18 मार्च 1999 की रात बिहार के जहानाबाद जिले (अब अरवल) के सेनारी गांव पर ऐसा कहर टूटा जिसने पूरे प्रदेश को झकझोर दिया। यह वही दौर था जब बिहार में राजद नेता लालू प्रसाद यादव की पत्नी राबड़ी देवी दूसरी बार मुख्यमंत्री बनी थीं और उन्हें पद संभाले हुए मुश्किल से नौ दिन ही हुए थे।
देश में उस समय अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे और केंद्र सरकार लगातार बिहार की कानून-व्यवस्था पर सवाल उठा रही थी। लेकिन इस रात जो हुआ उसने साफ दिखा दिया कि बिहार किस अंधेरे में धकेल दिया गया है।
रात करीब साढ़े सात बजे 400 से 500 माओवादी हथियारों से लैस होकर सेनारी की ओर बढ़े। इनमें कुछ पुलिस की वर्दी पहने हुए थे और कुछ लुंगी-बनियान में। गांव से दो किलोमीटर पहले एक पुलिस चौकी थी जिसे नक्सलियों ने घेर लिया ताकि कोई भी सुरक्षा बल गांव तक न पहुंच पाए।
इसके बाद नक्सली छोटे-छोटे दलों में बंटकर गांव में घुसे। किसी घर का दरवाजा तोड़ा गया, किसी को धमकाकर बाहर निकाला गया, तो कहीं डायनामाइट से दीवार उड़ा दी गई। बुजुर्ग और महिलाएँ भी इस कहर से बच नहीं सकीं।
एक मां अपने बेटे की जान बचाने के लिए हमलावरों के पैरों पर गिरी, लेकिन उसे लात मारकर अलग कर दिया गया। गर्भवती महिला पर कुल्हाड़ी चला दी गई और कहा गया कि अब तुम्हारा वंश ही खत्म हो गया। किशोरों को मारकर जमीन पर गिरा दिया गया और फिर उनके हाथ-पैर बांध दिए गए, फिर उनकी भी हत्या कर दी गई।
गांव के लोगों को घसीट-घसीटकर ठाकुरबाड़ी के पास लाया गया। वहां कतार में खड़ा करके उन्हें घेर लिया गया। सैकड़ों माओवादी हथियारों से लैस थे और उनके बीच से नारे गूंज रहे थे “एमसीसी जिंदाबाद, लाल सलाम जिंदाबाद, लालू यादव जिंदाबाद, रणवीर सेना मुर्दाबाद।” यह नारे पीड़ितों के दिल में और डर बैठा रहे थे क्योंकि यह साफ हो गया था कि आज मौत तय है।
फिर कमांडर का आदेश गूंजा कि कतार में खड़े सभी लोगों की गर्दन काट दी जाए और किसी को आसान मौत न मिले। इसके बाद कत्लेआम शुरू हुआ। पिता के सामने बेटे का गला रेता गया, बेटे के सामने पिता की गर्दन काट दी गई। पंद्रह साल के किशोर को कुल्हाड़ी से मारा गया, उसके खून के छींटे अगल-बगल खड़े लोगों पर पड़े और उनकी चीखें पूरे गांव में गूंज उठीं। स्त्रियाँ अपने पति और बेटों को बचाने दौड़तीं तो उन्हें डंडों से पीटकर भगा दिया गया। कई महिलाओं के साथ दुष्कर्म के प्रयास हुए। रात करीब बारह बजे तक यह नरसंहार चलता रहा।
जब हमलावर गांव से बाहर निकले तो उनके गले से वही नारे गूंज रहे थे, “एमसीसी जिंदाबाद, लाल सलाम जिंदाबाद, लालू यादव जिंदाबाद।” गांव में खून की नदियां बह चुकी थीं। अगली सुबह जब पुलिस वहां पहुंची तो नजारा किसी बूचड़खाने से कम नहीं था। 34 ग्रामीणों की लाशें बिखरी पड़ी थीं, किसी की गर्दन आधी कटी हुई थी, किसी का पेट फटा पड़ा था। छह लोग घायल अवस्था में तड़प रहे थे।
पुलिस को वहां माओवादियों के पर्चे मिले जिनमें लिखा था कि रणवीर सेना का साथ देने वालों को यही सजा मिलेगी और अमीरी-गरीबी की लड़ाई में शामिल हो जाओ। सेनारी गांव अचानक “विधवाओं का गांव” कहलाने लगा।
लेकिन सबसे बड़ा झटका तब लगा जब मुख्यमंत्री राबड़ी देवी से इस हत्याकांड पर प्रतिक्रिया मांगी गई। उनसे सेनारी जाने के लिए कहा गया तो उनका जवाब था कि “वो लोग हमारे वोटर्स नहीं हैं, मैं क्यों जाऊं वहां।” यह बयान केवल संवेदनहीनता नहीं, बल्कि लोकतंत्र का अपमान था।
