
29 नवंबर 2025 को सोशल मीडिया पर #CongressNaxalNexus ट्रेंड करने लगा। यह ट्रेंड सिर्फ सोशल मीडिया की हलचल नहीं, बल्कि उस लंबे विवाद का विस्तार है जिसे कई वर्षों से देश की सुरक्षा और नीति-निर्माण के संदर्भ में उठाया जाता रहा है।
द नैरेटिव पहले भी इस विषय पर कई विस्तृत रिपोर्टें प्रकाशित कर चुका है, जिनमें कांग्रेस और माओवादी संगठनों के बीच एक अनकहे, अदृश्य लेकिन प्रभावशाली संबंधों की बात सामने आती रही है।

इस चर्चा के केंद्र में एक बार फिर सोनिया गांधी और उनके नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (NAC) है। आरोप यह है कि यह परिषद नक्सलियों के खिलाफ चल रहे अभियानों को कमजोर करने और नीति-निर्माण पर ऐसे प्रभाव डालने में सक्रिय रही, जिससे देश की आंतरिक सुरक्षा को गंभीर नुकसान पहुँचाया गया।
दंतेवाड़ा नरसंहार और NAC की भूमिका
अप्रैल 2010 में दंतेवाड़ा में माओवादियों ने CRPF के 76 जवानों की हत्या कर दी थी, यह अब तक का सबसे बड़ा नक्सली हमला था। देश के भीतर गुस्सा और सदमा गहरा था, और उम्मीद यह थी कि सरकार इस वारदात के बाद कठोर निर्णय लेगी।

लेकिन इसी घटना के कुछ हफ्तों बाद, जून 2010 में NAC की बैठक में सोनिया गांधी की मौजूदगी में माओवादी विरोधी अभियानों की रणनीति पर सवाल खड़े किए गए।
उपलब्ध सार्वजनिक स्रोतों के अनुसार, परिषद ने सरकार की "Iron Fist" नीति की आलोचना की और सुरक्षा-संचालन की बजाय विकास आधारित दृष्टिकोण पर जोर देने का सुझाव रखा।

आलोचकों का कहना है कि यह रुख उस समय माओवादियों के लिए राहत साबित हुआ। सुरक्षा एजेंसियों के कई प्रस्ताव ठंडे बस्ते में चले गए, और नक्सल गतिविधियाँ और निर्भीक हो उठीं। यही संदर्भ #CongressNaxalNexus बहस को और तीखा बनाता है।
रेड कॉरिडोर का फैलाव और कांग्रेस शासन पर आरोप
2007 से 2013 के बीच नक्सल हिंसा अपने चरम पर थी। गृह मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक, इसी अवधि में सबसे अधिक बड़े हमले हुए, और इनमें सैकड़ों सुरक्षाबलों व नागरिकों की जान गई।

2013 तक तथाकथित “रेड कॉरिडोर” 11 राज्यों के 182 जिलों तक फैल चुका था। प्रभावित आबादी देश की कुल जनसंख्या का लगभग 30 प्रतिशत थी।
आलोचकों का तर्क है कि जब नक्सली हिंसा बढ़ रही थी, तब कांग्रेस नेतृत्व बातचीत की नीति पर अड़ा रहा, जबकि सुरक्षा एजेंसियाँ लगातार मजबूत कार्रवाई की मांग कर रही थीं। यह सिर्फ नीति की गलती नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति के रूप में देखा गया, जिसमें NAC की भूमिका सबसे अधिक प्रश्नों के घेरे में है।

बिनायक सेन, NAC और सलवा जुडूम विवाद
माओवाद से जुड़े संबंधों की चर्चा में बिनायक सेन का मामला हमेशा सामने आता है। राज्य सरकार द्वारा नक्सलियों से सांठगांठ के आरोप में गिरफ़्तार होने और सजा मिलने के बावजूद, कुछ ही समय बाद उनका नाम योजना आयोग की स्वास्थ्य समिति में दिखा। राजनीतिक गलियारों में इसे NAC के प्रभाव का परिणाम बताया गया।

इसी तरह सलवा जुडूम, जो वनवासी समुदायों का वह स्थानीय आंदोलन जिसने नक्सलियों को खुलकर चुनौती दी थी, उसे 2011 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर समाप्त कर दिया गया। कथित तौर पर मानवाधिकार चिंताओं के चलते यह निर्णय लिया गया, लेकिन इस आदेश का व्यावहारिक असर यह रहा कि जमीनी स्तर पर नक्सल विरोध कमजोर हो गया।

ध्यान देने वाली बात यह भी है कि इस निर्णय देने वाले जज सुदर्शन रेड्डी को इसी वर्ष विपक्षी गठबंधन द्वारा उपराष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया गया। यह संबंध बहस को और संवेदनशील बना देता है।
झीरम घाटी हमला: भीतर की दरारें
2013 का झीरम घाटी हमला देश के राजनीतिक इतिहास की भयावह घटनाओं में से एक है। नक्सलियों ने कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला कर कई शीर्ष नेताओं की हत्या कर दी। इसमें महेंद्र कर्मा भी शामिल थे, वही नेता जिन्होंने सलवा जुडूम को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

मीडिया रिपोर्ट्स में यह धारणा बनी कि जिन नेताओं ने NAC की नीतियों पर सवाल उठाए थे, वही इस हमले में मुख्य निशाने पर थे। यह घटना कांग्रेस और नक्सलियों के संबंधों पर उठ रहे सवालों को और जटिल बनाती है।
सोनिया गांधी और “सुपर पीएम” की बहस
मनमोहन सिंह सरकार के दौरान NAC को एक समानांतर शक्ति केंद्र माना जाता था। कई रणनीतिक फैसलों और सामाजिक नीतियों पर इस परिषद की पकड़ स्पष्ट दिखाई देती थी।

NAC नक्सलियों को लाभ पहुँचाने वाली नीतियों का प्रमुख मंच बना, और सोनिया गांधी इसकी शीर्ष संचालक के रूप में केंद्रीय भूमिका निभा रही थीं। इसी संदर्भ में “सुपर पीएम” शब्द का इस्तेमाल हुआ, जिसका आशय यह था कि निर्णायक ताकत प्रधानमंत्री कार्यालय नहीं, बल्कि NAC में केंद्रीकृत हो गई थी।
नक्सलवाद से मुक्ति और जवाबदेही का प्रश्न
आज जब देश नक्सलवाद को जड़ से खत्म करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है, तब स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि जिन नीतियों ने इस हिंसा को बढ़ाया, उनका राजनीतिक और नैतिक हिसाब कौन देगा? क्या कांग्रेस और सोनिया गांधी कभी इस अध्याय पर स्पष्ट जवाब देंगी?

#CongressNaxalNexus ट्रेंड ने इस बहस को फिर राष्ट्रीय स्तर पर ला दिया है। यह सिर्फ राजनीतिक आरोप का मामला नहीं है, बल्कि देश की सुरक्षा, नीति-निर्माण और संस्थागत जवाबदेही से जुड़ा प्रश्न है।
नक्सलवाद का उन्मूलन तभी संभव है जब नीतियों और नेताओं की भूमिका तथ्यात्मक रूप से सामने आए, और जिनकी वजह से देश को कीमत चुकानी पड़ी, उन्हें जिम्मेदार ठहराया जाए।