कर्नाटक की राजनीति इन दिनों एक नाम को लेकर उबल रही है। कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया द्वारा बेंगलुरु के शिवाजीनगर मेट्रो स्टेशन का नाम बदलकर “सेंट मैरी” करने का प्रस्ताव न केवल शहर की सियासत में हलचल मचा रहा है, बल्कि यह मुद्दा महाराष्ट्र तक पहुँच गया है। वजह साफ़ है कि यह केवल नाम बदलने का मामला नहीं, बल्कि पहचान, इतिहास और राजनीति के टकराव का प्रतीक बन गया है।
शिवाजीनगर का यह इलाका अपने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व के लिए जाना जाता है। यहीं करीब 200 मीटर की दूरी पर सेंट मैरी बेसिलिका है, जो ईसाई समुदाय का धार्मिक केंद्र है। कांग्रेस सरकार का तर्क है कि क्षेत्र की धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान को सम्मान देने के लिए स्टेशन का नाम “सेंट मैरी” होना चाहिए। लेकिन सच्चाई यही है कि यह प्रस्ताव कांग्रेस की पुरानी “तुष्टिकरण राजनीति” का हिस्सा है, जिसमें बहुसंख्यक समाज और उसके प्रतीकों को बार-बार दरकिनार किया जाता है।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि शिवाजी महाराज का नाम हटाना करोड़ों भारतीयों की भावनाओं का अपमान है। उनके मुताबिक, शिवाजी केवल महाराष्ट्र के नायक नहीं, बल्कि पूरे देश में हिंदू स्वाभिमान और पराक्रम के प्रतीक हैं। फडणवीस ने कांग्रेस पर हमला बोलते हुए याद दिलाया कि नेहरू से लेकर आज तक पार्टी का रवैया ऐतिहासिक हिंदू प्रतीकों के प्रति उपेक्षापूर्ण रहा है। उन्होंने सवाल उठाया कि क्या कांग्रेस अल्पसंख्यक वोटों के लालच में ऐसे फैसले ले रही है?
यह पहली बार नहीं है जब कांग्रेस पर इस तरह के आरोप लगे हों। पार्टी लंबे समय से “vote bank politics” यानी वोट बैंक की राजनीति में लिप्त मानी जाती रही है। चाहे वह शाहबानो प्रकरण हो, चाहे शिक्षा नीति में तीन-भाषा फार्मूले पर अस्पष्ट रुख, या फिर हिंदी भाषा के प्रति बार-बार का दोहरा व्यवहार, कांग्रेस हमेशा ही अल्पसंख्यकों को साधने में लगी रही है और इसके लिए उसने बहुसंख्यक समाज की संवेदनाओं की अनदेखी की है।
हिंदी के सवाल पर भी कांग्रेस की छवि दोहरी रही है। एक ओर पार्टी कहती है कि हिंदी देश की संपर्क भाषा है, दूसरी ओर जब दक्षिण भारत में हिंदी-विरोधी आंदोलन भड़कते हैं तो कांग्रेस के नेता वहां चुप्पी साध लेते हैं। यह दोहरा रवैया आज भी पार्टी की नीतियों पर सवाल खड़े करता है।
छत्रपति शिवाजी महराज के नाम का अपमान करने का यह मामला कर्नाटक में उस समय सामने आया है जब प्रदेश में विधानसभा चुनाव की तैयारियाँ भी तेज़ हो रही हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह विवाद कांग्रेस को दोहरी मुश्किल में डाल सकता है।
एक ओर वह कर्नाटक में ईसाई समुदाय को लुभाने की कोशिश कर रही है, वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी को लेकर उसकी चुप्पी या अस्पष्टता मराठा समाज को खटक सकती है। शिवसेना (यूबीटी) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार गुट) जैसे सहयोगी दलों पर भी दबाव है। यदि वे इस मामले में चुप रहते हैं तो मराठा मतदाता इसे उनकी कमजोरी मान सकते हैं।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने साफ कहा है कि कांग्रेस ने छत्रपति शिवाजी महराज का अपमान किया है और जनता इसे कभी माफ नहीं करेगी। महाराष्ट्र के वरिष्ठ नेता अशिष शेलार ने तो यहां तक कह दिया कि यदि जरूरत पड़ी तो महाराष्ट्र और कर्नाटक दोनों जगह कांग्रेस के खिलाफ जोरदार आंदोलन चलाया जाएगा। उनका कहना है कि कांग्रेस पहले चुनावों में छत्रपति शिवाजी महराज की छवि का इस्तेमाल करती है और अब सत्ता में आने के बाद उन्हीं के नाम को मिटाने पर तुली है।
इस विवाद ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या कांग्रेस अपने पुराने रास्ते पर ही चल रही है? क्या उसकी राजनीति अभी भी तुष्टिकरण और अवसरवाद के इर्द-गिर्द घूम रही है? पार्टी का इतिहास देखें तो यह सवाल निराधार नहीं लगता।
अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति कांग्रेस के लिए एक स्थायी रणनीति रही है, लेकिन हर बार इसका परिणाम बहुसंख्यक समाज की नाराजगी के रूप में सामने आता है। साफ है कि शिवाजीनगर का विवाद सिर्फ एक मेट्रो स्टेशन का नाम बदलने तक सीमित नहीं है। यह कांग्रेस की राजनीतिक सोच, उसकी प्राथमिकताओं और उसके ऐतिहासिक रवैये का प्रतीक है।