22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के
पहलगाम में जो हुआ, वह कोई साधारण घटना नहीं थी। आतंकियों ने एक रिसॉर्ट पर हमला कर दिया, जिसमें 26 लोगों की मौत हो गई और कई घायल हुए। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, आतंकियों ने जानबूझकर हिंदुओं को निशाना बनाया। उन्हें कलमा पढ़ने के लिए कहा गया, उनकी पहचान पूछी गई, और यहां तक कि कुछ को कपड़े उतरवाकर धर्म की पुष्टि की गई। लेकिन जैसे ही यह बात सामने आई, वही पुरानी "सेकुलर" लॉबी एक्टिव हो गई।
भारत की कुछ मीडिया संस्थाओं ने इस आतंकी हमले को बस “पर्यटकों पर हमला” कहकर टाल दिया। वहीं, पश्चिमी मीडिया ने तो जैसे ठान ही लिया हो कि इस्लामी आतंकवाद को "गनमेन" और "मिलिटेंट" जैसे शब्दों में ढालकर पूरी कहानी को झुठला देना है।
बीबीसी,
डी डब्ल्यू,
द गार्जियन,
अल जज़ीरा और
न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे बड़े मीडिया संस्थानों ने इस खूनखराबे को एक सामान्य हिंसा की घटना बता दिया। इनमें से अधिकतर रिपोर्ट्स ने कश्मीर को “इंडियन-एडमिनिस्टरड कश्मीर” कहकर न केवल भारत की संप्रभुता को चुनौती दी, बल्कि हमला करने वालों की धार्मिक पहचान तक छिपा दी।
जर्मनी, इटली, रूस, इज़रायल और अमेरिका के नेताओं ने इस घटना को आतंकवाद कहा और भारत के साथ खड़े होने की बात कही। लेकिन वैश्विक वामपंथी मीडिया इस्लामी चरमपंथ को छुपाने के लिए इतनी उतावली दिखी कि उन्होंने हमलावरों को “उग्रवादी” या “अज्ञात बंदूकधारी” तक कह दिया।
भारत के भीतर भी यही ट्रेंड दिखा। बड़े अंग्रेज़ी अखबारों और न्यूज़ चैनलों ने शुरू में हमले को बस “पर्यटकों पर हमला” कहकर चला दिया। कुछ मीडिया संस्थानों ने बाद में प्रत्यक्षदर्शियों के बयान आने के बाद ही इसे हिंदू विरोधी हमला माना। लेकिन अधिकांश रिपोर्टों ने इस बात पर चुप्पी साधे रखी कि ये हमला योजनाबद्ध और खास तौर पर हिंदुओं को निशाना बनाकर किया गया था।
वामपंथी मीडिया ने इस्लामी आतंकवाद को छिपाने का खेल पहले भी खेला है। “आतंक का कोई धर्म नहीं होता” जैसे खोखले वाक्य अब इनकी पहचान बन गए हैं। ये वही लोग हैं जो कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार पर चुप रहे, लेकिन जैसे ही कोई हिंदू अपने अधिकारों की बात करता है, उसे “इस्लामोफोबिक” बता दिया जाता है।
Youth Ki Awaaz जैसे प्लेटफॉर्म ने तो हद कर दी। उन्होंने पीड़ित हिंदुओं की जगह आतंकियों की बातों को तरजीह दी और हमला करने वालों के बचाव में तर्क गढ़े। राणा अयूब जैसी पत्रकारों ने
सोशल मीडिया पर कुछ स्थानीय मुस्लिमों द्वारा पीड़ितों की मदद की कहानियां शेयर कर यह दिखाने की कोशिश की कि हमला सामूहिक नहीं था, बल्कि अलग-थलग घटना थी। यह वही चाल है जो हर बार दोहराई जाती है, पीड़ित हिंदुओं की पीड़ा को दरकिनार कर, हमलावरों को इंसानियत का चोला पहनाया जाता है।
यह सब अचानक नहीं हो रहा। इसके पीछे एक संगठित एजेंडा है, हिंदुओं की पीड़ा को नज़रअंदाज़ करना और इस्लामी कट्टरपंथियों को पीड़ित की तरह पेश करना। Outlook की
“Terror Has No Religion” वाली रिपोर्ट इसका क्लासिक उदाहरण है। जब पत्रकारिता का उद्देश्य सच्चाई बताना नहीं, बल्कि एजेंडा चलाना बन जाए, तो नतीजा यही होता है।
सिर्फ वामपंथी विदेशी मीडिया ही नहीं, भारत के कुछ तथाकथित “बुद्धिजीवी” भी इस गैंग का हिस्सा हैं। ये "ब्राउन साहिब" भारत में रहते हैं लेकिन विचारों से पूरी तरह पश्चिमी हैं। इनके लिए “हिंदू जीवन की कोई कीमत नहीं” है। मोदी बनाम खान मार्केट गैंग पुस्तक में वरिष्ठ पत्रकार अशोक श्रीवास्तव ने इन लोगों को बेनकाब किया है। इसी गैंग के सदस्य जैसे जवाहर सरकार जैसे लोग X (ट्विटर) पर लिखते हैं – “जो मरे वे हिंदू या मुस्लिम नहीं, भारतीय थे” – जैसे वाक्य जो सुनने में अच्छे लगते हैं, पर असलियत छिपा लेते हैं।
आज जरूरत है कि हिंदू समाज सिर्फ दुख मनाने से आगे बढ़े। उसे अपने अधिकारों की आवाज़ खुद बननी होगी। सोशल मीडिया का सही उपयोग, मंदिरों को जागरूकता का केंद्र बनाना, और नए राजनीतिक विकल्प खड़े करना, "यही रास्ता है हिंदू विरोधी नैरेटिव से लड़ने का!"
लेख
शोमेन चंद्र
तिल्दा, छत्तीसगढ़