माओवाद और नैरेटिव (भाग – 8): माओवादियों का क्षेत्रीयतावाद

बस्तर के माओवादियों को आगे नहीं बढ़ने देते आंध्र-तेलंगाना के नेता, संगठन के अंदर भी है क्षेत्रीय भेदभाव! पढ़िए शृंखला का आठवाँ आलेख।

The Narrative World    08-Jul-2025
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वामपंथियों ने देश के भीतर की हर दरार को चौड़ा करने का कार्य किया है। ध्यान से देखें तो प्रांतवाद, भाषावाद, जातिवाद, यहाँ तक कि साम्प्रदायवाद के पीछे भी, किसी न किसी रूप में लाल सलाम दिखाई पड़ जाएगा।
 
किताबी रूप से सारी दुनिया एक समान का सपना देखने वालों का अस्तित्व ही टुकड़े-टुकड़े में है। शायद इसीलिए देश ने लाल-समूह का स्वाभाविक नामकरण टुकड़े-टुकड़े गैंग के रूप में किया है।
 
वाम प्रगतिशीलता की पोल-पट्टी खोलने के यत्न में विषयांतर का भय है। अत: इसी तथ्य की विवेचना हम माओवाद के संदर्भ में करते हैं।
 
वर्ष 2005 में जब देश भर में फैले उग्र-वामपंथी धड़ों का एकीकरण हुआ, तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) अस्तित्व में आई। सीपीआई (माओवादी) पोलित ब्यूरो भारत में प्रतिबंधित माओवादी विद्रोही समूह के भीतर एक उच्च स्तरीय निर्णय लेने वाला निकाय है।
 
 
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यदि समय पर्यंत के इसके सदस्यों को देखें, तो अधिकांश सदस्य आंध्र-तेलंगाना के रहे हैं, आखिर क्यों?
 
साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के अनुसार, 2004 में पोलित ब्यूरो के सदस्यों की संख्या 16 थी, जो वसवराजू के मारे जाने के बाद की परिस्थितियों तक केवल तीन रह गई है। इनमें भी मुपल्ला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति तथा मल्लजुला वेणुगोपाल राव उर्फ सोनू का संबंध आंध्र-तेलंगाना है, जबकि अकेले मिसिर बेसरा झारखंड का रहने वाला है।
 
इसके अतिरिक्त, केन्द्रीय समिति के 18 सदस्य अभी भी सक्रिय हैं, जिनमें से अधिकतर या तो छिपे हुए हैं या इतने वृद्ध हैं कि प्रभावी ढंग से कार्य नहीं कर सकते।
 
इसी स्थिति में केन्द्रीय समिति के माओवादियों सहित अन्य चर्चित बड़े नामों की विवेचना करें तो वे भी अधिकांश आंध्र-तेलंगाना के निवासी हैं।
 
तेलंगाना से जो सक्रिय व चर्चित नाम हैं, जो पुलिस द्वारा समय-समय पर जारी मोस्ट वांटेड की सूची में भी हैं, उनमें प्रमुख हैं - बल्लरी प्रसाद राव (करीमनगर), के रामचन्द्र रेड्डी (करीमनगर), मोडेम बालाकृष्णा (वारंगल), गणेश उईके (नालकोंडा), सुजाता (महबूबनगर) आदि। अन्य राज्यों से अनल दा उर्फ पतिराम माझी, जोकि गिरीडीह झारखण्ड जैसे गिनती के नाम ही हैं, जो संगठन के उच्च पदों तक पहुँच पाते हैं।
 
 
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छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग से वरिष्ठतम कैडरों का अकाल है, केवल एक नाम माडवी हिड़मा ही उल्लेखनीय है, जो कि सुकमा जिले के पूवर्ती ग्राम (जगरगुण्डा) का रहने वाला है।
 
वस्तुत: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के गठन के बाद इसके अंदर सम्मिलित हुए विभिन्न घटकों में भी आपसी खींचतान बनी हुई थी। वर्चस्व की इस लड़ाई में बाजी मारी गठजोड़ के सबसे प्रमुख घटक अर्थात पीपुल्स वार ग्रुप ने।
 
अपना आधिपत्य बनाए रखने के लिए तत्कालीन महासचिव गणपति ने सप्रयास आंध्र-तेलंगाना का वर्चस्व संगठन में बनाया और उसे उसके पश्चात वसवराजू ने भी कायम रखा।
 
यहाँ ध्यान देना होगा कि जब तक नक्सल आधार क्षेत्र में सीधे सुरक्षाबल नहीं घुसे थे और निर्णायक लड़ाई आरंभ नहीं हुई थी तब तक संगठन में मरने वाला कैडर स्थानीय था जिसका नाम-निशानलेवा बने संभवत: कोई नहीं।
 
छत्तीसगढ़ में बस्तर संभाग से बड़ी संख्या में स्थानीयों को तो माओवादियों के अपने कैडर बढ़ाने के लिए लक्ष्यित किया लेकिन एक सीमा के बाद उसे नक्सल संगठन में कोई जगह या पद नहीं दिया गया।
 
इस विवेचना के माध्यम से मैं केवल यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहा हूँ कि मार्क्सवाद-माओवाद के नाम पर कोरा गप्पवाद और अवसरवाद है, संगठन में वर्चस्व का संघर्ष प्राथमिकता रहा और वर्गसंघर्ष ऐसा ही था जैसे भेड़िया भेड़ की खाल पहने।
 
क्षेत्रीयतावाद आज ऐसे समय पर भी हावी है जबकि संगठन में वरिष्ठ सदस्य उंगलियों पर गिने जा सकते हैं।
 
लेख
 
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राजीव रंजन प्रसाद
लेखक, साहित्यकार, विचारक, वक़्ता