कैलाश मानसरोवर यात्रा, जो सनातनियों के लिए एक पवित्र तीर्थस्थल है, एक बार फिर वैश्विक कूटनीति और क्षेत्रीय राजनीति के केंद्र में है। हाल ही में, चीन ने इस क्षेत्र को “शीज़ांग” कहकर प्रचारित करना शुरू किया है, जिसे वह तिब्बत का आधिकारिक नाम बताता है। यह कदम न केवल उसकी प्रचार रणनीति का हिस्सा है, बल्कि तिब्बत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कथानक पर नियंत्रण को और मजबूत करने का प्रयास भी है।
दूसरी ओर, भारत ने इस यात्रा को पूरी तरह आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखते हुए “तिब्बत” जैसे शब्दों से परहेज किया है, ताकि चीन के साथ कूटनीतिक प्रगति बरकरार रहे। इस बीच, तिब्बती समुदाय “ऑक्युपाइड तिब्बत” जैसे शब्दों के साथ अपनी आवाज़ उठा रहा है, जो 1950 के दशक में चीनी कब्जे के प्रति उनके दृष्टिकोण को दर्शाता है।
चीन ने हाल के वर्षों में तिब्बत को “शीज़ांग” के रूप में प्रचारित करने पर ज़ोर दिया है। यह शब्द, जो चीनी भाषा में तिब्बत के लिए प्रयोग होता है, बीजिंग की उस रणनीति का हिस्सा है, जिसके तहत वह तिब्बत को एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक इकाई के बजाय अपने प्रशासनिक क्षेत्र के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है।
X पर हाल की पोस्ट्स और चीनी सरकारी मीडिया के अनुसार, बीजिंग ने कैलाश मानसरोवर यात्रा को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाए हैं, जिसमें विदेशी तीर्थयात्रियों के लिए वीजा प्रक्रिया को आसान करना और क्षेत्र में बुनियादी ढाँचे का विकास शामिल है।
लेकिन, विशेषज्ञों का मानना है कि यह खुलापन केवल एक प्रचार रणनीति है। चीन की ‘शीज़ांग’ रणनीति का मकसद वैश्विक मंच पर यह दिखाना है कि तिब्बत में सब कुछ सामान्य है। लेकिन हकीकत में, तिब्बतियों की सांस्कृतिक पहचान और धार्मिक स्वतंत्रता को दबाया जा रहा है।”
चीन ने तिब्बत में मठों पर कड़ी निगरानी, धार्मिक नेताओं पर प्रतिबंध, और स्थानीय भाषा व संस्कृति को हतोत्साहित करने की नीतियाँ अपनाई हैं। कैलाश मानसरोवर यात्रा को प्रचारित करके, चीन न केवल पर्यटन से राजस्व कमाना चाहता है, बल्कि यह भी दिखाना चाहता है कि तिब्बत पूरी तरह उसके नियंत्रण में है। हालाँकि, तिब्बती समुदाय इसे “ऑक्युपाइड तिब्बत” कहकर चीनी कब्जे का विरोध करता है।
भारत ने कैलाश मानसरोवर यात्रा को हमेशा से एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक आयोजन के रूप में देखा है। विदेश मंत्रालय ने हाल ही में कहा, “कैलाश मानसरोवर यात्रा भारत के लाखों लोगों के लिए आस्था का प्रतीक है। हमारा ध्यान इस यात्रा को सुगम और सुरक्षित बनाने पर है, न कि इसे राजनीतिक रंग देने पर।”
भारत ने “तिब्बत” शब्द का उपयोग करने से परहेज किया है, ताकि चीन के साथ तनाव न बढ़े। यह कदम भारत की उस कूटनीतिक रणनीति का हिस्सा है, जो 2017 के डोकलाम विवाद और 2020 के गलवान संघर्ष के बाद से और सतर्क हो गई है।भारत सरकार ने यात्रा के लिए लिपुलेख दर्रा और नाथु-ला मार्ग को और विकसित किया है, ताकि तीर्थयात्रियों को सुविधा हो।
सामरिक मामलों के विशेषज्ञ ने कहा, “भारत का रुख समझदारी भरा है। वह न तो तिब्बत के मुद्दे को उत्तेजक बनाना चाहता है और न ही यात्रा को राजनीतिक रंग देना चाहता है। यह एक संतुलित कदम है, जो भारत-चीन संबंधों को स्थिर रखने में मदद करता है।”
वहीं तिब्बती समुदाय, विशेष रूप से निर्वासित तिब्बती सरकार और धर्मशाला में रहने वाले तिब्बती, “ऑक्युपाइड तिब्बत” शब्द का उपयोग करके चीनी कब्जे के प्रति अपनी नाराज़गी व्यक्त करते हैं। X पर तिब्बती कार्यकर्ताओं की पोस्ट्स में बार-बार यह माँग उठती है कि कैलाश मानसरोवर को तिब्बत के सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व के संदर्भ में देखा जाए, न कि चीन के प्रशासनिक क्षेत्र के रूप में।
धर्मशाला में रहने वाली एक तिब्बती कार्यकर्ता, तेनज़िन डोलमा ने कहा, “कैलाश मानसरोवर हमारे लिए केवल एक तीर्थस्थल नहीं, बल्कि हमारी पहचान का प्रतीक है। चीन इसे ‘शीज़ांग’ कहकर हमारी संस्कृति को मिटाने की कोशिश कर रहा है।”
कैलाश मानसरोवर यात्रा का मुद्दा न केवल भारत और चीन के बीच, बल्कि वैश्विक मंच पर भी चर्चा का विषय है। संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार संगठनों ने बार-बार तिब्बत में धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता के दमन पर सवाल उठाए हैं। लेकिन, चीन की आर्थिक और सामरिक ताकत के कारण, वैश्विक समुदाय इस मुद्दे पर खुलकर बोलने से हिचकता है।
भारत में, कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए उत्साह बढ़ रहा है। उत्तराखंड और सिक्किम जैसे राज्यों में तीर्थयात्रियों के लिए सुविधाएँ बढ़ाई जा रही हैं। लेकिन, तिब्बती समुदाय का मानना है कि इस यात्रा को केवल पर्यटन या आध्यात्मिक गतिविधि तक सीमित रखना उनके संघर्ष को कमज़ोर करता है।
कैलाश मानसरोवर यात्रा के इर्द-गिर्द चल रही कूटनीतिक और सांस्कृतिक बहस एक जटिल मुद्दा है। चीन की “शीज़ांग” रणनीति के बीच तिब्बती समुदाय की आवाज़ दब रही है।