वीर सावरकर की प्रशंसा से क्यों बौखलाए कम्युनिस्ट?

सावरकर की प्रशंसा पर कम्युनिस्टों का तिलमिलाना इस बात का सबूत है कि उनकी विचारधारा अब भी विदेशी सोच की गुलाम बनी हुई है।

The Narrative World    18-Aug-2025
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भारत की आज़ादी की कहानी त्याग और बलिदान से भरी हुई है। लाखों लोगों ने अपने प्राण दिए ताकि आने वाली पीढ़ियां स्वतंत्रता का आनंद ले सकें। लेकिन दुख की बात है कि आज भी कुछ ताकतें देशभक्तों और सच्चे क्रांतिकारियों के योगदान को नकारने में लगी रहती हैं। इसमें सबसे आगे हैं कम्युनिस्ट, जिनकी राजनीति हमेशा राष्ट्र विरोधी रुख और टुकड़े-टुकड़े गिरोह की मानसिकता से जुड़ी रही है।
 
केरल की घटना इसका ताजा उदाहरण है। CPI के स्थानीय नेता शुहैब मोहम्मद ने वीर सावरकर की आज़ादी की लड़ाई में भूमिका को स्वीकार करते हुए उनकी प्रशंसा की। उन्होंने साफ कहा कि इतिहास के विद्यार्थी सावरकर को नजरअंदाज नहीं कर सकते। जेल की यातनाएं, 14 साल की कालापानी की सजा और साथियों के दिलों में देशभक्ति का बीज बोना – यह सब सावरकर की महानता साबित करता है।
 
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लेकिन CPI ने तुरंत उन्हें निलंबित कर दिया। सवाल यह है कि जिन लोगों को भारत तोड़ने वाले विचारों का समर्थन करने पर कोई दिक्कत नहीं होती, वे सावरकर जैसे महान स्वतंत्रता सेनानी की तारीफ सुनकर क्यों बौखला जाते हैं? यह कम्युनिस्टों की असली सोच को उजागर करता है।
 
यही नहीं, स्वतंत्रता दिवस पर जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने RSS की सेवा भावना और 100 साल की यात्रा की सराहना की, तब CPI(M) ने इसे “शर्मनाक” करार दिया। CPI(M) महासचिव एम. ए. बेबी ने आरोप लगाया कि RSS ने स्वतंत्रता संग्राम में कोई भूमिका नहीं निभाई और प्रधानमंत्री ने बलिदानियों की स्मृति का अपमान किया।
 
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यह वही CPI(M) है जो हमेशा गांधी, बोस, भगत सिंह और अशफाक उल्लाह खान जैसे नाम गिनाकर अपनी झूठी नैतिकता का ढोल पीटती है। लेकिन यह कभी स्वीकार नहीं करती कि देश की आज़ादी के वक्त कम्युनिस्टों का रुख ब्रिटिश समर्थक था। वे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ थे और आज भी राष्ट्रवादी संगठनों की भूमिका को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं।
 
कम्युनिस्टों की आदत है कि वे इतिहास को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं। जिन्ना और मुस्लिम लीग की अलगाववादी राजनीति पर वे चुप रहते हैं, लेकिन हिन्दुत्व की बात आते ही उन्हें समस्या होती है। सावरकर की यातनाओं और उनके राष्ट्रवादी विचारों को नकारना उनके लिए आसान है, लेकिन विदेशी विचारधारा के गुलाम बनकर घूमना उन्हें गर्व की बात लगता है।
 
सच्चाई यह है कि कम्युनिस्ट कभी भी भारत की अस्मिता और एकता के पक्षधर नहीं रहे। उनका रुख हमेशा सत्ता, विचारधारा और विदेशी हुक्मरानों के इशारों पर आधारित रहा है। आज भी वे वही कर रहे हैं। RSS जैसे संगठन, जिसने समाज सेवा और राष्ट्रनिर्माण में अहम योगदान दिया है, उसे बदनाम करना उनका प्रिय शगल है।
 
कम्युनिस्टों का इतिहास गवाह है कि वे न तो आज़ादी के सच्चे योद्धाओं के साथ खड़े रहे और न ही आज़ाद भारत के निर्माण में कोई सकारात्मक योगदान दे पाए। जो लोग वीर सावरकर जैसे महान सेनानी की प्रशंसा बर्दाश्त नहीं कर सकते और RSS जैसी संस्था की सेवा भावना को “शर्मनाक” कहते हैं, वे केवल अपनी मानसिक दिवालियापन साबित करते हैं।
 
लेख
शोमेन चंद्र
तिल्दा, छत्तीसगढ़