोप, वियतनाम, उत्तर कोरिया या कहें कि विश्व भर में विफल रहा, तो भारत में कैसे सफल हो सकता था? जब ये विदेशी विचार वहाँ सफल नहीं हुआ जहाँ के लिए बनाया गया था, तो यहाँ कैसे सफल होता? और आज इसकी हार हमें देखने को मिल रही है। आज माओवादी स्वयं माओवाद के वैचारिक दिवालियेपन को स्वीकार कर रहे हैं।
 
2025 की घटनाएँ: बौखलाहट की निशानी
 
2025 में माओवादियों ने मड़कम भीमा और रावा सोना की हत्या कर दी, उन पर "पुलिस मुखबिर" होने का आरोप लगाकर। कोई न्यायिक प्रक्रिया नहीं, कोई सुनवाई नहीं, केवल बंदूक का कानून। यह दिखाता है कि जब उग्रवादी संगठन कमज़ोर पड़ता है, तो हिंसा और बढ़ जाती है। यह तथाकथित माओवादी "न्याय" की वास्तविकता है, जन अदालतों के नाम पर सार्वजनिक हत्याएँ।
 
अंत में: खोखली विचारधारा की हार
 
2025 की घटनाओं और प्रेस विज्ञप्तियों का क्रम दिखाता है कि सीपीआई (माओवादी) अभूतपूर्व संकट में फँसी है। इस वर्ष एक वरिष्ठ माओवादी नेता की शांति और आत्मसमर्पण की अपील आई, जिसे तुरंत ऊपरी नेतृत्व ने नकार दिया। फिर भी, आंतरिक असहमति की लहरें आईं, जब स्थानीय डिवीज़नों ने संगठनात्मक और वैचारिक असफलता को स्वीकार किया। यह तस्वीर एक ऐसे विद्रोह की है जो सुरक्षा बलों के दबाव के कारण बिखर रहा है। माओवादियों को यह भी बोध हो गया है कि उनकी विचारधारा अपनी कैडरों और जनता के बीच सारी प्रासंगिकता और वैधता खो चुकी है।
 
ये घटनाएँ भारत के आंतरिक सुरक्षा परिदृश्य में एक नया अध्याय खोल रही हैं। माओवादी विचारधारा की यह स्वीकृत विफलता दर्शाती है कि भारतीय लोकतंत्र और संविधान की शक्ति हिंसक विचारधाराओं से कहीं अधिक मजबूत है। यह समय है जब हम इस सकारात्मक बदलाव का स्वागत करें और सुनिश्चित करें कि जो लोग मुख्यधारा में आना चाहते हैं, उनके लिए उचित अवसर और पुनर्वास की व्यवस्था हो। बस्तर और अन्य प्रभावित क्षेत्रों में अब विकास, शिक्षा और रोजगार के नए अवसर खुल सकते हैं। यह माओवाद की वैचारिक विफलता नहीं, बल्कि भारतीय मूल्यों, लोकतंत्र और शांति की विजय है। अब समय आ गया है कि हम इस सकारात्मक परिवर्तन को आगे बढ़ाने में योगदान दें और एक हिंसामुक्त, समृद्ध भारत का निर्माण करें।
 
लेख
 
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आदर्श गुप्ता
युवा शोधार्थी
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