
दिसंबर 2000 में माओवादियों-नक्सलियों द्वारा PLGA (People’s Liberation Guerrilla Army) की स्थापना के बाद से आज 2025 तक आते-आते यह आतंकी संगठन, जिसने स्वयं को “जनता की मुक्ति” का वाहक कहा था, ज़मीनी हकीकत में अपने ही बनाए आतंक और मौत के भूले-भटके शवों के ढेर तक सीमित रह गया है।
धुंधली शुरुआत, हिंसा, बस्तर में भय और फिर गमन-शून्य जंगलों में छुपे कमजोर अफवाहों की कहानियों को मैंने पिछले करीब डेढ़ वर्षों से बस्तर की यात्रा कर वहाँ के वन्य इलाके, गांव, जंगल, पीड़ित परिवार, सुरक्षा बलों के ऑब्जर्वेशन पोस्ट और चारों तरफ बिखरी त्रासदियों को अपने नोटबुक में दर्ज किया है।
आज, जब देश की सुरक्षा एजेंसी, मीडिया, स्थानीय प्रशासन और राजनीतिक नेतृत्व यह दावा कर रहे हैं कि PLGA का पतन हो रहा है, तब मैं उन दावों की जमीनी सच्चाई को सामने लाने की ज़िम्मेदारी महसूस करता हूँ।
दरअसल PLGA की नींव (और उससे पहले PGA) की शुरुआत कोय्यूर एनकाउंटर की याद में की गई थी। लेकिन असलियत में यह केवल एक हिंसात्मक संगठन की शुरुआत थी। इसे लेकर “साम्राज्यवाद, सामंती और पूंजीवादी ढांचे” को ध्वस्त करने और “नयी लोकतांत्रिक क्रांति” लाने का दावा किया गया था।
उस समय संगठन के झंडे पर हथौड़ा-हंसिया के ऊपर बंदूक थी, जो प्रतीक था कि वे बन्दूक और हिंसा के ज़रिए ही राज्य व्यवस्था बदलने की कोशिश करेंगे, वैसे बदलने की नहीं, बल्कि छीनने की कोशिश करेंगे।

लेकिन “जनता के जीवन में उतरने” और “वंचितों का पक्ष लेने” के वादों के पीछे, असल में गांवों में डर, अनिश्चितता और खौफ की राजनीति पनप रही थी।
मेरे स्वयं के अनुभव में वन्य-ग्रामों में PLGA ने कभी सामाजिक न्याय नहीं दिया, बल्कि भय, जबरन वसूली, हथियारबंद भर्ती की और कई बार तो निर्दोषों की हत्या भी कर दी। जिन युवाओं को “सैनिक” और “कमांडर” बनाकर दिखाया गया, उन्हें हिंसा, विस्फोट और मौत के नाम पर छलने में माओवादी संगठन लगा रहा।
PLGA और उससे जुड़े माओवादी-नक्सली गिरोहों ने 2000 के दशक में कई बड़े और खूनी हमले किए, जिनका असर न सिर्फ सुरक्षा बलों बल्कि आम नागरिकों पर हुआ। मेरी कई फील्ड यात्राओं में अधिकारियों, गाँव वालों, बचाव दलों, पुलिस बलों, मृतकों के परिजनों और घायलों से बातचीत हुई।

