धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए बलिदान: स्वामी शांति काली जी की अमर गाथा

25 Aug 2025 21:47:58
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भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य त्रिपुरा में धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अपना जीवन न्योछावर करने वाले स्वामी शांति काली जी महाराज का बलिदान दिवस हर साल 27 अगस्त को मनाया जाता है। उनकी कहानी हमें यह सिखाती है कि कैसे एक व्यक्ति अपने सिद्धांतों और विश्वासों के लिए सबसे बड़ा त्याग कर सकता है।
 
स्वामी शांति काली जी का जन्म त्रिपुरा के सुब्रुम जिले में हुआ था। उन्होंने देखा कि किस तरह ईसाई मिशनरी गरीबों और जनजातीय लोगों को लालच देकर उनका धर्म परिवर्तन करा रहे हैं। यह देखकर उनका मन बहुत दुखी हुआ और उन्होंने इसे रोकने का संकल्प लिया। उन्होंने फाल्गुन मास 1979 में शांति काली आश्रम की स्थापना की।
 
इस आश्रम के माध्यम से उन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करना शुरू किया। उन्होंने गरीब बच्चों के लिए स्कूल और जरूरतमंदों के लिए अस्पताल खोले। उनका उद्देश्य था कि कोई भी गरीब व्यक्ति मजबूर होकर अपना धर्म न बदले। वे जनजातीय समाज के लोगों की हर संभव मदद करते थे ताकि वे अपनी सनातन संस्कृति से जुड़े रहें और मिशनरियों के जाल में न फंसें।
 
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स्वामी जी का काम मिशनरियों को पसंद नहीं आया। उन्हें लगा कि स्वामी जी उनके धर्म परिवर्तन के काम में बाधा डाल रहे हैं। 27 अगस्त 2000 को जब स्वामी जी अपने कुछ शिष्यों के साथ आश्रम में बैठे थे, तभी उन पर एनएलएफटी (NLFT) के आतंकियों ने हमला कर दिया। ये आतंकी मिशनरी समर्थित थे। रात 8 बजे उन पर ताबड़तोड़ गोलियां चलाई गईं। उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया, लेकिन रात 11 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली। उनका पूरा शरीर गोलियों से छलनी हो चुका था।
 
स्वामी जी को इसलिए मारा गया क्योंकि वे उन मिशनरियों के खिलाफ खड़े थे जो पूर्वोत्तर भारत के लोगों को उनकी संस्कृति से अलग करने की कोशिश कर रहे थे। वे उन गरीब हिंदू वनवासियों की सहायता कर रहे थे, जिन्हें मिशनरी आसानी से अपना निशाना बनाते थे। उनकी हत्या के बाद भी इन आतंकियों का कहर नहीं रुका। 4 दिसंबर 2000 को उन्होंने शांति काली आश्रम में फिर से हमला किया और तोड़फोड़ की। एनएलएफटी ने कुल 11 आश्रमों, स्कूलों और अनाथालयों को बंद करवाया।
 
स्वामी शांति काली जी जैसे महान व्यक्तित्वों के बलिदान की जानकारी अक्सर मीडिया में नहीं आती। शायद इसलिए क्योंकि उनका कोई वोट बैंक नहीं है। कोई भी सरकार या संस्था उनके लिए आवाज नहीं उठाती। लेकिन हमें यह समझना होगा कि अगर हम इस तरह की घटनाओं पर चुप रहे तो कल हमारी भी बारी आ सकती है। हमें अपनी संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए जागरूक और एकजुट रहना होगा। स्वामी शांति काली जी का बलिदान हमें यही संदेश देता है।
 
लेख
शोमेन चंद्र
उपसंपादक, द नैरेटिव
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