
बारह साल, छह महीने और तीन दिन बाद आखिरकार झीरम घाटी के खून से सनी उस काली दोपहर का सबसे बड़ा गवाह सामने आ गया। 25 मई 2013 को कांग्रेस की पूरी प्रदेश इकाई को नेस्तनाबूद करने वाले नरसंहार का ऑन-ग्राउंड कमांडर, डंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी (DKSZC) का माओवादी सदस्य चैतूराम भास्कर उर्फ चैतू उर्फ श्याम दादा ने शुक्रवार को बस्तर रेंज के आईजी सुंदरराज पी. के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। उसके साथ पांच अन्य नक्सलियों ने भी हथियार डाले। कुल 65 लाख रुपये का इनामी यह गिरोह अब पुलिस हिरासत में है।

चैतू ने सरेंडर के फौरन बाद जो शब्द कहे, वे माओवादी आंदोलन की अंतिम हार की गवाही खुद दे रहे हैं कि “अब संगठन में कुछ नहीं बचा। उम्र हो गई, फोर्स हर तरफ है, घिर गए थे हम।” 63 साल की उम्र में पहली बार उसकी आवाज में हथियारों की गड़गड़ाहट नहीं, थकान और हार थी।
बस्तर के पुलिस महानिरीक्षक सुंदरराज पी. ने प्रेस को बताया कि चैतू पर 25 लाख और उसके साथियों पर कुल 40 लाख का इनाम था। चैतू 45 साल से माओवादी संगठन में था, जिसमें से 35 साल उसने बस्तर के घने जंगलों में बिताए। वह कई बार सुरक्षाबलों की गोलीबारी से बाल-बाल बचा, लेकिन इस बार DRG और जिला पुलिस की संयुक्त टीम ने उसे चारों तरफ से घेर लिया था। आखिरी बार वह अबूझमाड़ के कोर एरिया में देखा गया था।

वह खौफनाक दोपहर, जिसे भुलाना नामुमकिन है
25 मई 2013. सुकमा में कांग्रेस की परिवर्तन रैली खत्म होने के बाद 31 गाड़ियों का काफिला जगदलपुर की तरफ बढ़ रहा था। सबसे आगे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, उनके बेटे दिनेश और कवासी लखमा थे। पीछे-पीछे बस्तर टाइगर कहे जाने वाले महेंद्र कर्मा और उदय मुदलियार। दोपहर करीब साढ़े तीन बजे जब काफिला झीरम घाटी के सबसे संकरे मोड़ पर पहुंचा, तो पहले धमाका हुआ। फिर पेड़ गिराकर रास्ता बंद कर दिया गया। इसके बाद शुरू हुई अंधाधुंध फायरिंग।

दो घंटे तक चली इस नरमेध में 32 लोग मारे गए। नंदकुमार पटेल और उनका बेटा दिनेश मौके पर ही शहीद हो गए। पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल तीन दिन बाद अस्पताल में दम तोड़ गए। लेकिन सबसे बर्बर दृश्य था महेंद्र कर्मा का। सलवा जुडूम के संस्थापक को नक्सलियों ने जिंदा पकड़ लिया। चश्मदीदों के अनुसार, नक्सलियों ने उनके सीने पर चढ़कर नाचते हुए करीब सौ गोलियां ठोंकीं। उनकी लाश को पहचानना भी मुश्किल हो गया था।

NIA की चार्जशीट में साफ लिखा है कि इस हमले की पूरी प्लानिंग DKSZC ने की थी और ऑन-ग्राउंड कमांड चैतू के पास था। हमले की जिम्मेदारी उस समय माओवादी सुप्रीमो गणपति और DKSZC सचिव रामन्ना ने ली थी, लेकिन जमीन पर खून बहाने वाला चैतू ही था।
माओवादी हिंसा का काला इतिहास एक झलक में
चैतू कोई छोटा कमांडर नहीं था। वह 2010 से 2016 तक DKSZC का सक्रिय सदस्य रहा। उसके नाम दर्जनों एनकाउंटर, लूट, आगजनी और हत्याएं दर्ज हैं। 2017 में तड़मेटला हमले में CRPF के 76 जवान शहीद हुए थे, उसकी प्लानिंग में भी चैतू का हाथ था। 2021 में बीजापुर के तर्रेम में 22 जवानों की शहादत के पीछे भी उसकी रणनीति थी।

लेकिन अब वही चैतू कह रहा है कि “रूपेश, सोनू दादा सबने हथियार डाल दिए। अब लड़ाई का कोई मतलब नहीं।” यह वही रूपेश है जिसने 2021 में 22 जवानों को मारने के बाद उनकी राइफलों से वीडियो बनवाया था। वही सोनू दादा जिसने दंतेवाड़ा में 2023 में 10 जवान और एक ड्राइवर को IED से उड़ा दिया था।
अंत की शुरुआत
अबूझमाड़, जो कभी माओवादियों का गढ़ माना जाता था, वहां अब DRG के जवान चाय पीते दिखते हैं। चैतू का सरेंडर सिर्फ एक व्यक्ति का आत्मसमर्पण नहीं, यह उस विचारधारा की हार है जिसने पांच दशकों तक बस्तर को खून में डुबोए रखा। जिस माओवाद ने कभी “लाल गलियारा” का सपना देखा था, आज उसी के सबसे बड़े कमांडर थककर कह रहे हैं कि “अब कुछ नहीं बचा।”