देश के सामने माओवादी हिंसा कोई नई बात नहीं है, पर हाल ही में उत्तर तालमेल कमेटी द्वारा जारी अपील ने साफ कर दिया कि यह संगठन अब जनता के भरोसे से एकदम खाली हो चुका है। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने देशभर के नामी वामपंथी पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को ही संबोधित किया है। द वायर, स्क्रोल, द हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस, न्यूजलॉन्ड्री, कारवां, कश्मीर टाइम्स, बस्तर टाकीज, रेड माइक्रोफोन, रविश कुमार, अभिसार शर्मा से लेकर अल जजीरा और बीबीसी तक। यह खुद साबित करता है कि माओवादी केवल उसी वर्ग से संवाद करना चाहते हैं जो पहले से सरकार विरोधी नैरेटिव पर काम करता है। अगर इनके पास सचमुच जनाधार होता तो अपील पत्रकारों के बंद कमरे में नहीं जाती, जनता के बीच आती।
पहला दावा यह किया गया है कि पार्टी किसी अस्थायी सेटबैक से गुजर रही है। सच यह है कि यह सेटबैक उनकी हिंसा आधारित राजनीति की परिणति है। जब आप हथियार उठाकर लोकतांत्रिक प्रणाली को चुनौती देते हैं तो जनता ही दूरी बना लेती है। भूख, जाति, भेदभाव और विकास की समस्याएँ वास्तविक हैं, पर समाधान बंदूक चलाकर नहीं आता। माओवादी इन मुद्दों का इस्तेमाल करते हैं, समाधान नहीं देते।
माओवादी बार बार कहते हैं कि अमेरिकी साम्राज्यवाद भारत को निशाना बना रहा है। यह दलील पुराने जमाने की घिसी पिटी लाइन है। देश में विकास कार्य हो रहे हैं, सड़क, बिजली, स्कूल और अस्पताल बन रहे हैं। माओवादी इन्हें साम्राज्यवाद बताते हैं क्योंकि इन्हें डर है कि विकास होगा तो उनकी बंदूक की राजनीति खत्म हो जाएगी। इनकी छापामार गतिविधियों के खिलाफ सुरक्षा बल कार्रवाई करते हैं, तो यह उसे विदेशी साजिश बता देते हैं। असलियत यह है कि लोगों की जमीन, जंगल और संसाधनों पर कब्जा करने का लालच इनके पास है, किसी विदेशी शक्ति के पास नहीं।
अपील में माओवादियों ने कई गुटों को गद्दार बताया है। यह भी स्वीकारोक्ति है कि संगठन अंदर से टूट चुका है। जब विचारधारा ही अव्यवहारिक हो तो भीतर दरारें पड़ना ही स्वाभाविक है। माओवादी कहते हैं कि पार्टी खत्म नहीं हो सकती। इतिहास बताता है कि जनता विरोधी विचारधाराएं अंततः समाप्त ही होती हैं।
माओवादी दावा करते हैं कि उन्होंने जनजातियों की संस्कृति और भाषा बचाई है। यह बात जमीनी स्थिति से बिल्कुल उलट है। जहां माओवादी प्रभाव है वहां स्कूल जले हैं, सड़कें टूटे पड़ी हैं, स्वास्थ्य सेवाएं रुकी हैं। यदि विकास रुकता है तो सबसे बड़ा नुकसान जनजाति समाज को ही होता है। वे कहते हैं कि जनताना सरकार में कोई भूख से नहीं मरा। पर सवाल यह है कि क्या बंदूक के साए तले कोई क्षेत्र सचमुच विकसित हो सकता है।
अपील में यह भी शिकायत है कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया माओवादियों का समर्थन नहीं करता। कारण स्पष्ट है। हिंसा आधारित आंदोलन को कोई लोकतांत्रिक संस्था समर्थन नहीं दे सकती। वे इसे नस्लवाद या ब्राह्मणवाद का आरोप बताते हैं, जबकि दुनिया हिंसा के समर्थन को नैतिक रूप से गलत मानती है।
सच्चाई यह है कि माओवादी आंदोलन अब एक विचारहीन, विभाजित और जनता से दूर पड़ा गिरता हुआ संगठित ढांचा है। इस अपील ने उनका भ्रम एक बार फिर खोल दिया है कि उनकी लड़ाई जनता की नहीं, सत्ता हथियाने की है। जनता अब उनका सच भलीभांति समझ चुकी है।
लेख
शोमेन चंद्र