देश के सबसे बड़े नक्सल प्रभावित इलाकों में शामिल छत्तीसगढ़ के बीजापुर ज़िले में हाल ही में चला 'नक्सल उन्मूलन ऑपरेशन’, सुरक्षा बलों द्वारा अब तक का सबसे लंबा, गहन और चुनौतीपूर्ण नक्सल-विरोधी अभियान माना जा रहा है।
21 दिनों तक चले इस सैन्य अभियान में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF), छत्तीसगढ़ पुलिस, डीआरजी और एसटीएफ की संयुक्त टुकड़ियों ने माओवादियों के रणनीतिक गढ़ माने जाने वाले कर्रेगुट्टा पहाड़ी क्षेत्र में उन्हें चारों ओर से घेर कर निर्णायक प्रहार किया।
परंतु जैसे ही अभियान समाप्त हुआ और सुरक्षाबलों की सफलता को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने ऐतिहासिक बताते हुए राष्ट्र को बधाई दी, प्रोपेगेंडा मीडिया मंच ‘द वायर’ ने अपनी पुरानी शैली में अभियान की सत्यता और इसके परिणामों पर संदेह प्रकट करते हुए रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसने सुरक्षा बलों के त्याग, रणनीति और सरकार के प्रयासों पर एक बार फिर सवालिया निशान लगाने का प्रयास किया।
तो क्या द वायर की आशंकाएं तथ्यपरक हैं या यह एक विचारधारा-प्रेरित प्रोपेगैंडा है? आइए तथ्यों से इसकी जांच करते हैं।
ऑपरेशन का भूगोल और भूचाल
छत्तीसगढ़ और तेलंगाना की सीमा से लगे बीजापुर जिले का कर्रेगुट्टा क्षेत्र लंबे समय से माओवादियों का ठिकाना रहा है। जानकारी के अनुसार, वहां के घने जंगल और दुर्गम पहाड़ियां माओवादियों के लिए एक रणनीतिक सुरक्षा कवच की तरह कार्य करती रही हैं।
सूत्रों के अनुसार, इस ऑपरेशन में करीब 25,000 सुरक्षाबलों ने मिलकर कार्य किया। मुठभेड़ें बीजापुर के पामेड़, गंगालूर, मुरदंडा, और उसुर क्षेत्र में केंद्रित रहीं। इस दौरान हुई 21 मुठभेड़ों में 31 माओवादी मारे गए, जिनमें 16 महिला वर्दीधारी भी शामिल थीं। 35 हथियार बरामद किए गए, और 214 माओवादी बंकर तथा ठिकानों को ध्वस्त किया गया। छत्तीसगढ़ पुलिस के अनुसार, 21 शवों की पहचान हो चुकी है और कई मारे गए माओवादी वरिष्ठ कैडर स्तर के थे।
छत्तीसगढ़ के एडीजी अमित कुमार ने प्रेस वार्ता में बताया, “माओवादियों के शीर्ष नेतृत्व को संगठन से अलग-थलग कर दिया गया है। वे अब खंडों में बिखर गए हैं। उनका समन्वय और लॉजिस्टिक सपोर्ट ढह चुका है।”
यह एक रणनीतिक सैन्य सफलता है। लेकिन जब इस तरह की सफलता से राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूती मिलती है, तब प्रोपेगैंडा पोर्टल्स के लिए यह खतरे की घंटी होती है, क्योंकि उनका पूरा एजेंडा “राज्य बनाम जन” के फर्जी विमर्श पर टिका होता है।
राजनीति बनाम प्रोपेगैंडा
इस बीच जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने इस अभियान को नक्सलवाद के खिलाफ निर्णायक मोड़ बताया, तब द वायर ने अपने लेख के माध्यम से सवाल उठाना शुरू किया — “टॉप कमांडर कहां गए?”, “अगर घेराबंदी थी तो नक्सली भागे कैसे?”, “गृह मंत्री ने ऑपरेशन से इंकार क्यों किया?”, “शांति वार्ता को क्यों ठुकराया गया?”
इन सभी सवालों का विश्लेषण करें तो साफ़ होता है कि पत्रकारिता की आड़ में माओवादियों के लिए सहानुभूति तैयार करने का एक वैचारिक प्रयास छिपा हुआ है।
सबसे पहला सवाल — द वायर ने पूछा कि अगर सैकड़ों माओवादी पहाड़ी पर घिरे थे तो टॉप कमांडर कहां गए? क्या यह घेराबंदी विफल रही?
इस प्रश्न में सैन्य रणनीति की न्यूनतम समझ का अभाव झलकता है। हर ऑपरेशन का लक्ष्य किसी एक व्यक्ति की हत्या नहीं होता, बल्कि शत्रु के सैन्य ढांचे को तोड़ना होता है। इस अभियान ने माओवादियों की जमीन पकड़, संसाधन जुटाने की क्षमता, और संचार नेटवर्क को तहस-नहस कर दिया।
सिर्फ यही नहीं, ऑपरेशन के दबाव में आकर माओवादियों को चार से पांच बार 'शांति वार्ता' का प्रस्ताव देना पड़ा। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि उनका मनोबल पूरी तरह टूटा है?
