12 जून 2025 को अहमदाबाद के पास एक भयानक विमान दुर्घटना हुई। एयर इंडिया की फ्लाइट में सवार 241 लोग मारे गए।
कई परिवार उजड़ गए, मासूम बच्चे, माता-पिता, बुजुर्ग... सभी की जिंदगी पल भर में खत्म हो गई।
यह हादसा पूरे देश को एकजुट कर सकता था, सबको इंसानियत के नाते जोड़ सकता था।
लेकिन कुछ कथित 'उदारवादियों' और वामपंथी बुद्धिजीवियों ने इस दुख को भी अपनी घिसीपिटी राजनीति और मुस्लिम विक्टिमहुड का मंच बना दिया।
दुर्घटना के बाद जहां आम लोग शोक मना रहे थे, वहीं कुछ वामपंथी चेहरों की चिंता यह थी कि "अगर पायलट मुसलमान होता तो क्या होता?"
यानी 241 लोगों की मौत से बड़ा मुद्दा इनके लिए पायलट का धर्म बन गया।
सोशल मीडिया पर इस तरह की बातें करने वालों में अमित बिहरे जैसे लोग सबसे आगे रहे।
उन्होंने ट्वीट किया, "सोचिए अगर पायलट मुसलमान होता... शुक्र है कि वह नहीं था।" इसके बाद प्रधानमंत्री को अपशब्द कहे और सारा दोष उनकी सोच पर डाल दिया।
यह बयान सिर्फ असंवेदनशील नहीं था, यह उस वैचारिक सड़ांध की निशानी भी है जो आज के कथित लिबरल तबके में गहराई तक घर कर चुकी है।
पूरे देश की आंखों में आंसू थे, लेकिन इन लोगों को पीड़ितों की चिंता नहीं थी।
इन्हें तो चिंता थी एक काल्पनिक कहानी की जिसमें मुस्लिम को पीड़ित बनाकर पेश किया जा सके।
सच्चाई यह है कि पायलट का धर्म कभी मुद्दा नहीं होना चाहिए। लेकिन कुछ वामपंथी हर बात को धर्म, जाति और वर्ग की राजनीति में खींच लाते हैं।
इनके लिए हर घटना एक मौका है मुस्लिमों को पीड़ित दिखाने का, चाहे वह आतंकी हमला हो, प्राकृतिक आपदा हो या विमान दुर्घटना।
यह वही सोच है जो पहले से तय करती है कि हिन्दू हमेशा अत्याचारी होगा और मुस्लिम हमेशा पीड़ित। तथ्यों की कोई अहमियत नहीं, बस नैरेटिव सेट करना है।
अमित बिहरे जैसे लोग अपवाद नहीं हैं। वे एक बड़ी जमात का हिस्सा हैं जो 'गोडी मीडिया' जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके सच्चाई को दबाने की कोशिश करते हैं।
ये लोग तथ्यों से नहीं डरते, ये उस सच्चाई से डरते हैं जो इनके झूठे नैरेटिव को उजागर कर देती है।
अब सोचिए उन परिवारों के बारे में जिन्होंने इस हादसे में अपने बेटे, बेटी, मां-बाप खो दिए।
अगर वे सोशल मीडिया पर देखें कि लोग उनकी पीड़ा के बजाय पायलट के धर्म पर चर्चा कर रहे हैं, तो उन्हें कैसा लगेगा?
यह संवेदना नहीं, यह मानसिक बीमारी है। और इस बीमारी का इलाज सिर्फ सच्चाई से हो सकता है।
यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। पहलगाम में हुए आतंकी हमले में भी जब लश्कर-ए-तैयबा के आतंकियों ने हिन्दू यात्रियों की पहचान कर उन्हें गोली मारी, तब भी यही वामपंथी गैंग मुस्लिमों को पीड़ित बताने की कोशिश कर रही थी।
आतंकियों की क्रूरता को नजरअंदाज कर यह जताने लगे कि देश में इस वजह से 'इस्लामोफोबिया' बढ़ गया है। यानी मारने वाला भी निर्दोष और मरने वाला भी दोषी।
इस तरह की मानसिकता न केवल मानवता को शर्मिंदा करती है, बल्कि समाज को भी तोड़ने का काम करती है।
यह सोच हर बात को पीड़ित और उत्पीड़क के नजरिए से देखती है।
इनके लिए भारत एक ऐसा देश है जहां हर चीज़ जाति, धर्म और वर्ग के चश्मे से देखी जानी चाहिए।
इन्हें न सच्चाई से मतलब है और न ही पीड़ितों से। इन्हें सिर्फ अपने एजेंडे से मतलब है।
अहमदाबाद विमान दुर्घटना में 274 लोग मरे। लेकिन वामपंथियों की चिंता थी कि कहीं पायलट मुसलमान न हो।
इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है? इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है?
और सबसे ज्यादा दुख की बात यह है कि इस मानसिक विकृति पर तथाकथित 'मॉडरेट' लिबरल्स भी चुप रहे।
किसी ने इन बयानों की आलोचना नहीं की। कोई लेख नहीं लिखा, कोई बहस नहीं की।
यह चुप्पी सिर्फ मौन समर्थन नहीं, बल्कि इस गिरी हुई सोच को मंजूरी देना है।
जो लोग हर त्रासदी को राजनीतिक मंच बना लेते हैं, उन्हें आइना दिखाना जरूरी है।
अगर 274 जानें भी हमें एकजुट नहीं कर सकीं, तो समझ लीजिए कि हमारी सबसे बड़ी समस्या दुख नहीं, बल्कि वह सोच है जो हर दुख को धर्म और राजनीति में घसीट लाती है।
हमारा देश तभी एकजुट रह पाएगा जब हम इंसान को इंसान की नजर से देखना सीखेंगे, न कि हिन्दू या मुसलमान की पहचान से।
यही समय है कि हम सच्चाई, संवेदना और नैतिकता की राजनीति को अपनाएं।
क्योंकि अगर हम अब भी नहीं चेते, तो अगली त्रासदी सिर्फ जान नहीं लेगी, हमारे सामाजिक तानेबाने को भी बर्बाद कर देगी।
लेख
शोमेन चंद्र
तिल्दा, छत्तीसगढ़