हर वर्ष 9 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र के आवाहन पर विश्व मूलनिवासी दिवस (International Day of the World’s Indigenous Peoples) मनाया जाता है। इसका उद्देश्य उन मूलनिवासी समूहों के अधिकारों की रक्षा करना है, जिन पर ऐतिहासिक अन्याय, नरसंहार और जबरन विस्थापन जैसे गंभीर अत्याचार हुए हैं। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा जैसे देशों में सचमुच ऐसी त्रासद गाथाएँ दर्ज हैं, जहाँ यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने वहाँ के निवासियों को उनकी ही भूमि से उखाड़ फेंका। परंतु भारत में यह अवधारणा पूरी तरह लागू नहीं होती — और यहीं से एक गहरा विवाद भी जन्म लेता है।
दरअसल, भारत में रहने वाला हर व्यक्ति — चाहे वह वनवासी हो, नगरवासी हो, ग्रामवासी हो — हजारों वर्षों से इसी भूमि पर जन्मा, पला-बढ़ा है। यहाँ कोई बाहरी आक्रमणकारी उपनिवेशी शासन लागू कर स्थानीय निवासियों का संहार नहीं कर पाया, जैसी घटनाएँ अमेरिका में ‘अश्रुओं की राह’ (Trail of Tears) या ऑस्ट्रेलिया में एबोरिजिनल जनसंहार के रूप में हुईं। भारतीय समाज की जटिल परंतु गहरी एकात्म परंपरा ने हर वर्ग और समुदाय को एक साझा सांस्कृतिक ताने-बाने में जोड़कर रखा। इसलिए यह कहना कि भारत में कुछ लोग ही मूलनिवासी हैं, बाकी लोग बाहरी, यह ऐतिहासिक दृष्टि से भी ग़लत है और समाज को तोड़ने का प्रयास भी।

फिर भी पिछले कुछ वर्षों में कुछ समूह और संगठन, जो जनजाति समाज में फूट डालने की राजनीति करते हैं, उन्होंने 9 अगस्त को ‘आदिवासी दिवस’ के रूप में प्रचारित करना आरंभ किया। उनका तर्क यह है कि तथाकथित ‘आर्य’ बाहर से आए और यहाँ के निवासियों को जंगलों में खदेड़ दिया — यह कथन ऐतिहासिक दृष्टि से बार-बार असत्य सिद्ध हो चुका है। कोई प्रमाणिक इतिहासकार यह नहीं मानता कि भारत में आर्य बाहरी आक्रमणकारी थे जिन्होंने किसी जनजाति समाज को जबरन जंगलों में भेजा।
परंतु यह प्रोपेगंडा आज भी सुनियोजित ढंग से फैलाया जा रहा है। इसमें सबसे ख़तरनाक तत्त्व है संयुक्त राष्ट्र के मूलनिवासी अधिकार घोषणा-पत्र की धारा, जिसमें स्व-निर्णय (Right to Self-Determination) की बात कही गई है। इसका अर्थ यह है कि अगर कोई मूलनिवासी समाज चाहे, तो वह अपने आपको शेष देश से अलग करने का अधिकार रखे, और आवश्यकता पड़ने पर अंतरराष्ट्रीय मदद भी ले सकता है। यही बिंदु ईसाई मिशनरियों, वामपंथी अलगाववादी गुटों की आँखों में चमक पैदा कर देता है।
यदि भारत में यह नैरेटिव स्थापित कर दिया जाए कि जनजाति समाज ही असली मूलनिवासी हैं, बाकी लोग विदेशी, तो इसके ज़रिये अलगाववादी आंदोलनों को वैचारिक खाद-पानी मिल जाएगा। झारखंड, छत्तीसगढ़, पूर्वोत्तर भारत के कई इलाकों में अलगाववादी शक्तियाँ पहले से सक्रिय हैं, जिन्हें इससे नया बल मिल सकता है। और एक बार यदि विश्व मंच पर भारतीय जनजातियों को अलग मूलनिवासी मान लिया गया, तो इस स्व-निर्णय की धारा के अंतर्गत अलग राष्ट्र की माँग तक उठ सकती है।
यह भारत की अखंडता के लिए एक सीधा ख़तरा होगा। इसीलिए भारत ने 2007 में संयुक्त राष्ट्र की मूलनिवासी अधिकार घोषणा का समर्थन तो किया, लेकिन यह स्पष्ट कहा कि “भारत में सभी जातियाँ, धर्म और समुदाय इसी भूमि के मूल निवासी हैं।” यही हमारे संविधान का दृष्टिकोण भी है, जो 1951 से ही अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों को संरक्षित और संरक्षित करता आ रहा है — चाहे वह आरक्षण हो, वनाधिकार हो, शिक्षा का विशेष अवसर हो या अलग से प्रशासनिक व्यवस्था।
