जनजातियों की संस्कृति को नष्ट कर ज़मीन पर कब्जे का षड्यंत्र, बस्तर में जबरन शव दफनाने का विवाद

क्या जबरन शव दफनाने की आड़ में जनजातीय जमीन हड़पने की साजिश रच रहे हैं ईसाई समूह?

The Narrative World    16-May-2025   
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छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग के भीतर आने वाले कांकेर जिले के हवेचूर गांव में एक बार फिर ईसाई समूह की साजिश ने जनजाति समुदाय की संस्कृति और परंपराओं पर हमला बोला है। 54 वर्षीय अंकालू पोटाई की बीमारी से मौत के बाद उनके परिवार ने शव को ईसाई रीति-रिवाज दफनाने का फैसला किया। अंकालू ने कुछ समय पहले ईसाई धर्म अपना लिया था। लेकिन गांव के स्थानीय जनजाति ग्रामीणों ने इसका कड़ा विरोध किया।
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हवेचूर गांव में अंकालू पोटाई की मौत के बाद उनके परिवार ने ईसाई रीति-रिवाजों के अनुसार शव को दफनाने की तैयारी शुरू की। लेकिन गांव के जनजाति समुदाय, जो अपनी परंपराओं को पवित्र मानते हैं, ने इसका सीधा विरोध किया। उनका कहना है कि गांव की ज़मीन पर ईसाई रीति-रिवाज से शव को दफनाना उनकी सांस्कृतिक मान्यताओं का अपमान है।
 
रिपोर्ट लिखे जाने तक शव को दफनाने की अनुमति नहीं दी गई, और गांव में तनाव बना हुआ है। स्थानीय प्रशासन ने अतिरिक्त पुलिस बल तैनात किया है, लेकिन यह घटना उसी बड़े खतरे की ओर इशारा करती है जिसके तहत ईसाई समूह जनजातियों की सांस्कृतिक पहचान को मिटाने और उनकी ज़मीन पर कब्जा करने की साजिश रच रहा है।
 
यह कोई पहला मामला नहीं है। छत्तीसगढ़ के बस्तर और कांकेर जैसे जनजातीय बहुल क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियों की सक्रियता लंबे समय से विवाद का कारण बनी हुई है। तथाकथित मानवाधिकार समूह इस मुद्दे को मानवीय गरिमा से जोड़ रहा है, लेकिन असल सवाल यह है कि क्या यह गरिमा दूसरों की संस्कृति को नष्ट करने की कीमत पर हासिल की जानी चाहिए? हवेचूर गांव की घटना दिखाती है कि ईसाई समूह न केवल जनजातीय समाज को कन्वर्ज़न के लिए मजबूर कर रहा है, बल्कि उनकी परंपराओं को कुचलते हुए उनकी ज़मीन पर कब्जा करने की साजिश भी रच रहा है।
 
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जनजातीय समुदायों की सांस्कृतिक पहचान उनकी परंपराओं और ज़मीन से गहरे जुड़ी हुई है। उनके लिए मृतकों का अंतिम संस्कार एक पवित्र प्रक्रिया है, जो सदियों से चली आ रही है। लेकिन ईसाई समूह इस सांस्कृतिक धरोहर को नष्ट करने पर तुला हुआ है। हवेचूर गांव में शव को जबरन दफनाने की कोशिश इस बात का सबूत है कि यह समूह जनजातीय समाज की ज़मीन पर अपना दावा ठोकना चाहता है।
 
एक बार शव को दफनाने की अनुमति मिल गई, तो यह एक प्रथा बन जाएगी, और धीरे-धीरे गांव की ज़मीन पर ईसाई समुदाय का कब्जा बढ़ता जाएगा। यह एक सुनियोजित रणनीति है, जिसमें पहले कन्वर्ज़न कराया जाता है, फिर सांस्कृतिक प्रथाओं को बदला जाता है, और अंत में ज़मीन पर कब्जा किया जाता है।
 
हवेचूर गांव के ग्रामीणों का कहना है कि अगर शव को दफनाने की अनुमति दी गई, तो यह उनकी परंपराओं का अंत होगा। एक स्थानीय जनजातीय ग्रामीण ने कहा, "हमारी ज़मीन और संस्कृति हमारी पहचान है। ईसाई समूह हमें हमारे ही गांव में पराए बना देना चाहता है। यह हम बर्दाश्त नहीं करेंगे।"
 
ईसाई समूह की यह रणनीति नई नहीं है। छत्तीसगढ़ में लंबे समय से मिशनरी गतिविधियों पर सवाल उठते रहे हैं। कई संगठन गरीबी और अशिक्षा का फायदा उठाकर जनजातीय ग्रामीणों को प्रलोभन देकर कन्वर्ज़न के लिए मजबूर करते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, और आर्थिक मदद के नाम पर उन्हें अपनी सांस्कृतिक जड़ों से काटा जा रहा है।
हवेचूर गांव की घटना इस बात का सबूत है कि यह समूह अब खुले तौर पर जनजातीय परंपराओं को चुनौती दे रहा है। शव को जबरन दफनाने की कोशिश न केवल एक परिवार का मसला है, बल्कि यह एक सुनियोजित साजिश का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य जनजातियों की पहचान को मिटाना और उनकी ज़मीन पर कब्जा करना है।
 
जनजातीय मामलों के विशेषज्ञ और सामाजिक कार्यकर्ता जयराम दास का कहना है, "ईसाई समूह की यह साजिश जनजातियों की सांस्कृतिक पहचान को खत्म करने की कोशिश है। कन्वर्ज़न के बाद शव को दफनाने की मांग एक सोची-समझी रणनीति है, जिसका मकसद उनकी ज़मीन पर कब्जा करना है। इस पर तुरंत रोक लगनी चाहिए, वरना जनजातीय समुदाय अपनी पहचान खो देगा।" दास की यह बात इस मामले की गंभीरता को रेखांकित करती है।
 
हवेचूर गांव का यह विवाद सिर्फ एक छोटी घटना नहीं है, बल्कि यह एक बड़े खतरे की ओर इशारा करता है। अगर इस साजिश को रोका नहीं गया, तो आने वाले दिनों में छत्तीसगढ़ के जनजातीय क्षेत्रों में और बड़े टकराव देखने को मिल सकते हैं। यह समय है कि जनजातीय समाज इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करें, और अपनी सांस्कृतिक पहचान और उनकी ज़मीन को बचाने के लिए ठोस कदम उठाएं। ईसाई समूह की इस साजिश को बेनकाब करना और उसे रोकना अब बेहद ज़रूरी है, वरना जनजातीय समाज अपनी सांस्कृतिक धरोहर को हमेशा के लिए खो देगा।