दशकों की दहशत ढही, हिड़मा अब इतिहास बना

19 Nov 2025 12:50:50
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सुकमा के दूर बसे गांव का वह सर्द सुबह था, जब दो मां अपने बेटों का नाम लेते हुए रो पड़ीं। उन्हें यकीन था कि इतनी दहशत फैलाने वाला माड़वी हिड़मा भी शायद उनकी गुहार सुन लेगा। छत्तीसगढ़ के डिप्टी मुख्यमंत्री विजय शर्मा खुद वहां पहुंचे थे। उन्होंने दोनों को समझाया कि बेटों को समझाओ। कैमरे पर मांओं की आवाज कांपी और उन्होंने कहा कि लौट आओ, अब और खून खराबा मत करो। पर कोई नहीं जानता था कि यह अपील हिड़मा के दिल की किसी दीवार से टकराकर वापस लौट जाएगी।
 
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चार दिन बाद खबर आई कि हिड़मा ने मां की बात ठुकरा दी है। इसके साथ ही उसकी किस्मत भी तय हो गई। दो दशक तक बस्तर में दहशत फैलाने वाला यह नक्सली अब सिर्फ दो रास्तों में से एक चुन सकता था। या तो आत्मसमर्पण करे या फिर आखिरी गोली तक लड़कर खत्म हो जाए। हिड़मा ने दूसरा रास्ता चुना। उसके ठीक आठ दिन बाद जंगलों की गहरी खामोशी के बीच वही नाम रेडियो वायरलेस पर गूंजा, लेकिन इस बार एक खबर के रूप में। माड़वी हिड़मा मारा जा चुका था।
 
हिड़मा को मारने की कहानी उस रात से शुरू होती है जब उसकी लोकेशन पहली बार साफ मिली। वर्षों से उसकी हर हरकत पर नजर रखने वाले ऑपरेशन से जुड़े अफसरों ने कई बार उसे दबोचने की कोशिश की थी, पर वह हमेशा आंखों के सामने से धुएं की तरह गायब हो जाता था। उसकी इंटेलिजेंस यूनिट इतनी तेज थी कि फोर्स के पहुंचने से पहले वह जंगलों में ऐसे घुल जाता था जैसे वहां कभी था ही नहीं। पर इस बार किस्मत ने उसका साथ छोड़ दिया।
 
 
हिड़मा हमेशा राज्य की सीमा बदलने के लिए तेलंगाना की ओर भागता था। वह रास्ता उसके लिए सुरक्षित माना जाता था। लेकिन इस बार उसने चाल बदलने का फैसला किया और आंध्र प्रदेश की ओर निकल गया। शायद सोचा होगा कि फोर्स को भ्रम होगा और वह सुरक्षित निकल जाएगा। पर इसी एक फैसले ने उसके रास्ते में कांटे बिछा दिए। आंध्र प्रदेश की एंटी नक्सल फोर्स ग्रेहाउंड पहले से ही इस इलाके में सक्रिय थी। जंगलों का उनका ज्ञान इतना गहरा था कि किसी भी नई हलचल को वे तुरंत पकड़ लेते थे। हिड़मा की मूवमेंट की भनक उन्हें एक दिन पहले ही मिल गई थी।
 
 
मारेडुमिली के घने जंगल में हिड़मा और उसके साथियों ने रात गुजारी थी। शायद उन्हें पता नहीं था कि उसी जंगल की हवा में उनका पीछा करती फोर्स की आहट घुल चुकी थी। रात के करीब सवा एक बजे ग्रेहाउंड और लोकल पुलिस की यूनिट ने डीप कॉम्बिंग शुरू किया। यह ऑपरेशन इतना गोपनीय था कि कुछ गिने-चुने अधिकारी ही इससे वाकिफ थे। अंधेरे में बिना आवाज किए बढ़ रहे जवानों को पता था कि उनके सामने देश का सबसे कुख्यात नक्सली है और जरा सी चूक ऑपरेशन को असफल कर सकती है।
 
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सुबह तक गोलियों की आवाज गूंजने लगी। हिड़मा, उसकी पत्नी राजे, बॉडीगार्ड देवा और तीन अन्य नक्सली वहीं गिर गए। देवा की मौत अपने आप में बड़ी खबर थी। हिड़मा का विश्वासपात्र साथी, उसकी सुरक्षा का अंतिम घेरा। जो भी उसके पास पहुंचना चाहता था, पहले देवा की नजर से गुजरना पड़ता था। इतने भरोसेमंद साथी का उसी के साथ खत्म होना इस कहानी को और गहरा बनाता है।
 
हिड़मा की सुरक्षा इतनी पक्की थी कि उसका खाना भी खास टीम बनाती थी। साधारण नक्सलियों की तरह वह किसी पर भी भरोसा नहीं करता था। और यही कारण था कि इतने वर्षों तक वह गिरफ्तारी से बचता रहा। पूर्व नक्सली बताते हैं कि हिड़मा कट्टर विचारों वाला था। जो साथी आत्मसमर्पण कर देते थे, उन्हें वह गद्दार कहता था। उसकी सोच इतनी कठोर थी कि मां की गुहार भी उसे नहीं हिला सकी।
 
लेकिन हर कहानी का एक अंत होता है। हिड़मा की कहानी की शुरुआत तब हुई थी जब वह सिर्फ 16 साल का था। दुबला पतला, तेज दिमाग वाला लड़का जिसे बालल संगम में शामिल किया गया था। फिर वही लड़का आगे चलकर नक्सली हमलों का मास्टरमाइंड बना। दंतेवाड़ा, झीरम घाटी और सुकमा बीजापुर के हमलों में उसकी भूमिका दहशत की तरह दर्ज है। वह न सिर्फ हथियार चलाना जानता था बल्कि गाना बजाना, प्राथमिक उपचार और एम्बुश लगाने की कला भी उसी तेजी से सीखता था।
 
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एक मासूम लड़का जो जंगलों में पैदा हुआ, धीरे धीरे खून और हिंसा की राह पर बढ़ता गया। संगठन की प्रशंसा ने उसका आत्मविश्वास बढ़ाया और वह ऊंचे पदों तक चढ़ता गया। उसकी पत्नी राजे भी संगठन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां निभाती रही। दोनों मिलकर एक ऐसे रास्ते पर चल पड़े जिससे लौटने का कोई मौका नहीं था।
 
और आखिर उसी रास्ते ने उन्हें घेरकर खत्म कर दिया। जंगल ने उन्हें पाला था, लेकिन अंत में उन्हीं जंगलों ने उनसे सब छीन लिया। माड़वी हिड़मा की कहानी खत्म हो गई है, पर उसकी छाया अभी भी उन पगडंडियों पर तैरती है जहां कभी उसके कदमों की धूल उड़ती थी। यह कहानी बताती है कि हिंसा का कोई अंत नहीं होता, सिर्फ अंधेरे में खो जाने का क्षण आता है और वही क्षण अंत बन जाता है।
 
~ शोमेन चंद्र
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