बस्तर में लाल आतंक, क्यों मासूम ग्रामीण बन रहे निशाना?

02 Sep 2025 14:44:03
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छत्तीसगढ़ का बस्तर क्षेत्र बीते चार दशक से खून और डर की छाया में जी रहा है। यहां की लाल मिट्टी में जितना पसीना किसानों का और मासूम बच्चों का है, उतना ही खून निर्दोष ग्रामीणों और सुरक्षाबलों का भी। नक्सलवाद इस क्षेत्र में हिंसा और आतंक का पर्याय बन चुका है। हाल की घटनाएँ भी यह साफ कर देती हैं कि नक्सली न तो गरीबों के हितैषी हैं और न ही जनजातियों के संरक्षक, बल्कि वे विकास, शिक्षा और लोकतांत्रिक मूल्यों के सबसे बड़े दुश्मन बन चुके हैं।
 
कल सोमवार (1 सितम्बर, 2025) को सुकमा जिले के सिरसेटी गांव में नक्सलियों ने दो जनजातीय किसान ग्रामीणों देवेन्द्र पदामी और पोज्जा पदामी को घर से उठाकर जंगल में ले जाकर निर्ममता से उनका गला रेत दिया। नक्सलियों का कहना है कि वे “मुखबिरी” कर रहे थे।
 
यह आरोप नया नहीं है। हर बार जब नक्सलियों के खिलाफ लोगों का आक्रोश बढ़ता है, या सुरक्षाबलों की कार्रवाई तेज होती है, तो नक्सली मासूम ग्रामीणों को निशाना बनाकर उन्हें “पुलिस का मुखबिर” ठहरा देते हैं। सवाल यही है कि क्या एक ग्रामीण का मोबाइल चलाना, किसी परिवार का किसी शहर जाकर किसी बात कर लेना, या बच्चों का पढ़ने जाना वाकई मुखबिरी है?
 
असल में, यह पूरी रणनीति भय पैदा करने की है। गांव-गांव में यह संदेश देना कि अगर तुमने विकास या लोकतंत्र की ओर कदम बढ़ाया, तो तुम्हारा अंजाम मौत होगा। यह लोकतंत्र पर सीधा हमला है, क्योंकि लोकतंत्र की बुनियाद ही नागरिक की स्वतंत्रता और सुरक्षा है।
 
वहीं माओवादियों ने अपना दूसरा निशाना शिक्षकों को बनाया है। बीजापुर और सुकमा जिलों में नक्सलियों ने इस साल अब तक 9 शिक्षादूतों की हत्या की है। इनमें से 5 बीजापुर में और 4 सुकमा में मारे गए हैं। सोचिए, एक शिक्षक जो बच्चों को पढ़ाने के लिए जंगलों और कठिन रास्तों से गुजरता है, बेहद मामूली वेतन पर स्कूलों तक पहुँचता है, पुराने टूटे विद्यालयों को पुनर्जीवित कर शिक्षा की अलख जगाता है, उसे नक्सली मौत के घाट उतार देते हैं। और कारण फिर वही, “मुखबिरी।”
 
दरअसल, वास्तविक कारण यह है कि नक्सली नहीं चाहते कि जनजातीय बच्चे पढ़ें-लिखें, जागरूक हों और अपना भविष्य खुद तय करें। क्योंकि शिक्षित समाज सवाल पूछेगा, लोकतंत्र और संविधान की ताकत समझेगा, और नक्सलियों की बंदूक से निकलने वाले झूठे नारों को ठुकरा देगा। यही डर उन्हें “शिक्षादूत” की हत्या करने पर मजबूर करता है।
 
विकास की राह में रोड़ा हैं नक्सली
 
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जहां सड़कें बनती हैं, वहां स्कूल और अस्पताल पहुँचते हैं। जहां बिजली पहुँचती है, वहां आधुनिक जीवन की उम्मीद जन्म लेती है। लेकिन नक्सली इन्हीं स्कूलों को जलाते हैं, इन्हीं सड़कों को उड़ा देते हैं, और इन्हीं पुलों को तोड़ डालते हैं। वे विकास को इसलिए रोकते हैं क्योंकि विकास लोगों को उनके चंगुल से आज़ाद कर देता है।
 
नक्सलवाद का असली डर यह है कि अगर जनजातीय समाज शिक्षा की ओर बढ़ गया तो कोई भी उनके बहकावे में नहीं आएगा। इसलिए वे हर हाल में विकास का गला घोंटते हैं।
 
सुरक्षाबलों की कार्रवाई और नक्सलियों की बौखलाहट
 
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वहीं पिछले कुछ वर्षों में छत्तीसगढ़ और इसके सीमावर्ती क्षेत्रों में सुरक्षाबलों ने नक्सलियों पर बड़ा दबाव बनाया है। उनके टॉप कमांडर लगातार मारे जा रहे हैं, हथियारों के जखीरे पकड़े जा रहे हैं, और उनके “जन अदालत” जैसी फर्ज़ी न्याय व्यवस्थाओं का पर्दाफाश हो रहा है। यही कारण है कि नक्सली अब बौखलाहट में मासूम ग्रामीणों और शिक्षकों को निशाना बना रहे हैं।
सुकमा, बीजापुर, नारायणपुर और दंतेवाड़ा जैसे जिलों में सुरक्षाबलों के अभियानों ने नक्सलियों की जड़ें हिला दी हैं। लेकिन यह भी सच है कि नक्सली जितना कमजोर होते जा रहे हैं, उतनी ही क्रूरता से निर्दोषों की हत्या कर रहे हैं।
 
अब बात यह है कि क्या हम चुपचाप यह देखते रहें कि जनजातीय बच्चों से उनका बचपन और भविष्य छीना जा रहा है? क्या यह स्वीकार कर लें कि नक्सलियों के डर से शिक्षक जंगलों में पढ़ाने न जाएँ? क्या यह मान लें कि हर ग्रामीण “मुखबिर” है और उसकी हत्या जायज है?
 
नक्सलवाद कोई “जन आंदोलन” नहीं है, बल्कि यह शिक्षा, विकास और लोकतंत्र का शत्रु है। हर उस शिक्षक की हत्या, हर उस ग्रामीण का गला रेतना, और हर उस स्कूल को जलाना इसकी गवाही देता है। यह लड़ाई केवल सुरक्षाबलों की नहीं है, बल्कि पूरे समाज की है।
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