पहचान की साजिश में घिरता भारत

02 Jul 2025 18:20:30
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एक पुरानी कहावत है, “अगर आप किसी राष्ट्र को भीतर से तोड़ना चाहते हैं, तो सबसे पहले उसकी जनता को उनकी असली पहचान से काटिए।” यह कोई काल्पनिक कथन नहीं, बल्कि आधुनिक भारत में व्यावहारिक रूप से अपनाई जा रही माओवादी रणनीति की मूल भावना है। बीते कुछ वर्षों में भारत ने अनुभव किया है कि हथियारों से सुसज्जित माओवादी संगठनों से कहीं अधिक खतरनाक हैं उनके शहरी नेटवर्क, जो विचार, विमर्श, और पहचान की राजनीति के ज़रिए भारतीय समाज में विभाजन के बीज बो रहे हैं।
 
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में भाषा, मत, वेश-भूषा, खान-पान और परंपराओं की पर्याप्त विविधता है, और ये विविधताएँ हमारी सबसे बड़ी सम्पदा भी हैं। किंतु चिंता तब उत्पन्न होती है जब इस विविधता का उपयोग सामाजिक समरसता को सुदृढ़ करने की बजाय राष्ट्रविरोधी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए किया जाए। शहरी माओवादी नेटवर्क गुप्त रूप से यही कर भी रहा है, जिस पर समाज को तत्काल सचेत होने की आवश्यकता है।
 
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इस विषय पर थोड़ी गहराई से अध्ययन करें तो पता चलता है कि सीपीआई (माओवादी) के रणनीतिक दस्तावेज़ 'Strategy and Tactics of Indian Revolution' में 'यूनाइटेड फ्रंट' की अवधारणा को विशेष महत्व दिया गया है। सरल शब्दों में इसका सीधा अर्थ है कि हर उस असंतुष्ट वर्ग, समूह या व्यक्ति को अपने पक्ष में जोड़ना, जिसे किसी न किसी रूप में राज्य या सामाजिक व्यवस्था से शिकायत है। इसमें जातीय, साम्प्रदायिक, क्षेत्रीय, वैचारिक या आर्थिक असंतोष से ग्रस्त समूह शामिल हैं। यही वह प्लेटफॉर्म है जिसके सहारे शहरी माओवादी पहचान की राजनीति को हवा देते हैं।
 
पहचान की राजनीति की सबसे गहरी जड़ें शिक्षा व्यवस्था में दिखाई देती हैं। विश्वविद्यालय परिसरों में छात्र संगठनों और तथाकथित प्रगतिशील समूहों के माध्यम से यह विमर्श फैलाया जाता है कि भारतीय संविधान, राज्यतंत्र और समाज संरचना केवल एक खास वर्ग के हित में काम करती है। छात्र जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही जब युवा यह मानने लगते हैं कि उनकी जाति, पन्थ या क्षेत्र के कारण उन्हें द्वितीय श्रेणी का नागरिक समझा जाता है, तो उनकी राष्ट्रीय चेतना क्षीण हो जाती है। यही वह मनोवैज्ञानिक आधारभूमि है, जहाँ माओवादी विचारधारा अपना घर बनाती है।
 
और केवल शिक्षा ही नहीं, साहित्य, मीडिया, सिनेमा और एनजीओ के माध्यमों से भी यही पहचान आधारित एजेंडा सुनियोजित ढंग से आगे बढ़ाया जाता है। मीडिया रिपोर्टिंग में घटनाओं को केवल जातीय, साम्प्रदायिक, या क्षेत्रीय चश्मे से देखा जाता है, जिससे समाज में वैमनस्य और असंतोष गहराता है। सिनेमा और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर ऐसी कहानियाँ परोसी जाती हैं, जिनमें भारत के सुरक्षा बलों को अत्याचारी, संविधान को खोखला और माओवादी हिंसा को 'जनता की प्रतिक्रिया' के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
 
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जनजाति समाज के संदर्भ में यह रणनीति और भी स्पष्ट रूप से सामने आती है। माओवादी संगठनों ने वर्षों तक यह प्रचारित किया कि जनजातियाँ हिन्दू नहीं हैं, उनकी संस्कृति कथित मुख्यधारा भारतीय संस्कृति से भिन्न है, और भारत सरकार उनकी दुश्मन है। इस नैरेटिव के माध्यम से जनजाति समाज में अलगाव की भावना गहरी की गई, जिससे माओवादी संगठन अपने 'माओवादी बेस' स्थापित कर सके। यही नहीं, माओवादियों ने 'वन अधिकार आंदोलन', 'पेसा एक्ट' और 'संविधान संशोधन' जैसे विषयों को भी केवल जनजातीय पहचान के चश्मे से देखने का आग्रह किया, जिससे भारतीय समाज में भिन्नतापरक दृष्टि उत्पन्न हुई।
 