यह दिखाता है कि उस दौर में लालू-राबड़ी शासन जनता की सुरक्षा और न्याय की बजाय केवल जातीय वोट बैंक की राजनीति में डूबा हुआ था। यही कारण था कि माओवादी संगठन खुलेआम “लालू यादव जिंदाबाद” के नारे लगाकर नरसंहार कर रहे थे। उन्हें मालूम था कि इस शासन में पुलिस या तो निष्क्रिय है या राजनीतिक दबाव में पंगु।
नरसंहार की खबर फैलते ही केंद्र सरकार सक्रिय हुई। अटल बिहारी वाजपेयी ने कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया जिसने लालू-राबड़ी की सरकार को सपोर्ट दिया था। केंद्रीय मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस, यशवंत सिन्हा और नीतीश कुमार सेनारी पहुंचे और पीड़ितों से मुलाकात की। गांव वाले गुस्से में पुलिस को घेरकर कह रहे थे कि हमें राइफल चाहिए, हम खुद अपनी रक्षा करेंगे। यह प्रशासन की विफलता की पराकाष्ठा थी कि जनता अपने हाथ में हथियार मांगने को मजबूर हो गई।
19 मार्च की सुबह जब लाशों का पोस्टमॉर्टम शुरू हुआ तो गांव वालों का आक्रोश चरम पर था। पटना हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार पद्मनारायण सिंह के परिवार के आठ लोग इस नरसंहार में मारे गए थे। उन्होंने जब अपने परिजनों की लाशें देखीं तो उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वहीं उनकी मौत हो गई। यह खबर पूरे राज्य में सनसनी की तरह फैली।
पुलिस ने इस मामले में 38 लोगों के खिलाफ हत्या, अपहरण और आगजनी की एफआईआर दर्ज की। बाद में 77 आरोपियों पर चार्जशीट दाखिल हुई और 45 पर आरोप तय हुए। लेकिन न्याय की प्रक्रिया वर्षों तक घिसटती रही। पीड़ित परिवार दशकों तक न्याय की प्रतीक्षा करते रहे।
सेनारी नरसंहार बिहार के राजनीतिक और सामाजिक ताने-बाने की सड़ांध का सबसे वीभत्स उदाहरण है। एक तरफ माओवादी संगठन थे जो गरीबों के नाम पर निर्दोषों का कत्लेआम कर रहे थे और अपने खूनी एजेंडे को “लाल सलाम” कहकर गौरवान्वित कर रहे थे। दूसरी तरफ लालू-राबड़ी का शासन था जो वोट बैंक की राजनीति में डूबा हुआ था और जनता की सुरक्षा सुनिश्चित करने की बजाय अपराधियों और आतंकियों को खुला मैदान दे रहा था।
सेनारी नरसंहार केवल 34 लाशों की गिनती नहीं है। यह उस दौर का प्रतीक है जब बिहार बार-बार नरसंहारों से दहलता रहा। शंकरबिघा, नारायणपुर, लक्ष्मणपुर बाथे और सेनारी, हर जगह खून की नदियां बहाई गईं और शासन केवल बयानबाजी करता रहा।
राबड़ी देवी का यह कहना कि “वो लोग हमारे वोटर्स नहीं हैं” बिहार की राजनीति पर एक स्थायी कलंक है। इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि माओवादी हिंसा और लालू-राबड़ी की संवेदनहीन राजनीति ने मिलकर बिहार को एक “नरसंहारों का प्रदेश” बना दिया था।
इतिहास गवाही देता है कि सेनारी नरसंहार केवल निर्दोष ग्रामीणों का कत्लेआम नहीं था, बल्कि यह उस घातक गठजोड़ का परिणाम था जिसमें एक ओर माओवादी आतंकवादी थे और दूसरी ओर सत्ता में बैठे वे शासक जिन्होंने वोट बैंक की खातिर उन्हें परोक्ष छूट दी।
इस नरसंहार ने यह साबित कर दिया कि जब शासन तुष्टिकरण में डूब जाता है तो न्याय और सुरक्षा दोनों ही समाप्त हो जाते हैं। सेनारी की चीखें आज भी यही सवाल उठाती हैं क्या उन 34 लाशों का खून केवल माओवादियों के हाथों पर था या फिर लालू-राबड़ी शासन की लापरवाही और संवेदनहीनता भी उतनी ही जिम्मेदार थी?