माओवादियों ने केन्द्रीयकृत रूप से अबूझमाड को तो अपना आधारक्षेत्र बनाया ही है, समानांतर रूप से वे संलग्न संरक्षित वनक्षेत्रों में भी सक्रिय हैं।
सबसे निकट का उदाहरण है माओवादी संगठन की सेंट्रल कमेटी के सदस्य और तेलंगाना राज्य समिति से जुड़े माओवादी गौतम उर्फ सुधाकर का मारा जाना।
वह मुठभेड़ जिसमें मानवता का यह हत्यारा माओवादी और कई अन्य साथी मारे गए, वस्तुत: इंद्रावती टाइगर रिजर्व में चल रही थी।
वर्ष 2022-23 के आसपास जब मैं इस क्षेत्र का अध्ययन कर रहा था, मेरी जानकारी में यहाँ सक्रिय दिलीप नाम के माओवादी की जानकारी थी जो संगठन में डीवीसी स्तर का कैडर था और उसकी दहशत हुआ करती थी।
माओवादियों का यहाँ खौफ इतना था कि कई क्षेत्रों में उन्होंने अपने नाके स्थापित किए थे जहाँ से गुजरने वालों को उन्हें टोल देना होता था; जिसकी बाकायदा पर्ची या रसीद भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की ओर से दी जाती थी।
इस आलोक में जानते हैं कि छत्तीसगढ़ राज्य में अबूझमाड और उसके सीमांत पर, मुख्यतः बीजापुर जिले में इंद्रावती टाइगर रिजर्व स्थित है, जो कि देश के महत्वपूर्ण बाघ अभयारण्य में गिना जाता है।
बस्तर अंचल की जीवनदायिनी सरिता इंद्रावती के नाम पर इसका नामकरण किया गया है।
इंद्रावती टाइगर रिजर्व को वर्ष 1983 में भारत के प्रोजेक्ट टाइगर के तहत बाघ अभयारण्य घोषित किया गया था, इसका कुल क्षेत्रफल लगभग 2799 वर्ग किलोमीटर है।
यदि यहाँ अवस्थित प्राणी विविधता की बात की जाए तो मुख्य रूप से बाघ, जंगली भैंस, चीतल, गौर, सांभर, तेंदुआ और विभिन्न प्रकार के पक्षी सम्मिलित हैं।
केवल जीव जगत ही नहीं, वनस्पति वैविध्य के लिए भी यह परिक्षेत्र अपनी पहचान रखता है तथा अनेक विलुप्तप्राय अथवा संकटस्थ जीव-वनस्पतियों का यह संरक्षित क्षेत्र है।
इंद्रावती टाइगर रिजर्व पर जारी मुठभेड़ को लेकर मैंने एक समीक्षालेख पढ़ा था, जिसके अनुसार संसाधनविहीन इस क्षेत्र में विकास कार्यों के लिए अनुमति नहीं मिल पाती।
इस कारण माओवादी यहाँ आसानी से सक्रिय हो जाते हैं।
यह समझना होगा कि अभयारण्य क्षेत्र में किसी भी तरह का विकास कार्य पूर्णरूपेण वर्जित होता है, अर्थात संसाधन होने के बाद भी यहाँ कोई गतिविधि, खदान, या कारखाने लगाना संभव ही नहीं है।
बाघ के लिए संरक्षित अभयारण्यों को मानव गतिविधिविहीन ही रखा जाता है, जिससे वन्यजीव संरक्षित रह सकें।
ब्रिटिश शासन के समय में इंद्रावती नदी के छोर का यह सघन वन क्षेत्र अंग्रेजों और राजा की शिकारगाह था।
इतनी बड़ी संख्या में बाघ और जंगली भैंसों का शिकार किया गया कि वे विलुप्ति की कगार पर पहुँच गए।
स्वतंत्रता के बाद जब संरक्षण की पहल हुई और यहाँ अभयारण्य निर्मित किया गया, तब माओवादियों ने इसे अपनी सुरक्षित पनाहगाह बना लिया, क्योंकि इसे क्षेत्रों में मानव गतिविधियाँ वर्जित कर दी जाती हैं।
एक पेड़ की टहनी तक जिस क्षेत्र से उठाना गैरकानूनी है, वहाँ ठसके से बारूदी सुरंग बिछाकर, आईईडी और स्पाइक होल बनाकर माओवादी अपने लिए तो किलेबंदी करते रहे, लेकिन कितने ही मवेशियों और वन्यजीवों का जीवन खतरे में डाला, क्या इसका हिसाब-किताब लेने वाला कोई है?
माओवादियों से क्षेत्र को मुक्त करने के लिए मुठभेड़ें भी इन्हीं क्षेत्रों में होने लगीं, तो सोचिए कि जीव-जंतु और पक्षी वहाँ किस अवस्था में होंगे अथवा पलायन कर गए होंगे।
माओवादी क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, बताने वाली शहरी नक्सलियों की किताबों को पढ़िए तो आपको स्पष्ट होगा कि कई जीव, पक्षी तो माओवादियों का भोजन बन गए; दुर्लभ सांपों तक को अपने बचाव में इन्होंने मारकर वन संपदा और उसके संतुलन को नष्ट किया है।
लालबुझक्कड शहरी नक्सलियों ने शब्दजाल से माओवादियों के समर्थन की जो ढाल बना रखी है, उनकी पहेलियों को हमें ठीक से बूझना होगा और यह पोल खोलनी होगी कि माओवादी ही वन और वन्यजीवों के सबसे बड़े शत्रु हैं, अन्यथा तो यह गिरोह हाथी के पैरों के निशान पर भी गीत गा सकता है कि “पैर में चक्की बांध के, हिरणा कूदो कोय।” (क्रमश:)
लेख
राजीव रंजन प्रसाद
लेखक, साहित्यकार, विचारक, वक़्ता