विशेषज्ञों के अनुसार, ऐसे सैन्य अभियानों का उद्देश्य हमेशा ‘टॉप कमांडर की हत्या’ नहीं होता, बल्कि उनकी सैन्य संरचना को ध्वस्त करना होता है। इस ऑपरेशन में माओवादियों की रसद व्यवस्था, बंकर, असलहा, संचार प्रणाली और मनोबल को एक साथ कुचलने की रणनीति अपनाई गई।
पुलिस सूत्रों के अनुसार “फ़ोर्स ने जो खोला है, वह एक मोर्चा नहीं, पूरी की पूरी जड़ है। माओवादी अब जल्दीबाज़ी में वार्ता का प्रस्ताव भेज रहे हैं, यह बड़ी जीत है।”
तेलंगाना की चुप्पी पर द वायर मौन क्यों ?
छत्तीसगढ़ की पुलिस और केंद्र सरकार ने इस ऑपरेशन को रणनीतिक योजना से सफल बनाया, लेकिन यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि तेलंगाना की पुलिस इस ऑपरेशन से लगभग गायब रही। यह जानना दिलचस्प है कि जहाँ छत्तीसगढ़ की सरकार, पुलिस और केंद्र सरकार ने समन्वय बनाकर यह अभियान चलाया, वहीं तेलंगाना की कांग्रेस सरकार की भूमिका संदिग्ध रही। तेलंगाना से लगी सीमा पर घिरे नक्सलियों को पीछे से घेरने के लिए तेलंगाना पुलिस को भी भागीदारी करनी थी। लेकिन वे ऑपरेशन से लगभग गायब रहे।
जब छत्तीसगढ़ में पुलिस-सरकार के समन्वय से पिछले डेढ़ वर्षों में 400 से अधिक माओवादी मारे जा चुके हैं, तो तालमेल की कमी का प्रश्न द वायर को कहाँ दिखता है — छत्तीसगढ़ में या तेलंगाना में?
क्या यह उचित नहीं होता कि एक राष्ट्रहित में चल रहे अभियान में सहभागी न बनने वाली राज्य सरकार से भी सवाल पूछे जाते? क्या यह तटस्थ पत्रकारिता है या राजनीतिक सुविधा के अनुसार सवाल उठाना?
गृह मंत्री का ‘इन्कार’ — रणनीति या टकराव ?
द वायर ने छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री विजय शर्मा के उस बयान को उद्धृत किया जिसमें उन्होंने कहा था कि "संकल्प नामक कोई ऑपरेशन नहीं चलाया जा रहा है।" वास्तविकता यह है कि यह सिर्फ ऑपरेशन के कोडनेम पर एक तकनीकी असहमति थी, न कि ऑपरेशन के अस्तित्व पर। गृह मंत्री ने विस्तार इसलिए नहीं दिया क्योंकि उस वक्त ऑपरेशन पूरा नहीं हुआ था।
सुरक्षा कारणों से मिड-ऑपरेशन कोई संवेदनशील जानकारी साझा नहीं की जाती। यह राजनीतिक जवाबदारी और फील्ड की रणनीति के बीच संतुलन था। इसे मतभेद या विफलता बताना द वायर की दुर्भावना को दर्शाता है, न कि किसी प्रशासनिक दोष को।
शांति वार्ता की असलियत क्या है ?
द वायर ने यह तो बताया कि माओवादी वार्ता करना चाहते हैं लेकिन सरकार सुन नहीं रही।, लेकिन यह नहीं बताया कि दो दिन पूर्व माओवादियों ने बीजापुर में पांच ग्रामीणों की हत्या कर दी, जिनमें एक शिक्षादूत और दो रसोइये भी शामिल थे। क्
या यह है वार्ता की पृष्ठभूमि? क्या ‘शांति वार्ता’ उन लोगों से होनी चाहिए जो ग्रामीणों की हत्या करते हैं, मासूम बच्चों के स्कूलों को बंकर बना लेते हैं, और जो ‘जन अदालत’ में आम नागरिकों की हत्या को ‘क्रांतिकारी न्याय’ कहते हैं?
नक्सलवाद एक सशस्त्र आतंकी आंदोलन है, यह राज्य से सत्ता हथियाने का हिंसक प्रयास है। वार्ता उनके साथ होती है जो लोकतंत्र में आस्था रखते हैं, न कि उन संगठनों से जो संविधान को ही ‘शोषण का दस्तावेज’ मानते हैं।
देश के खुफिया विश्लेषकों का कहना है कि माओवादी जब रणनीतिक रूप से कमजोर होते हैं तभी वार्ता का ‘झांसा’ देते हैं, ताकि वे फिर से संगठित हो सकें। 2004 की आंध्र-वार्ता इसका ज्वलंत उदाहरण है, जिसके बाद नक्सलियों की हिंसा दोगुनी हो गई थी।
जनता की समझदारी से ही बचेगा लोकतंत्र
‘द वायर’ जैसे मीडिया मंचों का मूल कार्य पत्रकारिता होना चाहिए, लेकिन जब पत्रकारिता झूठ की लाठी लेकर राष्ट्र-विरोधी ताक़तों की ढाल बन जाए, तब लोकतंत्र को खतरा होता है। यह अभियान कोई राजनैतिक तमाशा नहीं था।
यह उस भारत की कहानी है, जो जंगलों से संविधान के राज को स्थापित कर रहा है। जहाँ जवानों की लाशें गिरती हैं, वहाँ सवालों की तासीर बहुत संवेदनशील होनी चाहिए। पत्रकारिता तब तक मूल्यवान है जब वह सच के पक्ष में हो, न कि विचारधारा के बंधक के रूप में झूठ की पैरवी करे।