18 नवंबर की सुबह खबर आई कि माडवी हिडमा अपनी पत्नी समेत छह नक्सलियों के साथ सुरक्षा बलों के साथ हुई मुठभेड़ में मारा गया। हिडमा बस्तर का वही साधारण बालक था जो माओवादी जाल में फंस गया। उसकी पूरी युवावस्था अपने ही लोगों के विरुद्ध हथियार उठाते हुए बीती। दशकों से जारी नक्सल आतंकवाद अब अपने अंतिम दौर में है। इसी संघर्ष में हिडमा का अंत एक निर्णायक क्षण बनकर सामने आया जिसे कई लोग ताबूत में आखिरी कील की तरह देख रहे हैं। कुछ दिन पहले उसकी मां ने उसे घर लौटने को कहा था। लेकिन सवाल उठता है कि माओवादी विचारधारा में ऐसा क्या है जो एक बेटे को अपनी मां की पुकार भी नहीं सुनने देती। किस तरह यह विचारधारा एक युवक को ऐसा कैदी बना देती है जो किसी बंद कमरे में नहीं बल्कि खुले जंगलों में रहते हुए भी लौट नहीं सकता।
एक मां की पुकार
सुकमा के घने जंगलों की सुबह में जब धूप पुवर्ती गांव की झोपड़ियों पर पड़ती है, तब हिडमा की मां माडवी पुंजी की आंखों में इंतजार की एक अलग चमक दिखती है। वह हर दिन आंगन में बैठकर पेड़ों की ओर देखती कि शायद उसका बेटा आज लौट आए। लेकिन जंगलों से बस हवा की सरसराहट आती है, कोई उत्तर नहीं।
पुवर्ती गांव बस्तर का वह इलाका है जहां माओवादी छाया हमेशा बनी रहती है। माओवादियों के डर से लोग न पूरी तरह सरकार के साथ खड़े होते हैं और न ही माओवादियों के, बस जीवन और मौत के बीच किसी संतुलन की तरह जीते रहते हैं। इसी गांव में हिडमा का जन्म हुआ जो आगे चलकर देश का सबसे खूंखार माओवादी कमांडर बना।
9 नवंबर 2025 की सुबह गांव में अलग हलचल थी। छत्तीसगढ़ के उपमुख्यमंत्री और गृहमंत्री विजय शर्मा पुवर्ती पहुंचने वाले थे। यह कोई सामान्य दौरा नहीं था। वह बिना भारी सुरक्षा घेरे के मोटरसाइकिल से पहुंचे। उनके पास हथियार नहीं बल्कि एक संदेश था। उन्होंने उसी फर्श पर बैठकर ग्रामीणों से बात की जहां पुंजी अपने बेटे का इंतजार करती थी। उन्होंने ग्रामीणों के साथ भोजन किया और उनसे अपने बेटों को वापस घर बुलाने की अपील की।
पुंजी भावुक होकर कैमरे के सामने बोलीं कि उनका बेटा लौट आए। उनकी आवाज में हजारों माताओं का दर्द था जिनके बेटे विचारधारा की भूलभुलैया में भटक गए हैं। बारसे देवा की मां ने भी यही पुकार लगाई कि लड़ाई से उन्हें कुछ नहीं मिला, सिर्फ खून, नुकसान और अकेलापन। गृहमंत्री शर्मा ने इसे भावनात्मक पुल बताया और कहा कि हिडमा की एक मां है जो चाहती है कि वह मुख्यधारा में लौट आए।
लेकिन क्या हिडमा तक यह आवाज पहुंच सकी। क्या वह विचारधारा की जेल से बाहर देख पाया।
जंगलों में खोया बचपन
पुवर्ती का एक मासूम बच्चा जो कभी अपनी मां की गोद में खेलता था, वह नहीं जानता था कि आगे उसका नाम देश के सबसे वांछित अपराधियों में शामिल होगा। उसके बचपन में दो माओवादी नेता रमन्ना और बद्रन्ना ने उसे बाल संघम में शामिल कर लिया। दसवीं तक की पढ़ाई के बाद वह धीरे धीरे संगठन में ऊपर उठता गया। माओवादी नारों ने उसके भीतर झूठी उम्मीदें भर दीं। उसे लगा कि वह लोगों के लिए लड़ रहा है और गरीबों की आवाज बन रहा है।
