माओवाद और नैरेटिव (भाग – 7): सड़क नहीं होगी तो सरकार भी नहीं होगी

अबूझमाड़ में सड़कें नहीं थीं, इसी खालीपन में माओवादियों ने खड़ा किया आतंक का अड्डा। पढ़िए शृंखला का सातवाँ आलेख।

The Narrative World    04-Jul-2025
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बस्तर परिक्षेत्र में सड़क और माओवाद हमेशा एक बड़े नैरेटिव का हिस्सा रहे हैं। आज जब भी हम बस्तर के भीतर से आने वाले समाचारों, विशेष रूप से अबूझमाड़ के नक्सल परिक्षेत्रों और विकास की परिचर्चाओं से दोचार होते हैं, तब सड़क पर विशेष रूप से विमर्श सामने आता है।
 
इसे समझने के लिए हमें तीन पक्ष जानने होंगे - पहला रियासतकाल में बनने वाली सड़कें, दूसरा स्वतंत्रता के पश्चात के प्रयास और तीसरा माओवाद के बाद की स्थिति। यहाँ हमें कुछ और बातें भी स्पष्ट होंगी, जैसे नर्म वामपंथ और उग्रवामपंथ दोनों में केवल कार्यशैली का अंतर है और दोनों से परिणाम एक जैसे ही प्राप्त होने हैं।
 
विमर्श की सुविधा के लिए सड़कों को लेकर नीति और समझ को चार विंदुओं में समझने का यत्न करते हैं। ये विंदु हैं – रियासत कालीन योजनाएँ, स्वतंत्र भारत के प्रशासकों के कदम, माओवादियों द्वारा सड़कों का नाश तथा बदलावों की दशा और दिशा।
 
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बस्तर रियासत का गजट मानी जाती है पं. केदारनाथ ठाकुर की पुस्तक ‘बस्तर भूषण’, जोकि वर्ष 1910 में प्रकाशित हुई थी। यह पुस्तक तत्कालीन बस्तर का इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र, भूगोल आदि का समग्र दस्तावेज है। इस पुस्तक में हमें उस दौर में विकास की जो अवधारणा थी, इसकी स्पष्ट झलक मिलती है।
 
जगदलपुर से चांदा जाने वाली सड़क सन 1904 में पूरी कर ली गई, जो एक छोर से अबूझमाड़ को छूकर गुजरती थी। सन 1907 ई. तक अतिदुर्गम मार्ग ‘कोंडागाँव-नारायनपुर-अंतागढ़’ तक सड़क बना ली गई थी, जिसे बाद में डोंडीलोहारा होते हुए राजनांदगाँव तक बढ़ा दिया गया। यह सड़क भी अबूझमाड़ तक रियासतकालीन दस्तक थी। इसके अतिरिक्त भीतरी क्षेत्रों में कच्चे और बैलगाड़ी के रास्ते भी तब निर्मित किए गए थे।
 
पुस्तक में स्पष्टता है कि दुर्गम क्षेत्र होने के कारण सड़क निर्माण का कार्य आसान नहीं है, अत: प्रमुख मार्गों की निर्माण के पश्चात भीतरी अबूझमाड़ में संपर्क मार्गों का विकास किया जाएगा।
 
स्वतंत्रता पश्चात बस्तर को जो आरंभिक प्रशासक मिले, उन्होंने अनेक ऐसी गलतियाँ की हैं जिसकी आज भी भरपाई नहीं हो सकी है। ब्रम्हदेव शर्मा, जो साठ के दशक में कलेक्टर थे, उन्होंने तय किया कि अबूझमाड़ में सड़कें नहीं बनने दी जायेंगी। उनका मानना था कि जहाँ सड़कें जाती हैं, सड़कों की बीमारी भी साथ जाती है, अर्थात जनजातीय समाज को मुख्यधारा से अलग रखा जाना चाहिए। सड़कें नहीं बनीं और अबूझमाड़ को सप्रयास मानव संग्रहालय बना दिया गया।
 
हमें संज्ञान में लेना होगा कि ब्रम्हदेव शर्मा का वामपंथ की ओर झुकाव स्पष्ट रहा है, यही नहीं, वे उग्र वामपंथ के लिए भी मित्रवत थे; तभी नक्सलियों की ओर से उन्होंने कलेक्टर अपहरण प्रकरण में मध्यस्थता भी की थी। सड़कविहीनता की स्थिति से लाभ उठाकर माओवादी बस्तर के भीतर प्रवेश करते हैं।
 
 
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अबूझमाड़ को वे आधार इलाका केवल इसलिए बना पाते हैं क्योंकि वहाँ सड़क नहीं थी, प्रशासन नहीं था, पुलिस नहीं थी, और यह सब केवल इसलिए क्योंकि एक दौर का कलेक्टर ऐसा ही चाहता था; आश्चर्य, लेकिन यही सच है।
 
माओवादियों ने आधार इलाका अर्थात अबूझमाड़ को सभी ओर से सुरक्षित करने के लिए जो भी सक्रिय सड़कें उस ओर जाती थीं, सभी को नष्ट कर दिया। जो कच्चे रास्ते थे, वे पहले बड़ी-बड़ी डाइक अथवा नियमित अंतराल पर समानांतर गड्ढे खोदकर माओवादियों द्वारा नष्ट करवा दिए गए। विस्फोटकों ने पक्की सड़कों के नाम-निशान भी रहने नहीं दिए, अनेक स्थानों पर तो स्वयं ग्रामीणों ने दबाव में आकर अपने ही क्षेत्र के आवागमन मार्ग को नष्ट किया।
 
 
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इस तरह से एक व्यापक किलेबंदी की गई और अबूझमाड़ को माओवादियों ने अपने लिए सर्वथा सुरक्षित बना लिया। यही नहीं, उन समयों में एरिया डोमिनेशन के तहत वे जहां-जहां भी आगे बढ़ते गए, क्षेत्र की सड़कों को मिटाते गए।
 
अभी एक दशक पहले तक गीदम से कोन्टा या गीदम से भोपालपट्टनम जाना कठिनतम कार्य हुआ करता था क्योंकि ये राजमार्ग असंख्य स्थानों पर माओवादियों द्वारा काट दिए गए थे।
 
मैं माओवादियों की उपराजधानी कहे जाने वाले जगरगुंडा में उस दौर में भी गया हूँ जब यहाँ तक पहुंचना असंभव की श्रेणी में आता था और आज यही परिक्षेत्र एक ओर दोरनापाल और दूसरी ओर अरणपुर के द्वारा जुड़ा गया है। पहले माओवाद यहाँ का वर्तमान था जो आज इतिहास हो गया है।
 
शहरी नक्सलियों का यह बहुचर्चित नैरेटिव है कि आजादी के इतने साल बाद भी जब सड़कें नहीं होंगी तो माओवादी क्यों नहीं होंगे? इस पूरी रूपरेखा को सामने रखकर हमें यह समझना होगा कि सड़क और माओवाद का क्या संबंध है।
हमें यह भी रेखांकित करना होगा कि माओवाद को बंदूक से तो हराया जा रहा है, अब अबूझमाड़ के भीतर तक पहुँचती सड़कों ने भी उनकी हार तय की है।
 
 
लेख
 
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राजीव रंजन प्रसाद
लेखक, साहित्यकार, विचारक, वक़्ता