नेपाल ने जब गुरुवार को अपना 18वां गणतंत्र दिवस मनाया, तो राजधानी काठमांडू का दृश्य एक गहरे सामाजिक और राजनीतिक विभाजन का प्रतीक बन गया। एक ओर जहां सरकारी आयोजन में प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ के नेतृत्व में गणतंत्र का उत्सव मनाया जा रहा था, वहीं दूसरी ओर सड़कों पर हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारियों का सैलाब उमड़ पड़ा, जो खुलेआम देश में संवैधानिक राजतंत्र की बहाली और हिंदू राष्ट्र की पुनः स्थापना की मांग कर रहे थे।
इस अभूतपूर्व प्रदर्शन का नेतृत्व राष्ट्रवादी दल 'राष्ट्रीय प्रजातन्त्र पार्टी' (RPP) और उससे जुड़े विभिन्न राजतंत्र समर्थक समूहों ने किया। प्रदर्शनकारी नेपाल के पूर्व राजा ज्ञानेन्द्र शाह को वापस सिंहासन पर लाने की मांग कर रहे थे। भीड़ में शामिल लोगों के हाथों में नेपाल का पारंपरिक लाल ध्वज लहरा रहा था, और नारे गूंज रहे थे – “राजा आऊ, देश बचाऊ”, “हिंदू राष्ट्र पुनः स्थापन गरौं।”
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: गणराज्य से असंतोष
नेपाल में 2008 में राजतंत्र को समाप्त कर लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना की गई थी। हालांकि बीते कुछ वर्षों में बढ़ते भ्रष्टाचार, राजनीतिक अस्थिरता, और आर्थिक कुप्रबंधन ने आम जनता के भीतर लोकतंत्र के प्रति गहरी निराशा भर दी है। इसी असंतोष की लहर अब एक वैकल्पिक व्यवस्था — अर्थात् संवैधानिक राजतंत्र — की ओर जनता को खींच रही है।
राजतंत्र समर्थक प्रदर्शनों की यह कड़ी अचानक नहीं आई है। वर्ष 2023 और 2024 में भी ऐसे आंदोलन नेपालगंज, पोखरा और जनकपुर जैसे शहरों में देखे गए थे, परंतु इस वर्ष की तीव्रता और संगठित शक्ति अभूतपूर्व रही।
क्या कहते हैं प्रदर्शनकारी?
रैली में मौजूद एक युवा प्रदर्शनकारी ने कहा, “गणतंत्र ने हमें क्या दिया? केवल भ्रष्ट नेता, महंगी वस्तुएँ और रोज़गार की कमी। राजतंत्र के समय व्यवस्था थी, संस्कृति जीवित थी, और नेपाल एक हिंदू राष्ट्र था। हम वही व्यवस्था वापस चाहते हैं।”
इसी प्रकार, 65 वर्षीय सेवानिवृत्त सैनिक रमेश श्रेष्ठ ने आक्रोशित स्वर में कहा, “गणतंत्र हमारे ऊपर थोपा गया प्रयोग है। राजा हमारा प्रतीक थे – एकता, धर्म और संस्कृति के। आज हमारा समाज विखंडित है।”
सरकार की प्रतिक्रिया और प्रशासनिक सतर्कता
सरकार ने इस संभावित टकराव को भांपते हुए राजधानी में 6,000 से अधिक सुरक्षा कर्मी तैनात किए। विरोध और गणतंत्र दिवस समारोहों को अलग-अलग स्थानों और समयों पर आयोजित करने का निर्णय भी तनाव टालने के लिए लिया गया। सौभाग्यवश, कोई हिंसक टकराव नहीं हुआ, लेकिन सरकार के भीतर बेचैनी साफ झलकती है।
गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “हम लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं, लेकिन यह देखना चिंताजनक है कि जनता का बड़ा वर्ग लोकतंत्र से विमुख हो रहा है।”