इन बातचीतों के आधार पर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि माओवादी जिन "जनजातियों" और ग्रामीणों की रक्षा का दावा करते हैं, वह सरासर झूठ और आडंबर का नैरेटिव है। सच्चाई यही है कि माओवादियों ने वास्तव में उन्हीं जनजातीय ग्रामीणों का सबसे अधिक शोषण किया है।
अबूझमाड़, बस्तर - यह वह इलाका है जहाँ PLGA और माओवादी मिलिशिया ने पहली बार बड़ी संख्या में अपना गढ़ बनाया। स्थानीय पाठ्यक्रम, स्कूल-मीटिंग, पंचायत गतिविधियों पर कब्ज़ा, ग्रामीणों से जबरन चर्चा और धमकियाँ आम बात हो गई थीं। अबूझमाड़ के पास उस समय दर्जनों व्यक्ति गायब हुए, कुछ नक्सल गतिविधियों के बहाने अगवा हुए, कुछ की बाद में लाशें मिलीं। उन परिवारों को न तो न्याय मिला, न कोई मुआवज़ा।
जगरगुंडा - इसे PLGA का एक बड़ा गढ़ माना जाता था। इस क्षेत्र को माओवादियों की उप-राजधानी भी कहते थे। यहाँ गाँवों के लोगों की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी हथियारों, डर, वसूली और लाल अदालतों की चपेट में थी। कई बार स्थानीय प्रधान, स्कूल शिक्षक, स्वास्थ्य कार्यकर्ता जिन्हें सरकार भेजती थी, उन्हीं को भागना पड़ता था। बच्चों का स्कूल आना बंद हो गया था।
सुकमा बस हमला - यह हमला 2010 में हुआ था। जब एक बस में बस्तर के स्थानीय नागरिक सफर कर रहे थे और PLGA के माओवादियों ने IED विस्फोट करके लोगों को निशाना बना दिया। 31 लोग इस हमले में मारे गए थे। जितने भी घायल बचे, वे लंबे समय तक अस्पतालों में रहे, गाँव में बच्चों-बुज़ुर्गों में भय का माहौल बन गया। जब मेरी इस हमले में घायल हुए जनजातीय युवक महादेव दुधी से बात हुई, तब उसने बताया कि कैसे उस घटना ने हमेशा के लिए उसे विकलांग कर दिया। उसने इस आतंकी हमले में हमेशा के लिए अपना एक पैर खो दिया।

इन घटनाओं में न सिर्फ सुरक्षा बलों को बल्कि नागरिकों, वनवासियों, मजदूर, किसानों को भी निशाना बनाया गया। मैंने कई घायलों और पीड़ित परिवारों से बातचीत की, उन बच्चों, महिलाओं, बुज़ुर्गों की आवाज़ जो “रंग और विचारधारा” से ऊपर, बस जीवित रहना चाहती थीं।
दशकों तक का रक्त-सैलाब: आँकड़े बोलते हैं
माओवादी आतंकी संगठन के हिंसात्मक इतिहास को समझने के लिए मात्र घटनाओं की सूची पर्याप्त नहीं होती। लेकिन आँकड़ों में भी PLGA के खतरनाक स्वरूप की पूरी तस्वीर मिलती है।
उदाहरण के लिए, South Asia Terrorism Portal (SATP) के डेटा के अनुसार, 2005 में माओवादी हिंसा में 259 नागरिक मारे गए, 147 सुरक्षा बल के जवान बलिदान हुए और 282 नक्सली मारे गए थे।
वही आंकड़ा 2009 में 1,013 (368 नागरिक, 319 सुरक्षा बल, 314 नक्सली) तक पहुँचा। 2010 में यह 1,180 हुआ, जिसमें 630 नागरिक मारे गए। यह वह साल था जब PLGA का माओवादी आतंक सबसे अधिक था।

लेकिन 2014 के बाद धीरे-धीरे यह संख्या घटने लगी। यह गिरावट सिर्फ सांख्यिकीय नहीं, जमीन की बदलती सच्चाई का भी संकेत थी। जहाँ 2000 के दशक में गुज़र-बसर नामुमकिन था, वहाँ 2015 के बाद धीरे-धीरे स्कूल, सड़क, विकास, रोजगार, प्रशासनिक पहुँच, सुरक्षात्मक पहलुओं ने भू-भाग बदलना शुरू कर दिया।
पिछले डेढ़ वर्षों में मैंने बस्तर में दर्जनों गांवों, क्षेत्रों का दौरा किया, और वहाँ स्थानीय लोगों से चर्चा की, जिसमें हर बार एक बात सामने आई कि पहले जहाँ नक्सल संगठन को “वंचित जनजातियों का आंदोलन” कहा जाता था, आज वहीं की जमीन पर लोगों का साझा कहना है कि “यह बंदूकें हमें नहीं बचातीं, बल्कि मार डालती हैं।”
एक बुज़ुर्ग नक्सल पीड़ित महिला, जिसे मैंने दोरनापाल में सुना, उसने कहा कि “पहले वे कहते थे कि वे हमारे लिए लड़ रहे हैं। लेकिन उन्होंने हमारी जमीनें छीनी, हमारे जंगलों से हमें ही भगा दिया, हमारे गाँव के बेटे और बेटियाँ उठा लिए, और अब बचा है सिर्फ डर। स्थिति ऐसी है कि वर्षों से हम अपने गाँव नहीं जा पाए हैं।”