2009 में उसे पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी की सबसे घातक यूनिट का कमांडर बना दिया गया। 2024 में वह केंद्रीय समिति का सदस्य बना जो नक्सल संगठन में दूसरा सबसे बड़ा पद है। एक आदिवासी युवक का इतना ऊपर पहुंचना माओवादी इतिहास में पहली बार हुआ। लेकिन इसकी कीमत क्या थी।
खून की नदी
हिडमा पर एक करोड़ रुपये से अधिक का इनाम था। वह कई बड़े हमलों में शामिल था जिनमें 300 से अधिक जवान शहीद हुए। 2010 का तड़मेटला हमला, 2013 का झीरम घाटी नरसंहार, 2017 का सुकमा हमला और 2021 का टर्रेम घात इन सभी में वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल रहा। हर हमले के बाद वह जंगलों में गायब हो जाता और सुरक्षा घेरों के भीतर छिपकर रहता।
लेकिन क्या यह सब लोगों की लड़ाई थी।
विचारधारा का असली चेहरा
माओवादी दावा करते हैं कि वे आदिवासियों के लिए लड़ते हैं, लेकिन 2004 से 2025 के बीच वामपंथी उग्रवाद ने करीब दस हजार लोगों की जान ली जिनमें अधिकतर वे ग्रामीण थे जिनकी रक्षा का दावा माओवादी करते हैं। जिन्हें पुलिस मुखबिर कहकर मार दिया गया, जिन पर अमानवीय अत्याचार हुए और जिनका जीवन जबरन भर्ती से उजड़ गया।
हिडमा से वर्षों अपील की गई, लेकिन उसका उत्तर हमेशा यही था कि वह अंतिम सांस तक लड़ता रहेगा। विचारधारा ने उसकी आंखें इतनी बंद कर दीं कि वह अपनी मां का दर्द भी नहीं समझ सका।
आखिरी सुबह
आंध्र प्रदेश के मारेदुमिल्ली जंगलों में सुरक्षा बलों को उसके छिपे होने की सूचना मिली। यह घना और खतरनाक इलाका था। सुरक्षा बलों ने उसे घेरा और एक घंटे चली मुठभेड़ में छह नक्सली मारे गए जिनमें हिडमा और उसकी पत्नी भी शामिल थे। घटनास्थल से हथियार भी बरामद हुए। खबर तेजी से फैल गई कि हिडमा खत्म हो चुका है।
मां की चुप्पी
जब यह खबर पुवर्ती पहुंची तो हिडमा की मां के दिल पर क्या बीती होगी। एक सप्ताह पहले उसने बेटे को लौटने की पुकार लगाई थी जो अब हमेशा अनसुनी रह गई। उपमुख्यमंत्री विजय शर्मा ने इसे नक्सलवाद के खिलाफ आखिरी कील कहा। लेकिन मां के लिए यह कोई जीत नहीं थी, यह एक ऐसी खोई हुई जिंदगी की कहानी थी जो कभी वापस नहीं आएगी।
विचारधारा की कीमत
हिडमा की कहानी बस्तर के हजारों युवाओं की कहानी है। विचारधारा की चमक से वे अपना जीवन और अपने परिवार दोनों बर्बाद कर देते हैं। उसने न केवल जवानों को मार डाला बल्कि सैकड़ों ग्रामीणों का जीवन भी उजाड़ा। यह कौन सा जनयुद्ध था। 2025 में माओवादी आंदोलन अपने सबसे कमजोर दौर में है। वरिष्ठ नेताओं की मौत, आत्मसमर्पण और आंतरिक टूट यह साबित करते हैं कि यह प्रयोग असफल हो चुका है। और अब हिडमा का अंत यह दिखाता है कि विचारधारा की जंजीरें अंत में टूट ही जाती हैं।
आखिरी सवाल
आज बस्तर के जंगलों में हवा के साथ यह आवाज गूंज रही है कि घर लौट आओ बेटा। यह उन माताओं और परिवारों की पुकार है जिनके बच्चों को विचारधारा ने मौत के रास्ते पर धकेल दिया। हिडमा की कहानी एक चेतावनी है। क्या बस्तर के युवा इससे सबक लेंगे। क्या वे समझेंगे कि झूठी विचारधारा की जन्नत एक छलावा है और असली सुख अपने गांव अपने परिवार और शांति के जीवन में है। यह सवाल आज भी बस्तर के जंगलों में गूंज रहा है।
लेख
आदर्श गुप्ता
युवा शोधार्थी