संविधान की हत्या के पचास वर्ष: आपात्काल की पृष्ठभूमि (भाग - 1)

22 Jun 2025 13:22:23
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वह अपने देश के लिए कठिन समय था। बहुत कठिन। 1971 में 'गरीबी हटाओ' के नारे के साथ इंदिरा गांधी चुनकर सत्ता में आई थीं। किंतु देश दयनीय स्थिति में था। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ था।
 
उन दिनों भारत एक गरीब देश समझा जाता था। 1975 में हमारी आर्थिक विकास दर मात्र 1.2% थी। विश्व में, जनसंख्या के मामले में दूसरे देश होने के बाद भी, अर्थव्यवस्था में हम 15वें क्रमांक पर थे।
 
हमारे पास विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 1.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर्स था (आज हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 640 बिलियन अमेरिकी डॉलर है)।
 
महंगाई चरम पर थी। मुद्रास्फीति की दर 20% से भी ज्यादा थी। देश की 50% से ज्यादा जनता गरीबी रेखा के नीचे थी।बेरोजगारी जबरदस्त थी। उद्योग विकास दर नहीं के बराबर थी।
 
एक दो राज्यों का अपवाद छोड़कर, कांग्रेस की सत्ता पूरे देश पर थी। उनके इस राज में भ्रष्टाचार अपने चरम पर था।
 
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1971 में दिल्ली की स्टेट बैंक की शाखा से रुस्तम नगरवाला ने फोन पर इंदिरा गांधी की आवाज निकालकर 60 लाख रुपए कैश में निकाले।
 
बाद में नगरवाला पकड़ा गया, किंतु वह 60 लाख रुपए कहां गए, किसी को पता नहीं चला। और जेल के अंदर नगरवाला की रहस्यमय ढंग से मृत्यु हुई।
 
1975 का शीतकालीन सत्र केंद्रित रहा कांग्रेस के सांसद तुलमोहन राम पर। तुलमोहन राम ने आयात-निर्यात के लाइसेंस को लेकर एक बहुत बड़ा घोटाला किया था, जो सामने आया।
 
यह तुलमोहन राम रेलवे मंत्री ललित नारायण मिश्रा के खास चेले थे। कहा जाता था कि ललित नारायण मिश्रा कांग्रेस के 'ऐसे' सारे आर्थिक व्यवहार देखते थे।
 
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यह तुलमोहन राम प्रकरण सामने आने के तुरंत बाद, 3 जनवरी 1975 को केंद्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्रा की हत्या हुई थी।
 
कुल मिलाकर, भारत पर राज करने वाली कांग्रेस ऐसे भ्रष्टाचार के एक से बढ़कर एक उदाहरण प्रस्तुत कर रही थी।
 
स्वाभाविक था कि इसके विरोध में लोगों का आक्रोश बढ़ना। सरकार आर्थिक व्यवस्था पटरी पर लाने के लिए कोई ठोस कदम उठाते हुए नहीं दिख रही थी।
 
सरकार के विरोध में आंदोलनों और हड़तालों का दौर चल रहा था।
 
देश की भ्रष्ट व्यवस्था के विरोध में गुजरात के छात्रों ने 'नवनिर्माण आंदोलन' प्रारंभ किया था।
 
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उनकी मांग थी, 'भ्रष्ट चिमन पटेल की सरकार को बर्खास्त किया जाए'। 'चिमन चोर हटाओ' यह गुजरात का लोकप्रिय नारा बन गया था।
 
छात्रों के बढ़ते आक्रोश के बीच, गुजरात सरकार को बर्खास्त करने के लिए मोरारजी भाई देसाई ने आमरण अनशन पर बैठने की घोषणा की।
 
आखिरकार इंदिरा गांधी को झुकना पड़ा। गुजरात विधानसभा बर्खास्त हुई। नए चुनाव की घोषणा हुई।
 
जनसंघ, संगठन कांग्रेस, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी जैसे दल एक होकर 'जनता मोर्चा' का गठन किया। इस जनता मोर्चा के नेतृत्व में विपक्ष ने चुनाव लड़ा।
 
और इतिहास बन गया..!
 
पहली बार कांग्रेस के विरोध में, विपक्षी दल के विधायक बड़ी संख्या में चुनकर आए। 182 सदस्यों की विधानसभा में जनता मोर्चा के 86 विधायक जीतकर आए। उन्हें आठ निर्दलीय विधायकों का समर्थन मिला।
 
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और जून 1975 में, पहली बार गुजरात में बाबूभाई पटेल के नेतृत्व में जनता मोर्चा की सरकार बनी।
 
इंदिरा गांधी के लिए यह जबरदस्त झटका था। गुजरात जैसा ही आंदोलन बिहार में भी चल रहा था।
 
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छात्रों की मांग पर जयप्रकाश नारायण जी ने इस आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार किया।
 
