शहरी नक्सलियों का गढ़ा हुआ नैरेटिव है कि ‘देश के जंगल केवल इसी लिए सुरक्षित हैं क्योंकि वहाँ माओवादी हैं’।
एक विमर्श में एक वाम-विचारक ने किसी लेख का हवाला देते हुए कहा कि तर्क के लिए अभी इसी क्षण से मान लीजिए कि माओवाद पूरी तरह समाप्त हो गया है, तब आप कल्पना कर सकते हैं कि अडानी-अंबानी जंगलों के भीतर घुस आए हैं.....कुछ ही वर्षों में जंगल पूरी तरह से साफ।
यदि हम अपने दिमाग को घर के भीतर छोड़ आएं और तब इसी बात को सुनें तो वाहवाही कर उठेंगे, तालियाँ बजेंगी, जल-जंगल-जमीन के नारे बुलंद होंगे, है कि नहीं?
वे लोग जिनके दिमाग उनके शरीर में निर्धारित स्थानों पर ही हैं, उनसे मेरा प्रश्न है कि भारत के कितने क्षेत्रफल पर माओवाद काबिज है?
भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) के दावे तो बड़े बड़े हैं लेकिन उनका अधिकतम प्रभाव अबूझमाड़ के एक हिस्से में ही रहा है।
कैलकुलेटर लेकर बैठिए क्योंकि थोड़े गुणा भाग करने होंगे। अबूझमाड़ का कुल क्षेत्रफल है 4000 वर्ग किलोमीटर और हमारे देश भारत का कुल क्षेत्रफल है 3,287,000 वर्ग किलोमीटर; अर्थात यह हिस्सा केवल 0.12% ही बनता है।
इसे समझिए कि देश का 99.88% क्षेत्रफल माओवादियों के कथित आधार क्षेत्र से इतर है, जिसमें अरुणाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश के सघन वन क्षेत्र सम्मिलित हैं।
छत्तीसगढ़ राज्य में अबूझमाड़ का कुल क्षेत्रफल 2.9% है, अर्थात यहाँ भी 97.1% राज्य परिक्षेत्र माओवाद की कथित अधिसत्ता से बाहर है।
छत्तीसगढ़ राज्य का कुल वन क्षेत्रफल है 55,812 वर्ग किलोमीटर, इसमें से 4000 वर्ग किलोमीटर को माओवाद प्रभावित मानकर घटा लेते हैं तो 51,812 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र पर माओवादी प्रभाव नहीं है।
अबूझमाड के सम्पूर्ण वन क्षेत्र पर भी अब माओवादी काबिज नहीं हैं और देश के भीतर कभी लाल गलियारा की हुंकार भरने वाले माओवादियों के पास छुटपुट कुछ प्रभावक्षेत्र अब भी हैं।
समग्रता से और परीक्षा में बहुत खुलकर, अधिक अंक देने वाले मास्टर से भी विवेचना करवा ली जाए तो भी देश के अधिक से अधिक 5000 वर्ग किलोमीटर वनक्षेत्र पर ही माओवादियों की कुछ पकड़ शेष है। यह भारत के कुछ क्षेत्रफल का केवल 0.15% हिस्सा बनता है।
इसमें भी यदि देखें तो भारत में कुल वन और वृक्ष आवरण का क्षेत्रफल 8,27,357 वर्ग किलोमीटर है, जो देश के भौगोलिक क्षेत्र का 25.17% है।
इस क्षेत्रफल से यदि माओवाद प्रभावित 5000 वर्ग किलोमीटर वनक्षेत्र (0.60%) हटा देते हैं तो आज भी कुल 822,357 वर्ग किलोमीटर (99.4%) जंगल माओवाद विहीन हैं।
सोचिए कि, क्या भारतीय वन क्षेत्र के केवल 0.60% क्षेत्र पर थोड़ा बहुत प्रभाव रखने वाले माओवादी सम्पूर्ण वन भूमि के संरक्षक हो सकते हैं?
यह भी सोचिए कि वे जंगल जहां माओवादी नहीं हैं, आखिर उनका संरक्षण कैसे हो रहा है?
कश्मीर से कन्याकुमारी तक, क्या वह इंच-इंच भूमि अडानी-अंबानी की हो गई जहां माओवादी नहीं थे, या जहां से खदेड़े गए?
यह भी सोचिए कि क्या वन क्षेत्र में परियोजनाएं लगाना आसान है?
घोषित होते ही वनभूमि किसी भी परियोजना के प्राधिकार में नहीं आती, इसके लिए एक लंबी प्रक्रिया है।
यदि वन क्षेत्र किसी राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव अभयारण्य, टाइगर रिजर्व आदि क्षेत्रों से संबंधित है, तो परियोजना के लिए वन्यजीव स्वीकृति को प्राप्त करना लगभग असंभव जैसी प्रक्रिया है।
ऐसे में माओवादी जाएंगे और पूंजीपति आएंगे और देश का सारा जंगल खा जाएंगे वाले नैरेटिव को जरा ठीक से समझिए।
हाँ, वन क्षेत्रों में संसाधन हैं और इसे लेकर अनेक के तर्क-वितर्क, कानूनी प्रक्रियाएँ, विमर्श यदि होते रहे हैं, गए भी होंगे।
इस सबका अर्थ यह नहीं कि माओवादी जंगल तो छोड़िए, किसी लकड़ी भर के भी संरक्षक करार दिए जाएँ।
वामपंथ के खोखले कुतर्क केवल संभावित डर पैदा करने और माओवाद को किसी भी तरह से सही ठहराने के लिए हैं।
लेख
राजीव रंजन प्रसाद
लेखक, साहित्यकार, विचारक, वक़्ता