इसी प्रकार कथित दलितों और मज़हबी अल्पसंख्यकों के संबंध में भी यही रणनीति अपनाई गई। तथाकथित प्रगतिशील समूहों, बुद्धिजीवियों और एनजीओ के माध्यम से यह नैरेटिव फैलाया गया कि भारतीय राज्यतंत्र, न्यायपालिका और प्रशासन केवल सवर्ण वर्ग के हित में काम करता है और बाकी समाज के लिए यह केवल शोषण का औजार है। इसी मानसिकता को गहरी जमाते हुए वे माओवादी नेटवर्क के लिए नए समर्थक और सहयोगी तैयार करते हैं।
 
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यूनाइटेड फ्रंट इसी पहचान आधारित असंतोष पर टिका हुआ है। यह कोई औपचारिक संस्था नहीं, बल्कि एक बहुस्तरीय, लचीला और बहुरूपी नेटवर्क है। इसमें मानवाधिकार कार्यकर्ता, पत्रकार, साहित्यकार, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनीतिक समूह, छात्र संगठन, एनजीओ, और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सक्रिय भारत विरोधी समूह शामिल होते हैं। यह सभी मिलकर समाज में ऐसा वैचारिक वातावरण तैयार करते हैं, जिससे माओवादी हिंसा भी 'जन आंदोलन' या 'जनता की प्रतिक्रिया' प्रतीत होने लगे।
 
इस पूरे इकोसिस्टम की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह प्रत्यक्ष हिंसा का हिस्सा नहीं बनता, बल्कि विचारों, विमर्श, और कानूनी हथियारों के माध्यम से माओवादी एजेंडे को वैचारिक वैधता प्रदान करता है। इसके चलते कई बार आम नागरिक भी यह पहचान नहीं पाता कि वह कब इस नेटवर्क के नैरेटिव का हिस्सा बन गया।
 
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भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में ऐक्य का सुन्दरतत्त्व विद्यमान है। इसलिए इतिहास में भी कभी पहचान की राजनीति यहाँ काम में नहीं लाई जा सकी। अर्बन नक्सल्स इसे भेदने में कुछ हद तक सफल रहे हैं। और संविधान ने प्रत्येक नागरिक को अपनी सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषायी और क्षेत्रीय पहचान बनाए रखने का जो अधिकार दिया है, माओवादी उन पहचानों का राष्ट्रविरोधी रणनीति के औजार के रूप में उपयोग कर रहे हैं। इसलिए यह न केवल भारत के अन्तर्निहित ऐक्य के लिए खतरा है, बल्कि सामाजिक समरसता और लोकतंत्र के लिए भी गंभीर चुनौती है।
 
ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि पहचान आधारित राजनीति के असल उद्देश्यों के साथ-साथ इससे बचने के उपायों को भी स्पष्ट किया जाए। समाज में यह समझ विकसित की जाए कि किसी भी समुदाय की शिकायतों और असंतोष को दूर करने के प्रयास संविधान और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के भीतर रहकर किए जाने चाहिए। यह बात डॉ. अम्बेडकर ने भी संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में की थी। इससे समझ आता है कि हमारे संविधान निर्माताओं को भी इस बात की पूरी चिन्ता थी कि पहचान को राष्ट्रविरोधी आंदोलनों और हिंसक विचारधाराओं से जोड़ना न केवल उस समुदाय के हित के विरुद्ध है, बल्कि भारत की संप्रभुता, अखंडता और लोकतंत्र के लिए भी घातक है। अतः इस चाल को समझना आवश्यक है।
 
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इसके साथ-साथ प्रशासनिक और सुरक्षा संस्थानों को भी शहरी माओवादी नेटवर्क और उनके यूनाइटेड फ्रंट की गतिविधियों पर पैनी निगरानी रखनी होगी। कानून व्यवस्था, न्यायपालिका और मीडिया में इस नेटवर्क की घुसपैठ को रोकना, देशविरोधी नैरेटिव्स का सशक्त प्रतिकार करना, और सामाजिक-आर्थिक विकास के ज़रिए असंतोष की जमीन को कमजोर करना समय की आवश्यकता है। विचारधारा की लड़ाई आज केवल जंगलों में नहीं, बल्कि शहरों के विश्वविद्यालय परिसरों, मीडिया मंचों, साहित्यिक आयोजनों और एनजीओ के गलियारों में लड़ी जा रही है। भारत की एकता, लोकतंत्र और विकास की रक्षा के लिए आवश्यक है कि पहचान की राजनीति को जितना जल्दी हो सके, तिलांजलि दी जाए और माओवादी नेटवर्क द्वारा उसके दुरुपयोग के मंसूबों को हर स्तर पर नाकाम किया जाए।
 
अंततः, भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र की असली ताकत उसकी विविधता में है, लेकिन जब यही विविधता पहचान की राजनीति के ज़रिए विखंडन का कारण बन जाए, तो राष्ट्र की एकता पर संकट आना स्वाभाविक है। माओवादी नेटवर्क इस संकट को और गहरा करने का प्रयास कर रहा है। ऐसे में भारत की जनता, विशेषकर युवा पीढ़ी को जागरूक होना होगा, पहचान की राजनीति के जाल को समझना होगा और अपने भारतीय होने की साझा पहचान को सर्वोपरि रखते हुए राष्ट्रविरोधी एजेंडों को हराना होगा। यह समय की मांग है।
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