माओवादी हिंसा को लंबे समय तक जंगलों, पहाड़ियों और हथियारबंद दस्तों तक सीमित मानने की प्रवृत्ति रही है। लेकिन बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के एक अहम आदेश ने इस धारणा को फिर चुनौती दी। प्रतिबंधित CPI (माओवादी) संगठन के लिए युवतियों को प्रभावित करने और भर्ती कराने की आरोपी महिला अधिवक्ता की जमानत याचिका खारिज करते हुए शीर्ष अदालत ने न केवल आरोपों की गंभीरता को रेखांकित किया, बल्कि माओवाद के उस शहरी समर्थन तंत्र की ओर भी ध्यान खींचा, जो बिना हथियार उठाए विचारधारा, नेटवर्क और सामाजिक आवरण के ज़रिये काम करता है।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की दलीलों को स्वीकार करते हुए कहा कि मामला गंभीर आरोपों से जुड़ा है और चूंकि ट्रायल अंतिम चरण में है, इसलिए इस स्तर पर ज़मानत देने का कोई आधार नहीं बनता।
अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि मुकदमे को अधिकतम चार महीने के भीतर तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचाया जाए। यह टिप्पणी केवल एक अभियुक्त तक सीमित नहीं है, बल्कि माओवादी नेटवर्क के उस शहरी चेहरे पर भी सीधा संकेत है, जो खुद को सामाजिक कार्य, मानवाधिकार या कानूनी सहायता के आवरण में प्रस्तुत करता रहा है।
इस मामले की आरोपी चुक्का शिल्पा, एक प्रैक्टिसिंग हाईकोर्ट अधिवक्ता हैं, जिन्हें जून 2022 में हैदराबाद स्थित उनके आवास से गिरफ्तार किया गया था।
एनआईए के अनुसार, शिल्पा ‘चैतन्य महिला संघम’ (CMS) की सक्रिय सदस्य थीं, जिसे एजेंसी ने प्रतिबंधित CPI (माओवादी) का फ्रंटल संगठन बताया है। एजेंसी का आरोप है कि CMS का उद्देश्य सीधे हथियारबंद संघर्ष नहीं था, बल्कि शहरी और अर्ध-शहरी इलाकों में युवतियों को चिन्हित करना, उन्हें वैचारिक रूप से प्रभावित करना और फिर चरणबद्ध तरीके से माओवादी संगठन तक पहुंचाना था।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में विशेष रूप से इस तथ्य को रेखांकित किया कि आरोप केवल संगठनात्मक सदस्यता तक सीमित नहीं हैं, बल्कि युवतियों के कट्टरपंथीकरण और भर्ती से जुड़े हैं। अदालत ने माना कि ऐसे मामलों में ज़मानत का प्रश्न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता का नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और समाज पर पड़ने वाले दीर्घकालिक प्रभावों का भी है। एनआईए की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एसडी संजय ने अदालत को बताया कि ट्रायल तेज़ी से आगे बढ़ रहा है और इसके अगले तीन महीनों में पूरा होने की संभावना है।
इस प्रकरण की पृष्ठभूमि वर्ष 2017 से जुड़ी है, जब आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम ज़िले के पेड्डाबयालु थाना क्षेत्र में एक नर्सिंग छात्रा राधा के लापता होने की शिकायत दर्ज कराई गई थी। राधा की मां ने आरोप लगाया था कि उनकी बेटी को सामाजिक कार्य और सहायता के बहाने CMS से जुड़े लोगों ने अपने प्रभाव में लिया और बाद में उसे माओवादी संगठन में धकेल दिया गया।
एनआईए की जांच के अनुसार, दिसंबर 2017 में राधा को किसी बीमार व्यक्ति को चिकित्सा सहायता दिलाने के बहाने घर से ले जाया गया, जिसके बाद वह वापस नहीं लौटी।