पूर्व राजा की चुप्पी और संकेत
पूर्व राजा ज्ञानेन्द्र शाह ने अभी तक इस आंदोलन पर कोई सार्वजनिक टिप्पणी नहीं की है, लेकिन सूत्रों के अनुसार, वह देशभर में जनभावनाओं को लेकर सतर्कता से नजर रखे हुए हैं। ज्ञानेन्द्र पहले भी कभी-कभी यह कह चुके हैं कि यदि जनता चाहे, तो वह ‘संवैधानिक भूमिका’ निभाने को तैयार हैं।
विश्लेषकों का मानना है कि उनकी चुप्पी रणनीतिक है — न तो आंदोलन को खुला समर्थन, न ही अस्वीकृति — जिससे वह भविष्य के किसी भी राजनीतिक विकल्प के लिए संभावनाएं खुली रख सकें।
राजनीतिक विश्लेषण: जनता के भीतर गहराता मोहभंग
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक और पूर्व कूटनीतिज्ञ लोकनाथ भण्डारी के अनुसार, “यह आंदोलन सिर्फ राजतंत्र की वापसी की मांग नहीं है, यह मौजूदा व्यवस्था के प्रति जनता के असंतोष का सशक्त संकेत है। यदि राजनीतिक दल जनता की समस्याओं की ओर ध्यान नहीं देंगे, तो यह आंदोलन राजनीतिक संकट में बदल सकता है।”
वो यह भी चेताते हैं कि “जनता किसी ‘सामान्य राजा’ की वापसी नहीं चाहती, बल्कि वे उस व्यवस्था को याद कर रहे हैं जिसमें धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीय एकता सुरक्षित प्रतीत होती थी।”
धर्म और पहचान की पुनर्परिभाषा
प्रदर्शन का एक अहम पहलू यह भी रहा कि प्रदर्शनकारी नेपाल को दोबारा ‘हिंदू राष्ट्र’ घोषित करने की मांग कर रहे थे। 2008 में नए संविधान के तहत नेपाल को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया था। लेकिन बड़ी आबादी आज भी स्वयं को सांस्कृतिक रूप से हिंदू राष्ट्र के रूप में देखती है।
वरिष्ठ समाजशास्त्री डॉ. विभूति रेग्मी के अनुसार, “नेपाल की सामाजिक चेतना में धर्म और राजशाही गहराई से जुड़े रहे हैं। जब लोग पहचान की असुरक्षा महसूस करते हैं, तो वे सांस्कृतिक प्रतीकों की ओर लौटते हैं — जैसे राजा और धर्म।”
भविष्य की राह: टकराव या समाधान?
अब यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि सरकार इस बढ़ते असंतोष को केवल सुरक्षा बंदोबस्त तक सीमित रखती है या कोई वैचारिक संवाद भी आरंभ करती है। क्या कोई ऐसा मध्य मार्ग संभव है जहां लोकतंत्र की आत्मा को बचाते हुए, सांस्कृतिक-राजनीतिक पहचान को भी समायोजित किया जा सके?
पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने कहा था, “नेपाल में लोकतंत्र मजबूत है, लेकिन उसकी आत्मा तभी जीवित रह सकती है जब वह जनता की भावनाओं से जुड़ी हो।”
नेपाल की सड़कों पर उमड़ा यह जनसैलाब कोई क्षणिक आवेग नहीं, बल्कि एक गहरे सामाजिक परिवर्तन का संकेत है। यह केवल राजतंत्र बनाम गणतंत्र की बहस नहीं, बल्कि उस संघर्ष की अभिव्यक्ति है जहां जनता व्यवस्था से उत्तरदायित्व और सम्मानजनक सांस्कृतिक पहचान की मांग कर रही है। यदि राजनीतिक नेतृत्व इस चेतावनी को नजरअंदाज करता है, तो आने वाले दिनों में नेपाल एक नए अस्थिर मोड़ पर खड़ा हो सकता है।