क्या सच में माओवादी हिंसा छोड़ना चाहते हैं या ये सिर्फ एक ढोंग है?

दशकों से खूनी खेल खेलने वाले माओवादी अब शांति की बात कर रहे हैं, लेकिन इसके पीछे की असलियत क्या है, जानिए पूरी खबर।

The Narrative World    17-Sep-2025
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छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड जैसे इलाकों में दशकों से हिंसा का खूनी खेल खेलने वाले माओवादी अब दावा कर रहे हैं कि वे हथियार छोड़कर सरकार से बातचीत करना चाहते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सचमुच शांति की दिशा में कदम है या फिर एक और चाल, ताकि सुरक्षा बलों के बढ़ते दबाव से बच सकें।
 
15 अगस्त 2025 को माओवादी लीडर अभय ने एक प्रेस नोट जारी कर कहा कि उनकी पार्टी अस्थायी रूप से हथियारबंद संघर्ष रोकने और एक माह का सीजफायर करने को तैयार है। उन्होंने यहां तक लिखा कि सरकार चाहे तो वीडियो कॉल पर भी वार्ता हो सकती है। साथ ही जेल में बंद उनके साथियों को भी बातचीत में शामिल करने की मांग की। सुनने में यह सब बेहद सकारात्मक लगता है, लेकिन जब जमीनी हालात पर नजर डालें तो तस्वीर कुछ और ही बयां करती है।
 
 
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बीते कुछ ही महीनों में सुरक्षा बलों की लगातार कार्रवाई ने माओवादियों की कमर तोड़ दी है। 11 सितंबर 2025 को गरियाबंद में 10 नक्सली मारे गए, जिनमें डेढ़ करोड़ का इनामी मोडेम बालाकृष्ण भी शामिल था। इससे पहले मई में 27 नक्सली मारे गए थे, जिनमें 1.5 करोड़ का इनामी बसवा राजू भी था। कर्रेगुट्टा ऑपरेशन में 31 नक्सलियों को खत्म किया गया था। यानी सुरक्षाबलों की रणनीति और कार्रवाई लगातार माओवादियों पर भारी पड़ रही है। ऐसे में अचानक उनका शांति वार्ता का प्रस्ताव देना कई सवाल खड़े करता है।
 
 
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यह पहली बार नहीं है जब माओवादी शांति वार्ता का कार्ड खेल रहे हैं। पांच महीने पहले भी अभय ने पर्चा जारी कर यही बात कही थी। उनका कहना था कि पिछले 15 महीनों में 400 साथी मारे गए हैं और ऑपरेशन रुके तो वे बातचीत करेंगे। साफ है कि जब-जब माओवादियों पर दबाव बढ़ता है, वे शांति की बात करते हैं। लेकिन जैसे ही हालात बदलते हैं, वे फिर से हिंसा पर उतर आते हैं।
 
बस्तर IG सुंदरराज पी ने भी साफ कहा कि सरकार ही इस पर अंतिम फैसला लेगी। गृह मंत्री विजय शर्मा पहले ही बता चुके हैं कि किसी भी सार्थक वार्ता के लिए संविधान की स्वीकृति जरूरी है। यानी हिंसा छोड़ने का दावा तब तक खोखला है, जब तक माओवादी भारतीय संविधान को मान्यता नहीं देते।
 
 
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इतिहास गवाह है कि माओवादी हिंसा के बिना नहीं रह सकते। 2007 में रानीबोदली हमले में 55 जवानों को मारा गया, 2010 में ताड़मेटला में 76 जवान बलिदान हुए। 25 सालों में 1300 से ज्यादा जवान बलिदान दे चुके हैं। सवाल यह है कि ऐसे खूनी रिकॉर्ड वाले संगठन की बातों पर भरोसा कैसे किया जाए।
 
दरअसल, माओवादी वार्ता के नाम पर समय चाहते हैं ताकि अपने बचे-खुचे नेटवर्क को फिर से खड़ा कर सकें। वे जानते हैं कि गृह मंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक नक्सलवाद खत्म करने की डेडलाइन तय की है और सुरक्षा बल पूरी ताकत से अभियान चला रहे हैं। यही वजह है कि अब वे “सीजफायर” का जाल बुन रहे हैं।
 
सच यह है कि अगर माओवादी वास्तव में हिंसा छोड़ना चाहते, तो बिना किसी शर्त के हथियार डालकर संविधान की राह पकड़ते। लेकिन वे बार-बार शांति की बात करके सिर्फ जनता और सरकार को गुमराह कर रहे हैं। असली इरादा साफ है - "यह शांति नहीं, बल्कि रणनीतिक ढोंग है।"
 
लेख
शोमेन चंद्र