समय का पहिया व्यक्तिगत जीवन के घाव भर सकता है लेकिन राष्ट्रीय घावों के लिए सुधार, आत्मस्वीकृति और इतिहास के साथ न्याय जरूरी होता है।
1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल को राष्ट्र की आत्मा के साथ हुआ एक अन्याय माना जाता है जो आज तक नहीं भुलाया गया।
हाल ही में संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने संविधान की प्रस्तावना से दो थोपे गए शब्द हटाने की बात रखी, जिससे विवाद बढ़ा।
संघ की शीर्ष कार्यकारी शक्ति ने यह मुद्दा विचारार्थ रखा, न कि कोई निर्णय सुनाया, फिर भी इसे लेकर राजनीतिक हंगामा मच गया।
संघ का कहना है कि आपातकाल के दौरान संसद स्थगित थी और न्यायपालिका समेत सभी संस्थाएं इंदिरा गांधी के अधीन हो गई थीं।
ऐसे में इन शब्दों को अब संविधान में स्थान नहीं मिलना चाहिए क्योंकि वे अवैध परिस्थितियों में जोड़े गए थे।
उस समय देश में 'इंदिरा इज इंडिया' जैसा माहौल था जिसमें किसी तरह की लोकतांत्रिक प्रक्रिया संभव नहीं थी।
1976 के 42वें संविधान संशोधन में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्द जोड़े गए थे, जबकि प्रधानमंत्री का चुनाव अवैध घोषित हो चुका था।
इस संशोधन में इंदिरा गांधी ने न्यायपालिका की शक्तियों को सीमित कर संविधान में कई असंगत बदलाव कर डाले थे।
धर्मनिरपेक्षता शब्द का कोई ठोस अर्थ नहीं होता, और भारत की संसद 'धर्म चक्र प्रवृत्तनाय' की भावना के साथ चलती है।
संविधान में 'यदो धर्मस्य तपोजया' जैसे शब्दों की उपस्थिति यह सिद्ध करती है कि व्यवस्था धर्म आधारित है, न कि धर्म से निरपेक्ष।
धर्म निरपेक्षता को संघ एक निरर्थक शब्द मानता है जिससे भारत की व्यवस्थाओं को कोई वास्तविक संबंध नहीं लगता।
दूसरा शब्द 'समाजवाद' इंदिरा गांधी की गरीब हितैषी छवि गढ़ने और आपातकाल के पापों को ढकने का एक राजनैतिक प्रयास था।
'गरीबी हटाओ' के नारे में विश्वसनीयता लाने के लिए ही संविधान में समाजवाद शब्द जोड़ा गया जो मात्र एक अभिनय था।
संघ का कहना है कि अगर प्रजातांत्रिक सहमति बने तो ये शब्द हट सकते हैं, अन्यथा बहस के लिए दरवाजे खुले रहें।
संविधान में ये शब्द तब जोड़े गए जब संसद, न्यायपालिका और लोकतंत्र के सभी स्तंभ निष्क्रिय और बेबस थे।
धर्मनिरपेक्षता जैसे 'अशब्द' का कोई आधार भारतीय संस्कृति में नहीं है जहां हर व्यवहार, परंपरा और नीति धर्म से जुड़ी होती है।
इन शब्दों पर एक और जरूरी बात यह है कि संविधान सभा ने इन्हें पहले ही अस्वीकार कर दिया था।
नेहरू, पटेल, अंबेडकर जैसे नेताओं ने विस्तृत चर्चा के बाद इन्हें भारतीय समाज के लिए अनुपयुक्त माना था।
उस समय संविधान सभा में कांग्रेस का बहुमत था, फिर भी इन शब्दों को जगह नहीं मिली थी।
इंदिरा गांधी ने 1976 में आपातकाल के दौरान इन शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ कर लोकतंत्र की भावना को ठेस पहुंचाई।
संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 में धार्मिक स्वतंत्रता का स्पष्ट प्रावधान है, जिससे धर्मनिरपेक्षता शब्द की आवश्यकता नहीं रहती।
प्रो. के.टी. शाह, एच.वी. कामथ और हसरत मोहानी ने इन शब्दों का समर्थन किया था लेकिन अंबेडकर ने अस्वीकार कर दिया।
अंबेडकर ने कहा था कि समाजवाद एक नीति है, जिसे संविधान में बाध्यता के रूप में नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
संविधान सभा की मान्यता थी कि आर्थिक नीतियों का निर्धारण निर्वाचित सरकारों पर छोड़ देना चाहिए, न कि संविधान में दर्ज करना।
संघ इन शब्दों को संविधान में फेब्रिकेट किए जाने की बात कहता है और संविधान हत्या दिवस पर इस पर बहस चाहता है।
वह कहता है कि जो लोग संविधान की हत्या कर चुके हैं, वे आज संविधान की प्रतियां हाथ में लिए घूमते हैं।
भारत को अपनी गरिमा बचाने के लिए अब क्षमा मांगने की संस्कृति अपनानी चाहिए, चाहे वह ब्रिटिश राज से हो या कांग्रेस से।
कांग्रेस और विशेषतः गांधी परिवार को आपातकाल लगाने और संविधान की हत्या के लिए देश और संसद से क्षमा मांगनी चाहिए।
जो लोग हजारों लोगों को जेलों में ठूंस कर, जबरन नसबंदी कर इतिहास के दोषी बने, उन्हें माफी मांगनी ही होगी।
लेख
डॉ. प्रवीण दाताराम
नियमित सतंभकार एवं लेखक