बस्तर से ग्राउंड रिपोर्ट: सलवा जुडूम, अदालत और एर्राबोर की त्रासदी

साल 2006 में सुकमा का एर्राबोर गांव माओवादी आतंक का सबसे भयावह गवाह बना। 200 से अधिक घर जलाए गए, 33 निर्दोष ग्रामीण ज़िंदा जला दिए गए और एक आठ महीने की बच्ची तक को नहीं बख्शा गया। सलवा जुडूम, अदालत और व्यवस्था, सबने इस त्रासदी को प्रभावित किया। पढ़िए यह ग्राउंड रिपोर्ट, जो एर्राबोर की खामोश चीखों को सामने लाती है।

The Narrative World    23-Aug-2025   
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मेरा सवाल था
- आपके परिवार के लोगों को क्यों मारा गया?” गांव के 15-17 ग्रामीणों की भीड़ अचानक खामोश हो गई। हर कोई एक-दूसरे को देखने लगा, जैसे शब्द गले में अटक गए हों। कुछ देर बाद जब भरोसा दिलाया गया कि उनकी पहचान सामने नहीं आएगी, तब एक युवक रूपेश कोयाम (बदला हुआ नाम) सामने आया और बोला हमें इसलिए मारा गया क्योंकि माओवादियों को लगा हम सलवा जुडूम के साथ हैं। लेकिन हम निर्दोष थे।


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यह घटना है सुकमा जिले के एर्राबोर गांव की। जगदलपुर से दरभा, झीरम घाटी होते हुए सुकमा, और फिर 60 किलोमीटर आगे। यह वही एर्राबोर गांव है, जहां उन्नीस साल पहले जुलाई 2006 की रात माओवादियों ने ऐसा नरसंहार किया था, जिसे सुनकर भी रूह कांप उठती है।


सलवा जुडूम शुरू होने के बाद नक्सलियों के भय से कई ग्रामीण अपना गांव-घर छोड़कर यहां आए थे और मुख्य मार्ग से लगे एक शिविर में रह रहे थे। लेकिन उस रात यह शिविर सुरक्षा नहीं, मौत का मैदान बन गया।

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नक्सलियों ने गांव को घेर लिया, 200 से अधिक घरों को जला दिया और 33 निर्दोषों को जिंदा जलाकर मार डाला। एक आठ महीने की जनजातीय बच्ची तक ज़िंदा जला दिया गया। आज भी पीड़ित ग्रामीण उस मंजर को याद कर कांप उठते हैं।


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एक महिला बताती है नक्सली घर में घुसे। मेरे 17 साल के बेटे के सिर पर वार किया। पति ने बचाने की कोशिश की तो उन्हें भी मार डाला।


उस नरसंहार में जो बच गए, वे लगभग सब कुछ खो बैठे। कपड़े, अनाज, बर्तन, जीवन की बुनियादी ज़रूरतें तक खत्म हो गईं। राजेश सोयम, जो उस समय महज़ 4-5 साल के थे, कहते हैं नक्सलियों ने 95% घर जला दिए थे। हमारे घरवाले जैसे-तैसे जान बचाकर भागे।


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सरकार ने बाद में मुआवज़ा और पीड़ित परिवारों को नौकरी भी दी। लेकिन एर्राबोर के लोग आज भी शिविरनुमा बस्ती में पानी, बिजली और सफाई की समस्याओं से जूझ रहे हैं। वे चाहते हैं कि मरने से पहले एक बार अपने मूल गांव लौट जाएं, मगर वहां लौटना मौत को बुलाने जैसा है। सोनबती (बदला हुआ नाम) कहती हैं हम गांव जाना चाहते हैं, लेकिन वहां जाएंगे तो नक्सली हमें मार देंगे।


इन पीड़ाओं में एक और कटु सच्चाई छिपी है। जिन ग्रामीणों ने सलवा जुडूम में भाग लेकर नक्सल आतंक के खिलाफ मोर्चा खोला था, उनकी आवाज़ को अदालतों और शहरों में बैठे बुद्धिजीवियों ने दबा दिया। सलवा जुडूम को अवैध ठहराने वाले वही लोग सत्ता और प्रतिष्ठा के ऊंचे पदों पर पहुंच गए।


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जब ग्रामीणों से पूछा गया कि क्या उन्हें पता है कि सलवा जुडूम पर रोक लगाने वाले जज अब उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हैं, तो वे हैरान रह गए। उनका कहना था किअगर वही लोग बड़े पदों पर पहुंचेंगे, तो नक्सलियों को और बल मिलेगा।


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एर्राबोर की त्रासदी हमें बताती है कि नक्सलवाद कोई विचारधारा नहीं, बल्कि कम्युनिस्ट आतंकवाद है। यह वह आतंक है जिसने भोले-भाले जनजातीय समाज को अपनी बंदूक और बारूद की राजनीति का शिकार बनाया।


इस अपराध में केवल जंगलों में छिपे माओवादी ही दोषी नहीं हैं, बल्कि वे शहरी नक्सली भी उतने ही गुनहगार हैं जिन्होंने संसद, मीडिया और अदालतों में बैठकर इन हत्यारों का बचाव किया।


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सबसे पीड़ादायक यह है कि एर्राबोर की कहानी कभी सही मायने में देश के सामने नहीं आई। न स्थानीय जनप्रतिनिधियों ने इनकी आवाज़ सुनी, न मानवाधिकार की दुहाई देने वालों ने। 8 महीने की उस बच्ची की चीखों को भी शहरों में बैठे बुद्धिजीवी और उनके समर्थक सुनना नहीं चाहते थे।


आज भी एर्राबोर का हर घर, हर गली और हर पीड़ित परिवार यही कहता है कि अगर सलवा जुडूम चलता रहता, तो शायद नक्सलवाद कब का खत्म हो चुका होता। मगर सच यह है कि एक पूरे गांव की त्रासदी को विचारधारा और राजनीति की आड़ में दबा दिया गया।


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एर्राबोर आज भी ज़िंदा गवाही है कि नक्सलवाद किसी क्रांति का नाम नहीं, बल्कि निर्दोषों के खून पर टिकी हुई एक खूनी राजनीति है। और यह गवाही तब तक कायम रहेगी, जब तक पीड़ितों की सच्ची आवाज़ देश की अदालतों, संसद और समाज में गूंज नहीं जाती।