ममता बनर्जी की ‘धार्मिक रहित ओबीसी सूची’ की पोल खुली – 86 प्रतिशत नए नाम मुसलमानों के, सरकारी आंकड़े बोले सच…

11 Jun 2025 18:35:13
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पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हाल ही में विधानसभा में बाकायदा दावा कर बैठी कि राज्य की ओबीसी सूची धार्मिक आधार पर नहीं बनी है मगर उनके अपने सरकारी आंकड़े इस दावे को पूरी तरह गलत साबित करते हैं।
 
विधानसभा में उन्होंने कहा कि संख्या धर्म पर आधारित नहीं है और चुनाव में मुस्लिम वोट बैंक को साधने का आरोप निराधार है।
लेकिन स्टैटिस्टिक्स हमारे अंदर झूठ की परत खोलती है।
 
2010 से पहले पश्चिम बंगाल में 66 ओबीसी जातियाँ थीं, जिनमें सिर्फ 11 मुसलमान थीं, यानी केवल 20 प्रतिशत।
 
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सुधार की बात होती थी, धर्म पर नहीं। लेकिन 2024 आते-आते 76 नई जातियाँ जोड़ी गईं, जिनमें 46 मुसलमान ओबीसी-ए और 21 मुसलमान ओबीसी-बी में शामिल हैं।
 
कुल मिलाकर नए नामों में 86 प्रतिशत मुसलमान थे, यह आंकड़ा धर्म के नाम पर रियायत देने जैसा लगता है।
 
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क्या यह सोशल इक्विटी का मामला है या एक योजनाबद्ध वोट तैयार करना?
 
ओबीसी आरक्षण का मकसद पिछड़े वर्गों को न्याय देना था, लेकिन जब एक ही समुदाय पर इतना झुकाव हो जाए, तो साफ पता चलता है कि यह आरक्षण सिद्धांत नहीं, वोट बैंक की राजनीति बन गया है।
 
सरकार ने सरासर बगैर धर्म प्रमाणों के मुसलमानों को ओबीसी में शामिल किया और फिर हाल ही में राज्य सेवा में आरक्षण 7 प्रतिशत से बढ़ाकर 17 प्रतिशत कर दिया।
 
इससे इन नए नामों को सीधे फायदा होगा यानी एक धर्म विशेष को लाभ, और बाकी पिछड़े वर्गों का नुकसान।
 
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18 दिसंबर 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि आरक्षण धर्म के आधार पर नहीं दिया जा सकता।
 
इससे पहले कलकत्ता हाईकोर्ट ने इसी तरह की सूची कोर्ट में खारिज कर दी थी।
 
लेकिन ममता सरकार ने बेअदबी कर इसी सूची को दोबारा लाकर नया नियम बना दिया, सुप्रीम और उच्च न्यायालय के फैसले को नजरअंदाज किया।
 
यह सिर्फ प्रशासनिक भूल नहीं, बल्कि खुला कानूनी उल्लंघन है।
 
आरक्षण उस वर्ग के लिए था जिस पर सामाजिक या आर्थिक आधार पर अन्याय हुआ हो।
 
लेकिन योजनाबद्ध धर्म आधारित ओबीसी सूची से हिंदू पिछड़े, एससी, एसटी समुदाय पीछे रह जाते हैं।
 
आरक्षण का मूल उद्देश्य एक मुसलमान बहुल वोट बैंक बनाना नहीं था, बल्कि जो आरक्षण से पिछड़े थे, उनका उत्थान था।
 
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जब किसी मुख्यमंत्री अपने सत्ता बचाव के लिए धर्म का सहारा ले, जब संविधान और अदालत की मर्यादा को ताक पर रख दे, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है।
 
अगर इस तरह का खेल चलता रहा, तो लोग लोकतंत्र से निराश होंगे, संविधान अपना वजन खो देगा।
 
गणितीय आंकड़े बताते हैं कि पश्चिम बंगाल की मुस्लिम आबादी करीब 27 प्रतिशत है, जबकि ओबीसी में 86 प्रतिशत नए नाम मुसलमान का होना कोई सांख्यिकीय चूक नहीं, बल्कि वोट बैंक की रीति है।
 
यह चल रही व्यवस्था पिछड़े गैर-मुसलमान ओबीसी वर्गों की उपेक्षा पर आधारित है, जो संविधानिक समानता के खिलाफ है।
ममता सरकार ने तथ्यों को मास्क लगाकर पेश किया, लेकिन सरकारी डेटा और अदालत के आदेश अलग ही कहानी बताते हैं।
 
यह सिर्फ धार्मिक भेदभाव नहीं, बल्कि भारत के संवैधानिक मूल्यों को तोड़ने की आशंकाजाल है।
 
अगर ऐसा चलता रहा, तो आरक्षण नीति लोकतंत्र का मास्क मात्र बनकर रह जाएगा।
 
ममता बनर्जी का दावा नेताओं के प्रचार का हिस्सा हो सकता है, लेकिन आंकड़े, सरकारी तथ्य और अदालत के आदेश अलग ही बात कहते हैं।
 
जब सत्ता के लिए संविधान, आरक्षण और न्याय को ताक पर रखा जाए, तो लोकतंत्र को चोट पहुंचती है।
 
यह मुद्दा सिर्फ वोट या राजनीति का नहीं है, यह अधिकारों और संविधान की रक्षा का सवाल है।
 
लेख
शोमेन चंद्र
तिल्दा, छत्तीसगढ़
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