75 दिन की आस्था और परंपरा की कहानी, बस्तर दशहरा आज से शुरू

आज से बस्तर दशहरा की शुरुआत; दंतेश्वरी देवी की अनुमति के बाद निकलेगा रथ, हर अनुष्ठान में झलकेगी 618 साल पुरानी परंपरा।

The Narrative World    24-Jul-2025
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आज से बस्तर में शुरू हो रहा है 75 दिन तक चलने वाला विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा।
 
जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर के सामने पाट जात्रा की प्रथा से इसकी शुरुआत होगी।
 
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खास बात यह है कि यहां दशहरा पर रावण नहीं जलाया जाता, बल्कि देवी की अनुमति लेकर रथ की परिक्रमा की जाती है। यह परंपरा 618 साल पुरानी है।
 
बस्तर दशहरा दो वजहों से अनोखा है। एक, यह देश का सबसे लंबा चलने वाला त्योहार है, जो पूरे 75 दिन चलता है।
 
दूसरा, यहां रावण दहन नहीं होता, बल्कि देवी दंतेश्वरी की पूजा, रथ परिक्रमा और पारंपरिक अनुष्ठान किए जाते हैं।
 
हरेली अमावस्या के दिन पाट जात्रा विधान होता है। जंगल से लकड़ियां लाई जाती हैं, जिनसे रथ बनाया जाता है। पहले डेरी गढ़ाई, फिर काछनगादी की रस्म होती है।
 
नवरात्र से पहले राज परिवार देवी काछन से रथ परिक्रमा और दशहरा मनाने की अनुमति लेता है।
 
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देवी की अनुमति कांटों से बने झूले पर झूलकर दी जाती है। यह रस्म एक कुंवारी कन्या निभाती है।
 
पिछले 22 पीढ़ियों से पनका जाति की कन्याएं यह परंपरा निभा रही हैं।
 
बस्तर दशहरा की शुरुआत तब हुई जब तात्कालिक राजा पुरुषोत्तम देव भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने पुरी पहुंचे थे।
 
उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर जगन्नाथ ने उन्हें स्वप्न में ‘रथपति’ की उपाधि देने को कहा।
 
पुरी के पुजारी ने राजा को 16 चक्कों का रथ भेंट किया था। उस रथ को राजा ने तीन हिस्सों में बांटकर बस्तर लाया था।
 
इनमें से दो रथ आज भी दशहरा में इस्तेमाल होते हैं – फूल रथ और विजय रथ।
 
बेड़ा-उमड़ और झाड़-उमर गांव के लोग पीढ़ियों से रथ बनाते आ रहे हैं।
 
साल और बीजा की लकड़ी से बनने वाले रथों की परिक्रमा नवरात्र की सप्तमी से शुरू होती है।
 
नवमी और दशहरे के दिन विजय रथ की परिक्रमा होती है।
 
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सिर्फ किलेपाल गांव के लोग ही इन रथों को खींचने का अधिकार रखते हैं।
 
एक रोचक परंपरा है ‘भीतर रैनी’ और ‘बाहर रैनी’। कहा जाता है कि एक बार ग्रामीण दशहरे के बाद नाराज होकर रथ चुराकर कुम्हड़ाकोट ले गए थे।
 
राजा को रथ वापस पाने के लिए ग्रामीणों के गांव जाकर उनके साथ नवाखानी (नवीन अन्न भोज) करना पड़ा था। तभी से यह परंपरा चली आ रही है।
 
आज भी विजयादशमी की रात यह रस्म निभाई जाती है।
बस्तर दशहरा सिर्फ एक पर्व नहीं, जनजाति संस्कृति, परंपरा और आस्था का अद्भुत संगम है।
 
रावण के पुतले नहीं जलते, बल्कि देवी से अनुमति लेकर पूरा बस्तर रथ परिक्रमा में भाग लेता है। यही इस पर्व की पहचान है।
 
लेख
शोमेन चंद्र
तिल्दा, छत्तीसगढ़