माओवाद और नैरेटिव (भाग – 5): मध्यस्थता और बातचीत की बेचैनी क्यों?

24 Jun 2025 16:20:06
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आम तौर पर जीता हुआ युद्ध बातचीत की मेज पर पराजय में बदल जाता है। हम वर्ष 1971 का युद्ध इस तरह जीते कि विश्व के लिए एक उदाहरण बन गया, लेकिन बातचीत की मेज पर इस तरह हारे कि जीती हुई जमीन भी लौटानी पड़ी और तिरानबे हजार सैनिकों के बदले कोई ठोस समझौता भी न हो सका।
 
बातचीत पराजितों का हथियार है जो पैना और धारदार है। माओवाद के संदर्भ में भी यह प्रसंग किसी तरह से भिन्न नहीं है।
 
भारत में माओवाद के इतिहास पर पैनी नजर रखने वाले जानते हैं कि अनेक बार सरकार-माओवादी वार्ता हुई है लेकिन पूर्णतः असफल।
 
बातचीत के लिए बन रहे दबावों के वर्तमान प्रसंग को विवेचित करने से पूर्व मैं उदाहरण लेना चाहता हूँ जब वर्ष 2012 में सुकमा जिले के कलेक्टर अलेक्स पाल मेनन का माओवादियों ने न केवल अपहरण किया बल्कि उनके दो सुरक्षा कर्मियों को गोली मार दी थी।
 
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इतने बड़े प्रशासनिक अधिकारी का अपहरण कोई साधारण घटना नहीं थी और सरकार बहुत अधिक दबाव में थी।
 
इस समय माओवादी बस्तर क्षेत्र में बहुत मजबूत थे और सुकमा उनके मजबूत गढ़ों में गिना जाता था।
 
माओवादियों ने बातचीत की टेबल सजाई, उस दौर में बीबीसी को उन्होंने बयान दिया - “हमने कलेक्टर को गिरफ्तार किया है।हमारी शर्तें हैं कि ऑपरेशन ग्रीनहंट को बंद किया जाए, दंतेवाड़ा रायपुर जेल में फर्जी मामलों में बंद लोगों को रिहा किया जाए, सुरक्षाकर्मियों को वापस बैरक भेजा जाए, कोंटा ब्लॉक में कांग्रेस नेता पर हमले के मामले में लोगों पर से मामले हटाए जाएँ। हमारे आठ साथियों को छोड़ा जाए- मरकाम गोपन्ना उर्फ सत्यम रेड्डी, निर्मल अक्का उर्फ विजय लक्ष्मी, देवपाल चंद्रशेखर रेड्डी, शांतिप्रिय रेड्डी, मीनाचौधरी, कोरसा सन्नी, मरकाम सन्नी, असित कुमार सेन।”
 
इन सभी मांगों पर गौर कीजिए। इनका सार संक्षेपण करें तो अर्थ निकलता है कि बस्तर में माओवादी ही रहेंगे, सुरक्षाबालों को पीछे हटाओ, लाल-अपराधियों पर से मुकदमे ही नहीं हटाओ बल्कि कुख्यातों को रिहा भी करो।
 
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बातचीत जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, मांगें भी बढ़ने लगती हैं, यहाँ तक कि आठ से बढ़कर उन माओवादियों की संख्या सत्रह पहुँच जाती है, जिन्हें छोड़ने की मांग थी।
 
नक्सलियों के मध्यस्थ बने हैदराबाद के प्रोफेसर जी. हरगोपाल एवं भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के पूर्व अधिकारी बी.डी. शर्मा पर विषयांतर से बचाने के लिए अलग से चर्चा करेंगे।
 
यह राहत की बात थी कि माओवादियों की मांगें उस स्वरूप में नहीं मानी गईं, जैसा वे चाहते थे; लेकिन इस घटना ने उन्हें वह वैश्विक ख्याति प्रदान की, जो इस घटना का मूल उद्देश्य था।
 
इस घटना के बाद माओवादियों ने स्वयं को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विजेता और जन-अधिकारों के रक्षक की तरह सामने रखा, वे दुनिया भर के अखबारों की हेडलाइन थे, विदेशी समाचार चैनलों के लिए मसाला थे।
 
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इस घटनाक्रम और इसके हासिल से हमें वर्तमान में दिख रही मध्यस्थता की आतुरता और बातचीत के लिए दबावों के मायने समझ आ जाते हैं।
 
वर्ष 2016 में छत्तीसगढ़ पुलिस की स्पेशल टीम ने कलेक्टर के अपहरण में शामिल रहे नक्सली भीमा उर्फ आकाश को गिरफ्तार किया।
 
फरवरी 2023 को नई दुनिया में प्रकाशित एक खबर के अनुसार, अदालत में स्वयं अलेक्स पाल मेनन ने अपने बयान में भीमा को नहीं पहचाना।
 
उन्होंने कहा कि घटना काफी पुरानी है, इसलिए वे भीमा ही नहीं, अभियुक्त गणेश उईके, रमन्ना, पापा राव, विजय मड़कम, आकाश, हुंगी, उर्मिला, मल्ला, निलेश, हिड़मा, देवा जैसे नक्सलियों को भविष्य में भी नहीं पहचान सकेंगे।
 
इस तरह बातचीत से निकले समाधानों का पूर्ण पटाक्षेप हो गया है। इस घटना और ऐसी ही अनेक अन्य घटनाओं के जिम्मेदार लाल-अपराधी अब जाकर सुरक्षाबालों के हाथों या तो मारे जा रहे हैं या समर्पण कर रहे हैं।
 
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अब सरकार पूरी तरह सशक्त है, जीत की दहलीज पर खड़ी है और स्पष्ट है कि माओवाद को आने वाली पीढ़ियाँ इतिहास की पुस्तकों में ही पढ़ेंगी।
 
ऐसे में उन सभी आवाजों को भी हमें ठीक-ठीक से पहचानना होगा जो "सीजफायर करो, बातचीत करो" चीख रही हैं।
 
इस विषय के अंत में विचारार्थ आपके लिए मेरी ओर से छोड़ा गया प्रश्न है कि आखिर मध्यस्थता और बातचीत की ऐसी बेचैनी क्यों?
 
क्या माओवादी स्वयं को पुनर्गठित करने के लिए समय चाहते हैं और क्या उन्हें यही समय सरकार पर दबाव बना कर शहरी नक्सली उपलब्ध कराने के लिए आतुर हैं?
 
इस दबाव का सामना सरकार किस तरह करती है, यह देखने वाली बात होगी।
 
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लेख
 
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राजीव रंजन प्रसाद
लेखक, साहित्यकार, विचारक, वक़्ता
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