आज स्कूलों में शिक्षकों की वापसी, बच्चों का पढ़ना, स्वास्थ्य शिविर, सड़कों की मरम्मत, सरकारी योजनाओं का लाभ, इन सब ने धीरे-धीरे PLGA और माओवादी संगठन की “जनता की सेना” की धारणाओं को मिटा दिया है। विकास के साथ, लोगों ने समझ लिया कि असली मुक्ति बंदूक से नहीं, स्कूल से, अस्पताल से, सड़क से और काम से आती है।
कभी वो दौर था जब वर्ष 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंघ ने कहा था कि नक्सली विद्रोह “भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है।” लेकिन 2025 आते-आते वही विद्रोह, वही विचारधारा, अपनी राजनीतिक शक्ति, जन-आधार और क्षेत्रीय पकड़, तीनों खो चुकी है।
छत्तीसगढ़ पुलिस और अन्य सुरक्षा एजेंसी की संयुक्त कार्रवाइयों, ड्रोन निगरानी, सड़कों, संपर्क नेटवर्क, विकास योजनाओं और नागरिकों की भागीदारी ने मिलकर PLGA की जंगलों में छुपने की रणनीति पर रोक लगा दी है।

सरकार ने 2024–25 में स्पष्ट कर दिया है कि न केवल माओवादी आतंकवाद का दमन होना है, बल्कि विकास, संविधान, स्थानीय शासन और सुशासन, इन आधारों पर भरोसा भी कायम किया जायेगा।
आज, जब मैं उन जंगलों से निकल कर छत्तीसगढ़ की राजधानी लौटता हूँ, तब वो पुराने माओवादी बैनर, वो लाल झंडा, वो बंदूकें, सब कमजोर पड़ चुके हैं। PLGA और माओवाद-नक्सलवाद के नाम पर जो भय था, वो अब खत्म हो चुका है।
आज PLGA की 25वीं वर्षगांठ पर यदि कोई जश्न हो रहा है, तो वह जश्न उसकी असफलता, उसकी हिंसा, उसके गिरते जन-आधार और उसकी मृत्यु-डोर तले दबते लाखों जीवन का है। वह तथाकथित आंदोलन जिसने कभी लोकतंत्र को ख़त्म कर “माओतंत्र वाला भारत” गढ़ने का दावा किया था, आज अपने अंत की ओर ढल चुका है।

पर यह कहानी सिर्फ उनकी विफलता की नहीं, भारत की एक बड़ी जीत की भी है, लोकतंत्र के जीत की है और इस जीत को विकास, सुरक्षा, सुशासन, और नागरिक-समर्थन के माध्यम से हासिल किया गया है। उन गाँवों, जंगलों, वनवासी क्षेत्रों में, जहाँ कभी बन्दूकों की गूंज थी, आज स्कूल चलते हैं, सड़कें खुल चुकी हैं, बच्चे पढ़ते हैं, अस्पताल हैं और बेहतर भविष्य की उम्मीद है।
PLGA अब इतिहास बनने वाला है। उसकी जगह नागरिकों की आवाज़, लोकतंत्र और विकास ने ले लिया है। यह 25 सालों की हिंसा, नफरत और नरसंहारों का अंत है, और एक ऐसे भारत की शुरुआत है, जहाँ बंदूक नहीं, विश्वास ही जनता की असली ताकत है।