2025 माओवादियों के लिए अब तक का सबसे बुरा साल साबित हो रहा है। कभी खौफ और आतंक के बल पर जनजाति इलाकों में अपनी पकड़ मजबूत करने वाले नक्सली अब मौत, गिरफ्तारी और आत्मसमर्पण की लहर से टूटते जा रहे हैं। ताजा आंकड़े बताते हैं कि जनवरी से अगस्त 2025 तक माओवादी नेटवर्क पर लगातार करारे प्रहार हुए हैं।
बड़ी कामयाबी: सैकड़ों माओवादी ढेर
सिर्फ छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में ही इस साल अब तक 127 माओवादी मारे गए हैं। पूरे देश की बात करें तो जुलाई तक यह आंकड़ा 464 तक पहुंच चुका है। 300 से ज्यादा माओवादी पुलिस की गिरफ्त में आए और बीजापुर में ही 240 से अधिक नक्सलियों ने हथियार डाल दिए।
सरकार की पुनर्वास योजनाएं जैसे पूना मार्गम और लगातार चल रही सुरक्षाबलों की सख्त कार्रवाई ने इन माओवादियों को रास्ता बदलने पर मजबूर कर दिया है। मार्च 2025 में तो एक ही दिन में 64 माओवादी आत्मसमर्पण कर चुके हैं।
शीर्ष नेतृत्व का खात्मा
2025 में नक्सलियों का सबसे बड़ा नुकसान उनके शीर्ष नेताओं के खात्मे के रूप में हुआ। माओवादी संगठन का सर्वोच्च कमांडर और जनरल सेक्रेटरी नंबाला केशवा राव उर्फ बसवराजु मई 2025 में 50 घंटे लंबी कार्रवाई के बाद मारा गया। उस पर 1.5 करोड़ का इनाम था और उसने देश में कई बड़े हमलों की साजिश रची थी।
इसके अलावा, आंध्र-ओडिशा सीमा पर केंद्रीय समिति सदस्य गजरला रवि उर्फ उदय और रवि वेनका चैतन्य उर्फ अरुणा, झारखंड में केंद्रीय समिति सदस्य प्रयाग मांझी उर्फ करण दा और तुलसी भुइयां, छत्तीसगढ़ में नरसिम्हा चालम उर्फ सुधाकर, तेलंगाना में भास्कर, और अगस्त 2025 में झारखंड के सिंहभूम में अरुण उर्फ निलेश मडकाम ढेर कर दिए गए।
ये हत्याएं माओवादी नेतृत्व के लिए ऐसा झटका हैं जिससे उबरना उनके लिए लगभग नामुमकिन होता जा रहा है।
क्यों कमजोर पड़ रहे हैं माओवादी?
1. नेतृत्व की कमी: बड़े नेताओं के मारे जाने से संगठन में खालीपन आ गया है। अब उनके पास न तो रणनीतिक दिमाग बचा है और न ही नए लोगों को जोड़ने का जोश।
2. आत्मसमर्पण और गिरफ्तारियां: लगातार हो रहे आत्मसमर्पण और गिरफ्तारियों से संगठन की ताकत तेजी से घट रही है। कई माओवादी अब पुलिस के सामने आत्मसमर्पण को बेहतर विकल्प मान रहे हैं।
3. सुरक्षा बलों का दबाव: ड्रोन, आधुनिक हथियार और तकनीकी निगरानी से नक्सलियों की हरकतें पहले ही पकड़ी जा रही हैं। अब उन्हें इधर-उधर भागने की भी जगह नहीं मिल रही।
4. जनसमर्थन में गिरावट: पहले माओवादी जनजातियों की समस्याओं का फायदा उठाकर उन्हें अपने साथ जोड़ते थे। लेकिन अब गांवों में सड़कें, स्कूल, अस्पताल और रोजगार के मौके बढ़ रहे हैं। नतीजा यह कि लोग सरकार पर भरोसा कर रहे हैं, न कि बंदूकधारियों पर।
5. पैसों की कमी: सुरक्षा एजेंसियों ने माओवादियों की वसूली और सप्लाई नेटवर्क पर चोट की है। जंगल और खनिज आधारित उनकी फंडिंग ठप हो रही है।
नतीजा
कभी देश के सबसे खतरनाक आतंकी नेटवर्क माने जाने वाले माओवादी अब बिखरते जा रहे हैं। जहां 10 साल पहले उनकी दहशत से लोग घरों से निकलने से डरते थे, वहीं आज हजारों माओवादी आत्मसमर्पण कर सरकार की योजनाओं का हिस्सा बन रहे हैं।
माओवादी हिंसा अब अपने सबसे कमजोर दौर में है। यह साफ संदेश है कि बंदूक के दम पर न तो विकास रोका जा सकता है और न ही लोकतंत्र को हराया जा सकता है।
लेख
शोमेन चंद्र
उपसंपादक, द नैरेटिव