कुछ दिनों से खबरें आ रही हैं कि नक्सली लगातार आत्मसमर्पण कर रहे हैं। सुरक्षा बलों द्वारा चलाए जा रहे अभियानों में कई मारे भी जा रहे हैं और शांति वार्ता की भी बातें कर रहे हैं। नक्सली (माओवादी) असल में बंदूक लेकर भारत में अपनी सत्ता स्थापित करने निकले थे। तो क्या बंदूक के बल पर सत्ता पर कब्ज़ा करना संभव है? क्या लोकतांत्रिक भारत में हिंसक विचारधारा के लिए कोई जगह है या होनी भी चाहिए?
नक्सलवाद, जिसे कभी गरीबों और वंचितों की आवाज़ कहा गया, आज साफ़ हो चुका है कि इसका वास्तविक उद्देश्य विकास या समानता नहीं बल्कि राज्य सत्ता को गिराना है। बंदूक और धमकी से लोकतंत्र को चुनौती देने वाला यह विद्रोह लंबे समय तक देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा संकट बना रहा। परंतु पिछले दो दशकों की कड़ी सुरक्षा कार्रवाई और लगातार विकास प्रयासों ने इसके दायरे को धीरे-धीरे सिमटा दिया है। और जब भी इन पर आघात होता है, ये शांति वार्ता की बातें करने लगते हैं। जहाँ कभी लाल गलियारे का नाम सुनकर डर फैल जाता था, वहीं आज नक्सलवाद का असर मुट्ठीभर जिलों तक सिमटकर लगभग समाप्ति की ओर बढ़ रहा है।
पृष्ठभूमि और वास्तविक उद्देश्य
नक्सलवादी (माओवादी) हिंसा को अक्सर गरीबी और पिछड़ेपन की समस्या बताया जाता है, लेकिन हकीकत में इसका लक्ष्य भारत की राज्य सत्ता को सशस्त्र क्रांति के जरिए चुनौती देना है। माओवादी ‘Strategy & Tactics of the Indian Revolution’ दस्तावेज़ में स्पष्ट लिखा है कि उनका उद्देश्य “दीर्घकालिक तथाकथित जनयुद्ध” के ज़रिए “क्रांति” (तख्तापलट) करना है, जिसमें ग्रामीण इलाकों में गुरिल्ला युद्ध के आधार क्षेत्र बनाकर शहरी क्षेत्रों को घेरना और अंततः सत्ता पर कब्ज़ा करना शामिल है।
वे अपनी पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (PLGA) के जरिए सशस्त्र संघर्ष छेड़ते हैं और अन्य विद्रोही गुटों से गठजोड़ बनाकर संयुक्त मोर्चा बनाने की रणनीति पर चलते हैं। दस्तावेज़ में यहां तक कहा गया है: “Commencing the war with guerrilla warfare and then going through the forms of mobile and positional warfares will resolve the question of state power” तथा “The guiding principle of our strategy must be to prolong the war.” यानी लड़ाई को जितना संभव हो सके उतना लंबा खींचना।
साफ़ है कि उनकी लड़ाई गरीबी या असमानता से नहीं बल्कि सीधे राज्य के खिलाफ सत्ता हथियाने के लिए है। माओवादी खुद को जनजातीय समाज और गरीब किसानों का रक्षक बताते हैं, लेकिन वास्तविकता में उनके तथाकथित “जनयुद्ध” का दंश इन्हीं ग्रामीणों को हिंसा और पिछड़ेपन के रूप में भुगतना पड़ा है।
शांति वार्ताओं का झूठ और सरकारी रुख
पिछले दशकों में केंद्र एवं राज्य सरकारों ने नक्सलियों के साथ शांति वार्ताओं का प्रयास किया, लेकिन इनका परिणाम हमेशा असफलता रहा। 2004-05 में आंध्र प्रदेश में हुई वार्ताओं के दौरान नक्सलियों ने संघर्षविराम का फायदा उठाकर खुद को फिर संगठित किया और जब उनकी अव्यावहारिक शर्तें नहीं मानी गईं, तो वे हिंसा पर लौट आए।
तत्कालीन मुख्यमंत्री वाई.एस. राजशेखर रेड्डी ने साफ़ कहा था कि यदि माओवादी हथियार नहीं छोड़ते, तो बातचीत का कोई अर्थ नहीं है।
राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने भी चेताया था कि सरकारों को वास्तविक और झूठी मांगों में फर्क करना होगा और जो लोग हथियार उठाकर लोकतंत्र को चुनौती देते हैं, उनसे सख्ती से निपटना होगा।
माओवादियों की कथनी और करनी में अंतर साफ़ है। वे जनजातीय समाज और ग्रामीण अधिकारों की बातें करते हैं, लेकिन साथ ही पुलिस थानों, स्कूलों, सड़कों और स्वास्थ्य सेवाओं पर हमले भी करते हैं। जिन्होंने उनकी हिंसा का विरोध किया, उन्हें माओवादियों ने तथाकथित “जन न्याय” के नाम पर मौत के घाट उतार दिया।
सुरक्षा कार्रवाई और विकास की दोहरी रणनीति
इन्हीं अनुभवों के आधार पर केंद्र और राज्य सरकारों ने दोहरी नीति अपनाई। एक तरफ सुरक्षा बलों का आधुनिकीकरण और संयुक्त अभियानों को तेज़ किया गया, दूसरी ओर विकास योजनाएं भी चलाई गईं।
दूसरी ओर, विशेष केंद्रीय सहायता योजनाओं और प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना जैसे कार्यक्रमों ने जनजातीय इलाकों तक सड़कें, बिजली, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाईं। इसका नतीजा यह हुआ कि युवाओं को रोज़गार और शिक्षा के अवसर मिले और माओवादियों की नई भर्ती करने की क्षमता कमजोर पड़ी।
सिमटता भौगोलिक प्रभाव
2008 में जहां 195 ज़िले नक्सल प्रभावित थे, वहीं 2024 तक यह घटकर 38 रह गए और अप्रैल 2025 में गृह मंत्रालय ने बताया कि सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों की संख्या घटकर केवल 6 रह गई है। छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा में कभी लाल आतंक का दबदबा था, पर अब वे कुछ सीमित जंगलों तक सिमट गए हैं।
स्थायी समाधान की ओर
भारत ने यह सबक सीखा है कि लोकतंत्र को बंदूक से गिराने की कोशिश का जवाब केवल विकास से नहीं बल्कि दृढ़ सुरक्षा कार्रवाई से भी देना पड़ता है। माओवादियों के पास दो ही विकल्प हैं - या तो आत्मसमर्पण कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल हों, या फिर पूरी तरह हाशिए पर चले जाएं।
आज यह स्पष्ट है कि नक्सलवाद ढलान पर है और मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति तथा जनता के सहयोग से इस आंतरिक संकट को पूरी तरह समाप्त किया जा सकता है।
लेख
आदर्श गुप्ता
युवा शोधार्थी