रायपुर (द नैरेटिव वर्ल्ड): छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में नक्सलवाद के खिलाफ चल रही निर्णायक कार्रवाई ने माओवादियों की कमर तोड़ दी है। हाल ही में छत्तीसगढ़-तेलंगाना सीमा के कर्रेगुट्टा इलाके में सुरक्षाबलों द्वारा चलाए गए व्यापक अभियान में कई वांछित नक्सली मारे गए, जिनमें कई बड़े नाम भी शामिल हैं। यह अभियान बस्तर को स्थायी रूप से नक्सल मुक्त बनाने की दिशा में सबसे बड़ा कदम माना जा रहा है।
बीते चार दशकों से नक्सल आतंक से पीड़ित बस्तरवासियों ने राज्यपाल और मुख्यमंत्री को संबोधित ज्ञापनों में इस अभियान को बिना किसी बाहरी दबाव के जारी रखने की मांग की है। उन्होंने न केवल सुरक्षाबलों की कार्रवाई का स्वागत किया, बल्कि उन तथाकथित बुद्धिजीवियों और एनजीओ पर भी गहरा आक्रोश जताया है, जो नक्सलियों की ढाल बनने की कोशिश कर रहे हैं।
आपको बता दें कि ये वही नक्सल पीड़ित बस्तरवासी हैं, जिन्होंने पिछले वर्ष दिल्ली जाकर नक्सलवाद के खिलाफ आवाज बुलंद की थी। इन्होंने वहाँ महामहिम राष्ट्रपति और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जी से मुलाकात कर अपनी दशकों पुरानी पीड़ा साझा की थी। उस समय भी इन्होंने नक्सलवाद और शहरी नक्सल समर्थकों की भूमिका को उजागर करते हुए सख्त कार्रवाई की मांग की थी।
जब ये बस्तरवासी राज्यपाल से मिल रहे थे, तब एक दिव्यांग नक्सल पीड़ित — जो न देख सकता है और न चल सकता है — ने अपनी व्यथा साझा की। इस पर राज्यपाल ने उसे शीघ्र ही रायपुर AIIMS में इलाज का आश्वासन दिया। साथ ही राज्यपाल ने बस्तरवासियों को यह भरोसा भी दिलाया कि नक्सलियों का सफाया जल्द ही सुनिश्चित किया जाएगा।
PUCL, NAPM, CDRO और PUDR जैसी संस्थाओं पर आरोप लगाए गए हैं कि वे बेला भाटिया जैसे कथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के माध्यम से बस्तर के भोले-भाले जनजातियों को भ्रमित कर माओवाद के प्रति सहानुभूति पैदा करने का षड्यंत्र कर रही हैं। हैरानी की बात यह है कि इन संस्थाओं ने कभी नक्सली हिंसा के शिकार मासूम ग्रामीणों, अगवा बच्चों, मारे गए शिक्षकों और स्वास्थ्यकर्मियों के लिए कोई संवेदना नहीं जताई, लेकिन अब नक्सली नेताओं की सुरक्षा के लिए प्रेस कांफ्रेंस और पत्राचार कर रही हैं।
ज्ञापन में यह भी कहा गया है कि एक दौर ऐसा था जब ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों को जबरन नक्सली संगठन में भर्ती किया जाता था, युवाओं को बंदूक थमाकर हिंसा में झोंका जाता था और विरोध करने वालों की निर्ममता से हत्या की जाती थी। माओवादी विचारधारा ने न केवल बस्तर की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था को तहस-नहस किया, बल्कि क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान पर भी हमला बोला।
हालांकि, केंद्र और राज्य सरकार के समन्वित प्रयासों, तथा सुरक्षाबलों की सटीक रणनीतियों के चलते अब हालात तेजी से बदल रहे हैं। बस्तर ओलंपिक, बस्तर पंडुम जैसे आयोजनों में स्थानीय लोगों की बढ़ती भागीदारी, सड़कों, स्कूलों और स्वास्थ्य केंद्रों का विकास और व्यापारिक गतिविधियों का पुनरारंभ — इन सभी ने यह सिद्ध कर दिया है कि बस्तर नक्सलवाद से उबर रहा है।
लेकिन इस निर्णायक मोड़ पर जब कर्रेगुट्टा ऑपरेशन जैसी बड़ी कार्रवाई चल रही है, कुछ शहरी नक्सल समर्थक इसे विफल करने की कोशिश में जुटे हैं। इस स्थिति में बस्तरवासियों ने एकजुट होकर मांग की है कि सरकार न सिर्फ ऑपरेशन को जारी रखे, बल्कि नक्सल समर्थकों और उनके शहरी नेटवर्क पर भी सख्त कार्रवाई करे। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि ऐसे लोगों पर UAPA जैसे कठोर कानून के तहत कार्रवाई की जानी चाहिए।
बस्तर की आत्मा सह-अस्तित्व, संस्कृति और प्रकृति से जुड़ी है। नक्सलवाद इस आत्मा पर एक सुव्यवस्थित हमला है। जब तक इसका पूर्ण उन्मूलन नहीं होगा, तब तक बस्तर की असली मुक्ति संभव नहीं। इसीलिए, यह समय निर्णायक है — न सिर्फ बंदूकधारी माओवादियों से बल्कि उन्हें वैचारिक और कानूनी ढाल देने वालों से भी मुक्ति का।
बस्तर आज निर्णायक युद्ध के मोर्चे पर है, और इस युद्ध में देश को एकजुट होकर नक्सलियों और उनके शहरी संरक्षकों के खिलाफ खड़ा होना होगा।