दिसंबर 2022 में दाखिल चार्जशीट में एनआईए ने दावा किया कि CMS एक संगठित फीडर संगठन की तरह काम कर रहा था। इसके सदस्य शिक्षा, स्वास्थ्य और महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दों के ज़रिये युवतियों से संपर्क बनाते, उन्हें राज्य और समाज के खिलाफ कथित अन्याय की कहानियां सुनाते और धीरे-धीरे हिंसक क्रांति की विचारधारा की ओर मोड़ते थे। चार्जशीट में यह भी कहा गया है कि राधा अकेली मामला नहीं थी और कई अन्य युवतियों को भी इसी तरह भर्ती करने की कोशिश की गई।
यह मामला इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह ‘अर्बन नक्सल’ नेटवर्क के उस चेहरे को सामने लाता है, जिसे सुरक्षा एजेंसियां लंबे समय से रेखांकित करती रही हैं।
जंगलों में चल रहे अभियानों के समानांतर माओवादी संगठन शहरों में वकीलों, शिक्षाविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और सांस्कृतिक समूहों के जरिये अपनी पैठ बनाने की कोशिश करते रहे हैं। इन नेटवर्कों का काम सीधे हिंसा करना नहीं, बल्कि वैचारिक जमीन तैयार करना, संसाधन जुटाना और नए कैडर विकसित करना होता है।
शिल्पा की जमानत याचिका इससे पहले मई 2024 में एनआईए स्पेशल कोर्ट ने खारिज कर दी थी। मार्च 2025 में आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने भी शिल्पा और सह-आरोपी डोंगरी देवेंद्र को ज़मानत देने से इनकार कर दिया था। हाईकोर्ट ने एनआईए की चार्जशीट, राधा के परिवार के बयानों और अन्य साक्ष्यों के आधार पर कहा था कि प्रथम दृष्टया आरोप गंभीर हैं और अभियुक्तों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा आदेश इसी कड़ी का अगला चरण है। यह संकेत देता है कि अदालतें अब ऐसे मामलों में अभियुक्त की सामाजिक पहचान या पेशे के आधार पर नरमी बरतने को तैयार नहीं हैं। अधिवक्ता होना या सामाजिक संगठन से जुड़ा होना, कानून की नज़र में ढाल नहीं बन सकता, यदि आरोप राष्ट्र की सुरक्षा और युवाओं के भविष्य से जुड़े हों।
यह मामला एक बार फिर यह रेखांकित करता है कि माओवादी हिंसा के खिलाफ लड़ाई केवल जंगलों तक सीमित नहीं रह सकती। जब तक शहरी इलाकों में सक्रिय वैचारिक सूत्रधारों, रिक्रूटर्स और लॉजिस्टिक सपोर्ट सिस्टम पर सख़्ती नहीं होगी, तब तक माओवाद की जड़ें पूरी तरह नहीं कटेंगी। एनआईए की जांच और सुप्रीम कोर्ट का रुख इसी दिशा में एक स्पष्ट संदेश देता है।
आज, जब कई राज्यों में सुरक्षा बल माओवादी प्रभाव को निर्णायक रूप से कम करने में सफल रहे हैं, तब शहरी नेटवर्क पर कार्रवाई और भी अहम हो जाती है। चुक्का शिल्पा का मामला केवल एक व्यक्ति तक सीमित नहीं है; यह उस पूरे तंत्र की झलक है, जो कानून, सामाजिक सेवा और वैचारिक बहसों की आड़ में हिंसक विचारधाराओं को खाद-पानी देता है।
सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश केवल एक कानूनी निर्णय नहीं, बल्कि एक व्यापक संदेश भी है कि लोकतंत्र में असहमति की जगह है, लेकिन हिंसक क्रांति के लिए युवाओं को बहकाने और प्रतिबंधित संगठनों को मजबूत करने की कोई गुंजाइश नहीं। माओवाद का शहरी चेहरा अब उतनी ही स्पष्टता से सामने आ रहा है, जितना उसका जंगलों में सक्रिय सशस्त्र चेहरा।