पश्चिम द्वारा जनजातीय नरसंहार का दिवस है मूलनिवासी दिवस

09 Aug 2025 08:58:07
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“द सोशल कॉन्ट्रैक्ट्स” के लेखक जीन जैक्स रूसो की पहली पंक्ति है – “मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ था, और वह हर जगह जंजीरों में जकड़ा हुआ है।” यही वह बिंदु है जो हमें पश्चिमी और इस्लामिक चिंतन से अलग करता है। सनातनी भारतीय समाज हमेशा से लोकतांत्रिक, अनुशासित व्यवस्था वाला रहा है जो सुधार, स्वतंत्रता और साधना की ओर बढ़ता है। यह साधना अनेक रूपों में हमारे साथ चलती है और जड़ता से चेतना की ओर ले जाती है। जबकि पश्चिमी चिंतन चेतना से जड़ता की ओर जाता है। इसका एक उदाहरण है 9 अगस्त को मनाया जाने वाला तथाकथित “विश्व जनजातीय दिवस”। 
 
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यह दिवस पश्चिम का एक षड्यंत्र है जिसमें वह अपने नजरिये और पूर्वाग्रह से विश्व के जनजातीय समाज को बांधना चाहता है। असल में यह आयोजन जनजातीय समाज की स्मृतियों से उनके पूर्वजों के भीषण नरसंहार को मिटाने की कोशिश है। इसे शोक दिवस के बजाय गौरव दिवस की तरह पेश किया जा रहा है ताकि जनजातीय समाज अपने ही इतिहास को भूल जाए।
 
पश्चिमी समाज इस दिन के माध्यम से दुनिया भर में, और अब भारत में भी, अपनी विभाजनकारी सोच को फैलाने की कोशिश कर रहा है। विदेशी ताकतें भारतीय समाज को बांटने के लिए “मूलनिवासी दिवस” का उपयोग कर रही हैं। 9 अगस्त वास्तव में पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा किए गए बड़े नरसंहार का दिन है। इस दिन को अमेरिका, जर्मनी, स्पेन जैसे देशों के लिए पश्चाताप और क्षमा मांगने का दिन होना चाहिए, लेकिन पश्चिमी बुद्धिजीवियों ने इसका रूप ही उलट दिया।
 
भारत में ग्राम और नगर दोनों में वनवासी समाज के सम्मान और विकास की प्राचीन परंपरा रही है। नगर और वनवासियों में परस्पर निर्भरता और उत्तरदायित्व का अद्भुत संतुलन था। प्रकृति पूजन वेदों से हमें मिला, और इसमें जनजातीय समाज ने विशेष उत्साह दिखाया। भारतीय जनजातीय समाज रक्षण का पात्र नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज और राष्ट्र का रक्षक रहा है।
 
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हमारे इतिहास में भगवान बिरसा मुंडा से लेकर टंट्या मामा भील तक हजारों जनजातीय योद्धा हैं जिन्होंने भारत माता की स्वतंत्रता के लिए अपना बलिदान दिया। अगर जनजातीय दिवस मनाना है तो उनके गौरवशाली योगदान को याद करना चाहिए, न कि पश्चिम के थोथे विमर्श में फंसना चाहिए।
 
पश्चिमी षड्यंत्र का एक और पहलू है “मूलनिवासीवाद”, जो कम्युनिस्ट, इस्लामिक और ईसाई ताकतों का नया संस्करण है। इसके जरिए भारतीय दलितों और आदिवासियों को पश्चिमी सोच से जोड़कर समाज में नए विभाजन के बीज बोए जा रहे हैं। इस प्रचार में यह झूठ फैलाया जाता है कि आर्य बाहर से आए और उन्होंने मूल निवासियों को गुलाम बनाया।
बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने अपने लेखन में इस आर्य आक्रमण की कथा को पूरी तरह गलत बताया है। उन्होंने कहा है कि वेदों में आर्यों द्वारा दलित या जनजातीय समाज पर आक्रमण का कोई प्रमाण नहीं है।
 
असल में इस नए षड्यंत्र का सूत्रधार पश्चिमी पूंजीवाद है, जो भारत की एकता को तोड़ने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम कर रहा है। यह विचारधारा भारतीयों में आपसी द्वेष और उत्तर-दक्षिण, आर्य-अनार्य के नाम पर भेदभाव फैलाने का औजार बन रही है।
 
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डॉ. प्रवीण दाताराम गुगनानी
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