भारत के संवैधानिक ढांचे में उपराष्ट्रपति का पद केवल शिष्टाचार या औपचारिकता नहीं है। यह देश के सर्वोच्च पदों में से एक है, जो राज्यसभा की अध्यक्षता करता है और आपात परिस्थितियों में राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उनकी भूमिका निभा सकता है।
ऐसे अहम पद पर किसे बैठाया जाता है, यह पूरे देश की दिशा और दृष्टि को परिभाषित करता है। लेकिन कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने इस पद के लिए जिस व्यक्ति को चुना है, उसने राष्ट्रीय सुरक्षा और नक्सलवाद के मुद्दे पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं।
इंडिया ब्लॉक ने पूर्व सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश बी. सुदर्शन रेड्डी को उपराष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया है। सतही तौर पर देखें तो यह नियुक्ति “कानूनी पृष्ठभूमि वाले विद्वान व्यक्ति” का चयन प्रतीत होती है। लेकिन उनके अतीत में झांकते ही तस्वीर बदल जाती है।
रेड्डी वही न्यायाधीश हैं, जिन्होंने 2011 में छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम को असंवैधानिक घोषित किया था। यह फैसला उस समय माओवादी हिंसा से जूझ रहे छत्तीसगढ़ के लिए गहरा झटका था।
सलवा जुडूम कोई साधारण नीति नहीं थी। यह दरअसल स्थानीय जनजातीय समाज के भीतर से उठा एक जनआंदोलन था, जिसे राज्य के नेतृत्वकर्ताओं ने दिशा दी। जनजातीय युवाओं को सुरक्षा बलों के साथ जोड़कर उन्हें नक्सलियों से लड़ने का अवसर दिया गया। इसका उद्देश्य केवल हथियारबंद संघर्ष नहीं था, बल्कि जनजातियों को माओवादी आतंक से मुक्त कराना था। लेकिन रेड्डी के फैसले ने इस आंदोलन की कमर तोड़ दी।
कांग्रेस और वामपंथी समूहों ने उस समय इसे “मानवाधिकार का विषय” बताकर खूब ताली बजाई, लेकिन परिणाम यह हुआ कि बस्तर में नक्सलियों का हौसला और बढ़ गया। जिन परिवारों ने अपने बेटों को नक्सली हिंसा से बचाने के लिए सलवा जुडूम का हिस्सा बनाया था, वे असहाय रह गए।
रेड्डी का फैसला दिल्ली विश्वविद्यालय की कम्युनिस्ट प्रोफेसर नंदिनी सुंदर की याचिका पर आया था। नंदिनी सुंदर वो हैं, जिन पर बस्तर में नक्सली हिंसा को समर्थन देने और जनजातियों को बरगलाने के गंभीर आरोप लगे हैं। उन पर हत्या का मामला भी दर्ज हुआ, जिसे राजनीतिक दबाव में वापस ले लिया गया। क्या यह महज संयोग है कि रेड्डी ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया और माओवादी विरोधी नीति को धराशायी कर दिया?
यही कारण है कि यह निर्णय हमेशा विवादों में रहा और इसे न्यायपालिका में वामपंथी झुकाव का प्रतीक माना गया। रेड्डी का नाम आज भी उस फैसले से जुड़ा है, जिसने माओवादियों को राहत दी और राज्य सरकार की पीठ पर छुरा घोंपने जैसा काम किया।
कांग्रेस पार्टी खुद को हमेशा लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता की हितैषी बताती रही है। लेकिन जब भी मामला वामपंथी या नक्सल समर्थक तत्वों का आता है, उसका रवैया बिल्कुल अलग हो जाता है।
सलवा जुडूम को खत्म करने की कोशिशें हों, नक्सलियों से बातचीत की पैरवी हो या फिर ऐसे लोगों को ऊंचे पदों पर पहुंचाना हो, कांग्रेस लगातार ऐसे समूहों के प्रति सहानुभूति दिखाती रही है।
अब उपराष्ट्रपति पद के लिए रेड्डी का नाम आगे बढ़ाकर कांग्रेस ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि उसकी प्राथमिकता राष्ट्रीय सुरक्षा नहीं, बल्कि वामपंथी एजेंडा है। आखिर क्यों कांग्रेस बार-बार उन व्यक्तियों को आगे बढ़ाती है, जिनकी पहचान नक्सल समर्थक फैसलों या विचारधारा से जुड़ी है? क्या कांग्रेस को लगता है कि देश भूल चुका है कि नक्सलवाद ने कितने निर्दोष लोगों की जान ली है?
नक्सलवाद कोई विचारधारा भर नहीं है; यह देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है। पिछले पांच दशकों में हजारों जवान और आम नागरिक नक्सली हिंसा के शिकार हुए हैं।
ऐसे में, विपक्ष का यह निर्णय कि एक ऐसे व्यक्ति को उपराष्ट्रपति पद के लिए आगे किया जाए, जिसने माओवादी विरोधी नीति को असंवैधानिक करार दिया था, बेहद खतरनाक संकेत देता है। यह उस पुरानी मानसिकता को जीवित करता है, जिसमें आतंकियों और नक्सलियों को “भटके हुए बच्चे” कहकर उनके अपराधों को वैचारिक चादर से ढक दिया जाता था।
यह चुनाव महज एक संवैधानिक पद के लिए नहीं है। यह तय करेगा कि देश किस दिशा में बढ़ेगा, क्या हम सुरक्षा को दांव पर लगाकर वामपंथी राजनीति को तवज्जो देंगे, या फिर राष्ट्रहित को सर्वोच्च मानकर आगे बढ़ेंगे।
कांग्रेस को यह स्पष्ट करना चाहिए कि उसने रेड्डी जैसा विवादित नाम क्यों चुना। क्या यह महज संयोग है कि उनका फैसला नक्सलियों के पक्ष में गया था? या फिर यह एक सोची-समझी रणनीति है, जिसके जरिए कांग्रेस और उसके सहयोगी दल ऐसे चेहरों को संवैधानिक पदों तक पहुंचाना चाहते हैं, जो वामपंथी विचारधारा और नक्सल समर्थक दृष्टिकोण रखते हों?
देश को जवाब चाहिए कि कांग्रेस की प्रतिबद्धता आखिर किसके प्रति है, राष्ट्र की सुरक्षा के प्रति या फिर नक्सली विचारधारा को वैचारिक संरक्षण देने के प्रति?
नक्सलवाद को लेकर भारत का रुख अब साफ है कि इसका खात्मा ही अंतिम समाधान है। कांग्रेस का यह फैसला न केवल उसकी राजनीतिक सोच पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि वह आज भी राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे को गंभीरता से नहीं ले रही।
देश को ऐसे उपराष्ट्रपति की जरूरत है, जो न केवल संवैधानिक जिम्मेदारियों को निभाए, बल्कि देश की एकता और सुरक्षा को सर्वोपरि रखे। रेड्डी जैसे नामों को आगे बढ़ाकर कांग्रेस ने एक खतरनाक मिसाल कायम की है, जिसका विरोध हर राष्ट्रप्रेमी नागरिक को करना चाहिए।