देश के उप राष्ट्रपति चुनाव में कल का दिन बस्तर के हजारों परिवारों के लिए न्याय लेकर आया।
सीपी राधाकृष्णन की जीत और बी. सुदर्शन रेड्डी की हार को नक्सल हिंसा के पीड़ितों ने अपनी जीत बताया है।
एक ऐसे व्यक्ति को, जिसने अपने फैसले से बस्तर को खून से लथपथ कर दिया था, देश ने संवैधानिक पद के लिए स्वीकार नहीं किया। यह लोकतंत्र में पीड़ितों के विश्वास की जीत है।
कुछ दिन पहले दिल्ली में बस्तर से आए नक्सल पीड़ितों ने अपनी दर्दभरी दास्तां सुनाई थी।
उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि नक्सलियों के साथ साथ बी. सुदर्शन रेड्डी का फैसला भी उनकी बर्बादी का कारण बना।
पीड़ितों का कहना था कि जब जनजातीय समाज का आत्मरक्षा आंदोलन 'सलवा जुडूम' अपने चरम पर था, तब नक्सलियों की कमर टूट चुकी थी।
लेकिन 2011 में सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले से इस आंदोलन पर रोक लगी, उसने नक्सलियों को दोबारा ताकत दी और बस्तर की जमीन निर्दोषों के खून से लाल होती चली गई।
प्रेस वार्ता में पीड़ित सियाराम रामटेके ने बताया था कि उस फैसले के बाद उन पर नक्सलियों ने हमला किया और तीन गोलियां मारकर उन्हें मरा समझकर छोड़ दिया था। आज वे दिव्यांग जीवन जीने को मजबूर हैं।
इसी तरह वीरगति प्राप्त जवान मोहन उइके की पत्नी ने कहा कि फैसले के बाद ही उनके पति को मार दिया गया। उनकी तीन महीने की बच्ची अपने पिता का चेहरा तक नहीं देख पाई।
चिंगावरम बस हमले के पीड़ित महादेव दूधी ने बताया कि कैसे इस हमले में उन्होंने अपना एक पैर खो दिया, जिसमें 32 निर्दोष लोग मारे गए थे।
बस्तर शांति समिति के जयराम दस ने कहा था कि हजारों परिवार ऐसे हैं जिनकी दुनिया सलवा जुडूम पर रोक के बाद उजड़ गई।
समिति ने साफ कहा था कि नक्सलियों ने गोलियों से और बी. सुदर्शन रेड्डी ने अपने फैसले से बस्तर के लोगों को तबाह किया है।
पीड़ितों ने देश के सांसदों और जनता से अपील की थी कि ऐसे व्यक्ति को कभी समर्थन न दें जिसने उनकी जिंदगी नरक बना दी।
उप राष्ट्रपति चुनाव का परिणाम बस्तर के पीड़ितों की इसी अपील का नतीजा है।
यह दिखाता है कि देश की जनता ने उनके दर्द को समझा है और लोकतंत्र में हिंसा के समर्थकों के लिए कोई जगह नहीं है।
सीपी राधाकृष्णन की जीत ने यह साबित कर दिया है कि न्याय और शांति के लिए लड़ने वालों की आवाज सुनी जाती है।
यह उन सभी के लिए एक कड़ा संदेश है जो छद्म रूप से नक्सलवाद का समर्थन करते हैं।
लेख
शोमेन चंद्र