यही कारण है कि 9 अगस्त की महत्ता भारत के परिप्रेक्ष्य में बहुत सीमित है। हमें यह याद रखना चाहिए कि अमेरिका में 1830 के ‘इंडियन रिमूवल ऐक्ट’ जैसे जनसंहार यहाँ कभी नहीं हुए। अमेरिकी राष्ट्रपति एंड्रयू जैक्सन ने जबरन लाखों मूलनिवासियों को अपनी भूमि से बेदखल करके हजारों किलोमीटर दूर भेज दिया। उस भीषण यात्रा को ‘अश्रुओं की राह’ कहा गया, जहाँ हजारों लोग भूख, बीमारी और हिंसा से मर गए। आज अमेरिका उसी का प्रायश्चित करते हुए दुनिया को शांति का संदेश देता घूम रहा है, पर उसका पाप मिट नहीं सकता।
भारत में स्थिति इसके एकदम विपरीत रही। यहाँ के जनजातीय समुदायों ने भी देश की स्वतंत्रता में योगदान दिया, स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माताओं ने उन्हें सम्मान और समान अवसर देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भगवान बिरसा मुंडा जैसे महान जननायक राष्ट्रीय गौरव हैं। आज भारत सरकार ने 15 नवम्बर को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मान्यता देकर जनजाति समाज को उचित श्रद्धांजलि दी है।
दुर्भाग्य से कुछ राजनीतिक और विदेशी प्रेरित तत्व 9 अगस्त के बहाने जनजाति समाज को पीड़ित और शोषित के रूप में चित्रित करके उन्हें मुख्यधारा से अलग-थलग करने की चाल चलते हैं। वे युवाओं के मन में यह भरने की कोशिश करते हैं कि “आप ही असली भारतवासी हैं, बाकी सब आपके बाहर से आए हैं”। इसका सबसे बड़ा उद्देश्य यह है कि जनजाति इलाकों में चल रहे उग्रवाद और कन्वर्जन अभियानों को वैचारिक आधार दिया जा सके, ताकि भविष्य में कोई अलग राष्ट्र खड़ा करने की माँग खड़ी की जा सके।
यहाँ हर भारतीय को सजग होने की आवश्यकता है। सच यह है कि भारत में रहने वाला हर समुदाय, हर जाति, हर धर्म हजारों वर्षों से इसी भूमि का हिस्सा है। यहाँ कोई बाहरी नहीं है। हमें आपसी मतभेदों को भूलकर, विकास और समानता की दिशा में मिलकर आगे बढ़ना होगा। जो लोग जनजाति समाज को अलग-थलग करने की भाषा बोलते हैं, वे दरअसल भारत की एकता के लिए दीर्घकालिक खतरा हैं।
इसलिए विश्व मूलनिवासी दिवस को मनाने में कोई बुराई नहीं है, यदि उसका उद्देश्य जनजाति समाज की प्रगति, शिक्षा, स्वास्थ्य, सांस्कृतिक विरासत और विकास पर चर्चा करना हो। लेकिन यदि इसके नाम पर अलगाव, टकराव और नफ़रत का जहर घोला जाए, तो प्रत्येक भारतीय को इसका विरोध करना चाहिए। जनजाति समाज को भी यह सोचने की जरूरत है कि जो शक्तियाँ उन्हें ‘अलग’ कहकर उनकी भावनाओं से खेलती हैं, उनका असली एजेंडा क्या है?
आज भारत में जो भी उपलब्धि है, उसमें जनजातीय समाज का अमूल्य योगदान रहा है। उनकी सांस्कृतिक परंपराएँ, उनका पर्यावरण-ज्ञान, उनकी लोक-कला — यह सब भारत की साझा विरासत है। इस पर गर्व होना चाहिए, और इस गर्व को किसी तोड़नेवाले षड्यंत्र का शिकार नहीं होने देना चाहिए।
यही समय है, जब जनजाति समाज के युवा, अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों को भी याद करें, और एकता का मंत्र दोहराएँ — “हम सब भारतीय हैं, यही हमारी असली पहचान है।”
लेख
डॉ. प्रवीण दाताराम गुगनानी