कांग्रेस की भ्रष्ट और अकर्मण्य व्यवस्था के विरोध में नवनिर्माण आंदोलन देश में फैलने लगा था। जयप्रकाश नारायण जी को लोगों ने 'लोकनायक' की उपाधि दी थी।
 
और ऐसे में आया 12 जून।
 
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रायबरेली संसदीय क्षेत्र में भ्रष्ट तरीके अपनाने के आरोप में, प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार राज नारायण ने इंदिरा गांधी पर कोर्ट में मुकदमा दायर किया था।
 
12 जून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहन सिन्हा ने इस मुकदमे में अपना ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। यह निर्णय इंदिरा गांधी के खिलाफ था।
 
न्यायमूर्ति सिन्हा ने भ्रष्टाचार के आरोप में धारा 123(7) के तहत इंदिरा गांधी का निर्वाचन रद्द किया (शून्य किया) और उन्हें अगले 6 वर्षों तक चुनाव लड़ने के लिए अपात्र (अयोग्य) घोषित किया।
 
यह निर्णय सभी अर्थों में अभूतपूर्व था। यह ऐतिहासिक था। स्वतंत्रता के बाद, पहली बार पद पर रहे प्रधानमंत्री को भ्रष्टाचार के कारण चुनाव लड़ने के लिए प्रतिबंधित किया गया था।
 
इस निर्णय ने देश में विरोध के स्वर को बुलंद आवाज दी। पहले ही बेरोजगारी की आग में झुलस रहे नवयुवक, गरीबी की मार झेल रहा समाज का बड़ा तबका, भ्रष्टाचार से त्रस्त जनसामान्य... ये सभी इंदिरा गांधी के त्यागपत्र की मांग करने लगे।
 
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कानून ने इंगित कर दिया था - छह वर्षों के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार देकर। इसलिए, पद से त्यागपत्र देना यह जनता की स्वाभाविक अपेक्षा थी। नैतिकता भी यही कह रही थी।
 
किंतु प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने का न तो इंदिरा गांधी का मन था, और न ही इच्छा। संजय गांधी, इंदिरा गांधी के त्यागपत्र के पक्ष में कतई नहीं थे।
 
प्रधानमंत्री निवास में मानसिकता बन गई थी कि इंदिरा जी ने त्यागपत्र नहीं देना है। वहां की सारी गतिविधियों का प्रबंधन आर. के. धवन के पास आ गया था।
 
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यह राजकुमार धवन मंत्रालय में क्लर्क थे, किंतु बाद में वे इंदिरा जी के विश्वासपात्र बने और अधिकृत रूप से इंदिरा गांधी के सचिव बन गए।
 
उनके साथ हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसीलाल और कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ भी थे।
 
यह सभी संजय गांधी और इंदिरा गांधी के खास विश्वासपात्र सिपाही थे। इन सबकी राय यही थी कि इंदिरा गांधी ने त्यागपत्र देना तो दूर की बात, इन विपक्षी दलों के विरोध में कोई सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है।
 
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12 जून के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद से इन योजनाओं पर काम प्रारंभ हो गया था।
 
वैसे विपक्षी दलों को कुचलने की योजना नई नहीं थी। जॉर्ज फर्नांडीज के नेतृत्व में 1974 में जो जबरदस्त रेलवे आंदोलन हुआ था, उसी के बाद यह योजना आकार लेने लगी थी।
 
उन दिनों दिल्ली से राष्ट्रीय विचारों वाला एक अंग्रेजी समाचार पत्र निकलता था - 'मदरलैंड'।
 
उसने 30 जनवरी 1975 के अंक में आशंका व्यक्त की थी कि भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाने का निश्चय किया है, साथ ही जयप्रकाश नारायण जी को भी गिरफ्तार किया जाएगा।
इसी दिन इंडियन एक्सप्रेस ने भी इसी आशय का समाचार प्रकाशित किया था। अर्थात, जो लोग सरकार के विरोध में जा रहे (ऐसा सरकार को लग रहा था), उन सभी पर सख्त कदम उठाने की योजना बहुत पहले से तय थी।
 
प्रधानमंत्री निवास, 1 सफदरजंग रोड से पूरे देश में संदेश भेजा गया कि बड़ी कार्यवाही के लिए तैयार रहना है।
 
गुजरात और तमिलनाडु को छोड़कर लगभग सभी मुख्यमंत्री कांग्रेस के थे। उनसे कहा गया कि जिनको गिरफ्तार करना है, उनकी सूची तैयार की जाए।
 
इधर कांग्रेस, विपक्षी दलों को कुचलने की तैयारी कर रही थी, तो वहां कम्यूनिस्टों को छोड़, लगभग सभी विपक्षी दल, जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में, इंदिरा गांधी के त्यागपत्र के लिए, व्यापक आंदोलन की योजना बना रहे थे..! (क्रमशः)
 
लेख
प्रशांत पोळ
लेखक, चिंतक, विचारक
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