देश में कहीं कोई आक्रोश नहीं है, बल्कि अपने सुरक्षा जवानों पर गर्व का भाव है कि आजादी के समय से सतत तथा अपने उग्रतम रूप में चार दशक से जारी माओवाद की समस्या को निदान के करीब पहुँचा दिया गया है।
इसी मध्य कई स्थानों से खुलकर तो कुछ दबे-छिपे स्वर उठ रहे हैं कि माओवादियों की अपील पर संज्ञान लिया जाना चाहिए और सरकार को उनके साथ “सीज फायर” करते हुए वार्ता करनी चाहिए।
स्मृति पर जोर डालिए, जब तीन राज्यों की सीमा से जुड़ी कर्रेगुट्टा की पहाड़ियों को घेरकर लगभग एक माह तक मुठभेड़ चली, उसी समय तेलंगाना में एक “शांति समिति” सक्रिय हुई।
इस कथित शांति के प्रयासकर्ताओं का “स्थान और समय” दोनों ही विचारणीय हैं।
इस समिति को केवल एक ही राज्य की सरकार से समर्थन मिला, आखिर क्यों? क्या नक्सल उन्मूलन अभियान में छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र अलग तरह से काम कर रहे हैं और आंध्र-तेलंगाना की सोच और शैली बिल्कुल अलग है?
जब यह स्पष्ट था कि अनेक माओवादी कैडर कर्रेगुट्टा की पहाड़ियों में घेर लिए गए हैं, जिनको बचाने के लिए एक के बाद एक अपील जारी हुई, माओवादियों ने पर्चे लिखे, यहाँ तक कि मीडिया के सामने आकर भी उन्होंने सरकार से बातचीत की पेशकश की।
नक्सलियों की इसी बात पर सरकार किसी भी तरह सहमत हो जाए, इसके लिए शांति समिति प्रयास कर रही थी।
जो सत्यान्वेषी हैं, उन्हें इस शांति समिति तथा इसी ही समितियों के सदस्यों के तब के बयानों और कार्यों को संज्ञान में लेना चाहिए, जब माओवादी मजबूत थे और सुरक्षा बल के जवान मारे जा रहे थे।
यह अभियान सफल तो रहा, लेकिन परिणाम अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहे, आखिर क्यों? इन विचारणीय प्रश्नों से होकर ही हम उस उत्तर तक पहुँच सकेंगे कि निर्धारित तिथि तक माओवाद समाप्त हो सकेगा अथवा नहीं।
इस मध्य स्थान से यह सूचना भी आने लगी है कि स्थानीय ग्रामीण धरना देकर मांग कर रहे हैं कि नक्सलियों से वार्ता होनी चाहिए।
इस तरह की मांग और उसके पीछे के तथ्यों को समझने के लिए आपको माओवादियों के काम करने की शैली को भी जानना होगा।
वे तरह-तरह के स्थानिक संगठन, जिसमें बच्चों के बीच बालसंघम सहित विभिन्न नामों से महिला संगठन, मजदूर संगठन, किसान संगठन आदि तैयार करते हैं।
कुछ संगठन सीधे माओवादी कार्यशैली का हिस्सा हैं, कुछ छद्म संगठन हैं जिनकी माओवादियों द्वारा ग्रामीणों के मध्य ही अपनी ढाल के रूप में संरचना की गई है।
इसके अतिरिक्त, कुछ नेटवर्क तो जंगल से शहर तक के बीच की कड़ी का काम करते हैं और कोर-शहरी नक्सली टीम को महत्वपूर्ण इनपुट देने के लिए बनाए गए हैं।
माओवादी पत्रों और उनके हालिया बयानों को हमें पढ़ना चाहिए, उनकी अपील है कि वे अपने वरिष्ठ कैडरों से संपर्क नहीं बना सके हैं और इसलिए आगे क्या करना है, इसकी स्पष्टता के लिए युद्धविराम चाहिए।
पहली बात कि आतंकवाद न तो युद्ध होता है, न ही मानवीय और दूसरी बात कि माओवादी सुरक्षाबलों की सफलता के कारण स्वयं के बिखरे संगठनात्मक ढांचे को फिर से खड़ा करने के लिए समय चाहते हैं।
जब लोहा गर्म हो, हथौड़े का असर तभी होता है, यही कारण है कि कर्रेगुट्टा की आंशिक सफलता का क्षोभ अबूझमाड में माओवादी महासचिव वसवाराजू की मौत के साथ पूर्ण सफलता में बदला।
अब जबकि देश की पांच वामपंथी पार्टियों ने 9 जून, 2025 को प्रधानमंत्री को एक खुला पत्र लिखा है जिसमें यह अपील की गई है कि छत्तीसगढ़ और आसपास के इलाकों में माओवाद विरोधी अभियानों के नाम पर हो रही ‘न्यायेतर हत्याओं’ पर रोक लगानी चाहिए।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), भाकपा (माले)-लिबरेशन, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी और ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक ने इस अपील पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं।
पत्र के शब्द ‘न्यायेतर हत्याओं’ पर गौर कीजिए और अब रेखांकित कीजिए कि इस अपील के एक दिन पहले ही सुकमा-एर्राबोर-कोण्टा परिक्षेत्र में अतिरिक्त एसपी आकाश राव गिरीपुंजे की माओवादियों ने आईईडी विस्फोट के माध्यम से हत्या कर दी है।
यही माओवादियों की बातचीत का तरीका और वास्तविक चेहरा है।
इस पत्र के साथ ही यह समझ आता है कि वामपंथी दल और माओवादी दल एक ही पेज पर पूरी नग्नता के साथ सामने आ गए हैं और “गांधी विथ द गन्स” वाले स्थापित नैरेटिव को फिर से परोसने के प्रयास में हैं।
इस पूरी कवायद का मेरा निष्कर्ष है कि आज वामपंथ देश में न केवल अप्रभावी है बल्कि राजनीतिक रूप से आखिरी साँसे ले रहा है, यही स्थिति माओवाद की भी है।
तो क्या यह समझा जाए कि उन्हें वामपंथ के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए ही चाहिए माओवाद?
लेख
राजीव रंजन प्रसाद
लेखक, साहित्यकार, विचारक, वक़्ता